वैदिककालीन राजनीतिक व्यवस्था
सर्वप्रथम जब आर्य भारत में आये तो उनका यहाँ के दास अथवा दस्यु कहे जाने वाले पाँच लोगों से संघर्ष, अन्ततः आर्यो को विजय मिली। ऋग्वेद में आर्यो के पांच कबीले के होने की वजह से पंचजन्य कहा गया। ये थे पुरु, यदु, तुर्वश, द्रुह्म और अनु। भरत, क्रिव एवं त्रित्सु आर्य शासक वंश के थे। भरत कुल के नाम से ही इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इनके पुरोहित थे वशिष्ठ। कालान्तर में भरत वंश के राजा सुदास तथा अन्य दस जनों, पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रह्म अकिन, पक्थ, भलानस, विषणिन और शिव के मध्य दाशराज्ञ यु़द्ध परुष्णी (रावी) नदी के किनारे लड़ा गया जिसमें सुदास को विजय मिली। कुछ समय पश्चात् पराजित राजा पुरु और भरत के बीच मैत्री सम्बन्ध स्थापित होने से एक नवीन कुरु वंश की स्थापना की गयी।
क़बीलों का समाज
ऋग्वैदिक काल में समाज कबीले के रूप में संगठित था, कबीले को जन भी कहा जाता था। कबीले या जन का प्रशासन कबीले का मुखिया करता था, जिसे 'राजन' कहा जाता था। इस समय तक राजा का पद आनुवंशिक हो चुका था। राजा का जनस्थ गोपा तथा पुरचेत्ता कहा जाता था। इसके अतिरिक्त राजा की अनेक उपधियाँ थी - विशापति,गणपति, ग्रामणी, आदि। कबीले के लोग स्वेच्छा से राजा का कर देते थें। इसे वलि कहा जाता था। 'राष्ट्र' की क्षेत्रीय अवधारणा धीरे-धीरे विकसित हो रही थीं क्योंकि ऋग्वेद के 10 वें मण्डल में राजा से 'राष्ट्र' की रक्षा करने का कहा गया है। ऋग्वेद में 'जन' शब्द का उल्लेख 275 बार मिलता है जबकि जनपद शब्द का उल्लेख एक बार भी नहीं मिलता है। राजा कोई भी निर्णय कबायली संगठनों के सलाह से लेता था। राजा की सहायता हेतु पुरोहित, सेनानी, एवं ग्रामणी नामक प्रमुख अधिकारी थी। प्रायः पुरोहित का पद वंशानुगत होता था। लड़ाकू दल के प्रधान ग्रामणी कहलाते थे। सैन्य संचालन वा्रत, गण, ग्राम व सर्ध नामक कबीलाई टुकडिया करती थीं ऋग्वेद में युद्ध प्रायः धनुष-वाणों से होता था। ऋग्वेद में पुरपथरिष्णु का उल्लेख हुआ है,जो प्रायः दुर्गो को गिराने के लिए एक यन्त्र था। सूत, रथकार तथा कम्मादि आदि पदाधिकारी 'रत्नी' कहे जाते थे। इनकी संख्या राजा सहित क़रीब 12 होती थी। ये राजा के राज्याभिषेक के समय उपस्थित रहते थे। 'पुरप' दुर्गपति होते थे। 'स्पश' जनता की गतिविधियों को देखने वाले गुप्तचर होते थे। दूत समय समय पर सन्धि-विग्रह के प्रस्तावों को लेकर राजा के पास जाता था। वाजपति गोचर भूमि का अधिकारी एवं कुलप परिवार का मुखिया होता था।
कुछ कबीलाई संस्थाएं अस्तित्व में थी, जैसे-सभा, समितद, विदथ तथा गण। अथर्ववेद के अनुसार सभा और समिति प्रजापति की दो पुत्रियाँ थी।
सभा
सभा की उत्पत्ति ऋग्वेद के उत्तरकाल में हुई थी। यह वुद्ध (श्रेष्ठ) एवं अभिजात (संभ्रान्त) लोगों की संस्था थीं। यह समिति की अपेक्षा छोटी थी। सभा में भागेदारी करने वालों का सभेय कहा जाता था। अथर्ववेद में सभा एक स्थान पर 'नरिष्टा' कहा गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ अनुलंधनीय है। इससे ज्ञात होता है कि सभी द्वारा लिया गया निर्णय अनुलंघनीय होता था। वेदों में इसके सदस्यों को पितरः (पिता) कह कर सम्बोधित कहा गया है । इसका अध्यक्ष सभापति कहा जाता था। सभी का प्रमुख कार्य न्याय प्रदान करना था। ऋग्वेद में 8 बार सभा की चर्चा की गई है।
समिति
यह एक आम जनप्रतिनिधि सभा (केन्द्रीय राजनीतिक) थी। समिति राजा का निर्वाचन करती थी तथा उस पर नियन्त्रण रखती थी। इस समिति के अध्यक्ष कोपति या ईशान कहा जाता था। समिति में राजकीय विषयों पर चर्चा होती थी तथा सहमति से निर्णय होता था। आरुणिपुत्र श्वेतकेतु पंचाल देशीय लोगों को समिति में आया था। उससे जीवन पुत्र प्रवाहण जैबलि ने पांच प्रश्न पूछा था जिसका उत्तर वह नहीं दे पाया था। इससे पता चलता है कि संभवतः समिति में राजनीतिक गैरराजनीतिक विषयों पर भी चर्चा होती थी यह राष्ट्रीय एकेडमी का भी काम करती थी। ऋग्वेद में 9 बार समिति की चर्चा हुई है।
विदथ
यह आर्यो की सर्वप्राचीन संस्था थी। इसे जनसभा भी कहा जाता था। रॉथ के अनुसार 'विदथ' संस्था सैनिक असैनिक तथा धार्मिक कार्यो से संम्बद्ध थी। इसी कारण के.पी. जायसवाल विद्थ को एक मौलिक बड़ी सभा मानते हैं। रामशरण शर्मा इसे आर्यो की प्राचीनतम संस्था मानते हैं, उनका मानना है कि ऋग्वेद में विद्थ का उल्लेख 22 बार हुआ है। आपके अनुसार विद्थ ऐसी संस्था थी जो यु़द्ध में लूटी गयी वस्तुओं अथवा उपहार और समय-समय पर मिलने वाली भेटों की सामग्रियों का वितरण करती थी। ऋग्वैदिक काल में स्त्रियाँ भी सभा और विद्थ में भाग लेती थी। इस प्रकार, सभा, समिति, विद्थ और परिषद् वैदिक राजतंत्र में सहायक के रूप में काम करती थी। ऋग्वेद तथा इस पर लिख गए ब्राह्मण एवं ऐतरेय ब्राह्मण दोनों में राजा के निर्वाचन सम्बन्धी सूक्त पाये जाते हैं।
भागदुध
विशिष्ट अधिकारी, जो राजा के अनुयायियों के मध्य बलि (भेंट) का समुचित बंटवारा एवं कर का निर्धारण करता था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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