शुंभ
शुंभ ने अपने भाई निशुंभ को चंडिका के हाथों मरता देखकर देवी पर आक्रमण कर दिया। चंडिका तथा विभिन्न शक्तियों के साथ असुरों का भयानक संग्राम हुआ। अस्त्र-शस्त्रविहीन होने के उपरान्त शुंभ घूँसा तानकर देवी की ओर बढ़ा। देवी ने त्रिशूल तथा शूल के प्रहारों से उसे मार डाला। कौमारी की शक्ति से अनेक असुर नष्ट हो गये। ब्रह्माणी के मंत्रपूत जल का स्पर्श होते ही अनेक असुर नष्ट हो गये। शुंभ के वध के उपरान्त प्रकृति स्वच्छ व निर्मल हो गई। अग्निशाला की बुझी हुई आग अपने आप प्रज्वलित हो उठी। देवताओं ने प्रसन्नचित होकर देवी की स्तुति की। देवी ने कहा, "वैवस्वत मन्वंतर के अट्ठाइसवें युग में शुंभ और निशुंभ नामक दो अन्य दैत्य जन्म लेंगे, तब मैं नन्द और गोप के घर जन्म लेकर विंध्याचल पर जाकर रहूँगी और उन दोनों का नाश करूँगी। उनका रक्तपान करने के कारण मैं 'रक्त दंतिका' कहलाऊँगी। तदनन्दर सौ वर्ष तक वर्षा न होने के कारण देवताओं को स्वप्न के फलस्वरूप अयोनिजा अवतरित होकर सौ नेत्रों से उन्हें देखूँगी, अत: लोग मुझे 'शताक्षी' कहेंगे। वर्षा न होने पर अपने शरीर से उत्पन्न हुए शाकों से सृष्टि का पालन करने के कारण 'शाकंभरी' होऊँगी। उसी अवतार में दुर्गम नामक दैत्य का हनन करने के कारण मैं 'दुर्गा देवी' के नाम से भी अभिहीत होऊँगी। भीम रूप धारण करके राक्षसों का भक्षण करने के कारण मैं 'भीमा देवी' कहलाऊँगी। जब अरुण नामक दैत्य तीनों लोकों में उपद्रव मचाएगा तब छ: पैरों वाले भ्रमरों के रूप में दैत्य का हनन करके 'भ्रामरी' नाम प्राप्त करूँगी। जब-जब दानवी बाधा आयेगी, मैं अवश्य अवतार लेकर बाधा का नाश करूँगी।" देवताओं को उपर्युक्त आश्वासन देकर देवी अंतर्धान हो गई।[1]
शुंभ-निशुंभ
शुंभ-निशुंभ दोनों दैत्य भाई थे। उन्होंने घोर तपस्या से ब्रह्मा को प्रसन्न किया। ब्रह्मा ने वर मांगने को कहा तो उन्होंने कहा, "स्त्रियों से तो हमें कोई भय नहीं है। त्रिभुवन में कोई भी पशु-पक्षी और पुरुष आदि जीव हमें न मार पाये।" ब्रह्मा ने उन्हें यह वर दे दिया। शुक्र ने जाना तो उनसे बड़े भाई शुंभ का राज्याभिषेक किया। रक्तबीज, चंड-मुंड इत्यादि पृथ्वीनिवासी समस्त असुर शुंभ-निशुंभ से जा मिले। निशुंभ इंद्रपुरी पर अधिकार करने के लिए गया। इंद्र के वज्र प्रहार से वह अचेत हो गया। शुंभ ने युद्ध करके समस्त देवताओं के अधिकार, शस्त्र इत्यादि छीन लिये। बृहस्पति की प्रेरणा से देवताओं ने परादेवी अम्बिका की स्तुति की। अंबिका ने साक्षात रूप में दर्शन देकर स्मरण करने का कारण पूछा। शुंभ-निशुंभ का वध करने के लिए सिंहारूढ़ देवी ने शुंभ के नगर में प्रवेश किया। शुंभ-निशुंभ के अनुचर चंड और मुंड ने मार्ग में देवी के दर्शन किये-अंबिका देवी गान कर ही थी तथा कालिका देवी उसके सामने विराजमान थी। चंड-मुंड ने राजा को सूचित किया। उन्होंने उस सुन्दरी से विवाह करने का सुझाव भी दिया। राजा ने दूत के द्वारा प्रस्ताव भेजा। देवी ने सहर्ष स्वीकार करके कहा, "इसी निमित्त तो यहाँ पर आई हूँ। मैंने प्रतिज्ञा की है कि जो कोई भी रण में मुझे पराजित करेगा, उसी से मैं विवाह करूँगी। रण क्षेत्र में अकेली नारी से युद्ध करने के लिए कौन जायेगा, इस विषय पर निशुंभ से परामर्श करके शुंभ ने धूम्रलोचन को भेजा। उससे यह भी कहा कि यदि नारी अकेली है, तो हमसे विवाह करने के निमित्त उसे ले आओ।
यदि उसके साथ मनुष्य, देवता आदि जो भी हों तो उन्हें वहीं मार डालना तथा सुन्दरी को ले आना। धूम्रलोचन ने देवी से कहा कि वह उसकी आकांक्षा जान गया है, उसका अभिप्राय रतिसंग्राम से है। देवी ने उसे मार डाला तथा भयंकर गर्जना की। सेना ने भागकर शुंभ की शरण ली। सैनिकों के यह बताने पर कि 'धूम्रलोचन' के हनन पर आकाश से फूलों की वर्षा हुई, अत: निश्चय ही देवतागण देवी के सहायक हैं। शुंभ और निशुंभ ने मंत्रणा की तथा चंड और मुंड को युद्ध के लिए भेजा। भयानक युद्ध में काली चंड-मुंड को पकड़कर अंबिका के पास ले गई। अंबिका ने रण क्षेत्र में उनकी हिंसा करने को गर्जना की, अत: कालिका ने यूप (यज्ञ वेदी) पर देवताओं की कार्य सिद्धि के निमित्त उन दोनों की बलि दे दी। अंबिका ने प्रसन्न होकर कालिका को वर दिया कि पृथ्वी स्थल पर चंड-मुंड की बलि देने के कारण वह (कालिका) चामुंडा देवी के नाम से विख्यात होगी। तदनन्दर रक्तबीज को मारकर देवी ने युद्ध के लिए उपस्थित अपरिमित सेना का भक्षण, उन पर पदाघात, शस्त्राघात इत्यादि करना आरम्भ कर दिया।
देवताओं की शक्तियों, देवताओं के अनुरूप ही रूपाकार वाहन इत्यादि धारण करके युद्धक्षेत्र में पहुँच गई। देवी ने निशुंभ को भी मार डाला, यह सुनकर शुंभ अत्यन्त क्रुद्ध तथा विस्मित हुआ। वह सोचने लगा कि एक ओर इतना मादक रूप और दूसरी ओर इतना शौर्य। अंबिका देवी भी विचित्र है। यही उसने देवी से कहा भी। देवी ने हंसकर कहा, "मुझसे नहीं तो कुरूपा कालिका अथवा चामुंडा से युद्ध करके देख। मैं केवल दर्शिका रहूँगी।" कालिका ने पहले हाथ तथा हाथ-पांव तथा फिर उसका मस्तक काट डाला।[2]
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