वैदिककालीन आर्थिक जीवन

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ऋग्वेद में आर्यो के मुख्य व्यवसाय के रूप में पशुपालन एवं कृषि का विवरण मिलता है जबकि पूर्व वैदिक आर्यो ने पशुपालन को ही अपना मुख्य व्यवसाय बनाया था। ऋग्वैदिक सभ्यता ग्रामीण सभ्यता थी। इस वेद में ‘गव्य एवं गव्यति शब्द चारागाह के लिए प्रयुक्त है। इस काल में गाय का प्रयोग मुद्रा के रूप मे भी होता था। अवि (भेड़), अजा (बकरी) का ऋग्वेद में अनेक बार ज़िक्र हुआ है। हाथी, बाघ, बतख,गिद्ध से आर्य लोग अपरिचित थे। धनी व्यक्ति को गोपत कहा गया था। राजा को गोपति कहा जाता था युद्ध के लिए गविष्ट, गेसू, गव्य ओर गम्य शब्द प्रचलित थे। समय की माप के लिए गोधुल शब्द का प्रयोग किया जाता था। दूरी का मान के लिए गवयतु।

ऋग्वेद में कृषि का उल्लेख मात्र 24 बार ही हुआ है, जिसमें अनेक स्थानों पर यव एवं धान्य शब्द का उल्लेख मिलता है। 'गो' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में 174 बार आया है। गाय को पवित्र माना जाता था और उसे अधन्य कहा जाता था। गाय विनिमय का मुख्य साधन थी, इसलिए इसका धार्मिक एवं सामाजिक की अपेक्षा आर्थिक महत्व अधिक था। ऋग्वेद में सम्पति का मुख्य रूप गोधन था। युद्ध का प्रमुख कारण गायों की गवेषणा अर्थात् 'गविष्टि' था। पुरोहितों को गायें और दासियाँ दक्षिणा के रूप में दी जाती थीं। दान के रूप में भूमि न देकर दास-दासियाँ ही दी जाती थी।

कृषि

ऋग्वैदिक काल में राजा भूमि का स्वामी नहीं होता था। वह विशेष रूप से युद्धकालीन स्वामी होता था। ऋग्वेद में दो प्रकार के सिंचाई का उल्लेख है-

  1. खनित्रिमा (खोदकर प्राप्त किया गया जल)
  2. स्वयंजा (प्राकृतिक जल)

उद्योग

ऋग्वैदिक काल में वस्त्र धुलने वाले, वस्त्र बनाने वाले (वाय), लकड़ी एवं धातु का काम करने वाले एवं बर्तन बनाने वाले शिल्पों के विकास के बारें मे विवरण मिलता है। चर्मकार एवं कुम्हार का भी उल्लेख मिलता है। सम्भवतः 'अयस' शब्द का उपयोग ऋग्वेद में करघा के लिए, 'ओत' एवं तन्तु शब्द का प्रयोग ताने-बाने के लिए एवं 'शुध्यव' शब्द का प्रयोग ऊन के लिए किया जाता था। ऋग्वेद में कपास का उल्लेख नहीं मिलता है। ऋग्वेद में हिरण्य एवं सुवर्ण शब्द का प्रयोग सोने के लिए किया गया है। 'निष्क' सोने की मुद्रा थी। तक्षन व तष्ट शब्द का प्रयोग बढ़ई के अर्थ में किया गया है। आर्यो के सामाजिक जीवन में रथों का अधिक महत्व होने के कारण 'तक्षा' सामाजिक प्रतिष्ठा अधिकर बढ़ी हुई थी। 'अनस' साधारण गाड़ी को कहा जाता था। 'नद' (नरकट) का प्रयोग ऋग्वेद काल में स्त्रियाँ चटाई बुनने के लिए करती थीं। 'चर्मग्न' चमड़ा सिझाने वालों का कहा जाता था।

व्यापार

ऋग्वैदिक काल में व्यापार में क्रय-विक्रय हेतु विनिमय प्रणाली का शुभारम्भ हो चुका था। इस प्रणाली में वस्तु विनिमय के साथ-साथ गाय, घोड़े एवं स्वर्ण से भी क्रय-विक्रय किया जाता था। विनिमय के माध्यम के रूप में `निष्क का उल्लेख हुआ है, किन्तु इसका समीकरण विवादग्रस्त है। संभवतः यह प्रारंभ में हार जैसा कोई स्वर्णाभूषण था, कालान्तर में सिक्के के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऋग्वैदिक काल में व्यापार करने वाले व्यापारियों एवं व्यापार हेतु सदूरवर्ती प्रदेशों में भ्रमण करने वाले व्यक्ति को 'पणि' कहा जाता था। ऋग्वेद में एक स्थान पर देवताओं तथा पणियों के बीच संघर्ष तथा देवताओं द्वारा उनके संहार का वर्णन मिलता है। व्यापार स्थल एवं जल दोनों रास्तों से होता था, आन्तरिक व्यापार बहुधा गाड़ियों, रथों एवं पशुओं द्वारा होता था। आर्यो को समुद्र के विषय में जानकारी थी या नहीं यह बात अभी तक अस्पष्ट है। फिर भी ऋग्वेद में सौ पतवारों वाली नौका से यात्रा करने का विवरण प्राप्त होता है। एक स्थान पर तुग्र के पुत्र भुज्य की समुद्र यात्रा वर्णन है जिसने मार्ग में जलयान को नष्ट हो जाने पर आत्मरक्षा के लिए अश्विनीकुमारों से प्रार्थना की थी। अश्विनी कुमारों ने उनकी रक्षा के लिए 100 पतवार वाला जहाज़ भेजा था। इस काल में ऋण देकर व्याज लेने वाले वर्ग को 'बेकनाट' (सूदखोर) कहा जाता था।


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