जनेऊ

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(यज्ञोपवीत से पुनर्निर्देशित)
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जनेऊ धारण किया हुआ बालक

जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है। इसे 'उपनयन संस्कार', जिसे 'यज्ञोपवीत संस्कार' भी कहा जाता है, के समय धारण कराया जाता है। जनेऊ को संस्कृत भाषा में 'यज्ञोपवीत' कहा जाता है। यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में 'यज्ञोपवित संस्कार' यानी जनेऊ की परंपरा है। बालक के दस से बारह वर्ष की आयु का होने पर उसकी यज्ञोपवित की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात् ही बालक को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिलता था। जनेऊ एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। यह केवल धर्माज्ञा ही नहीं, बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अत: इसको सदैव धारण करना चाहिए।

क्यों करते हैं धारण

जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। जनेऊ या यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है। शरीर के पृष्ठ भाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है, जो विद्युत के प्रवाह की तरह कार्य करती है। यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है। यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है। इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है। यदि यह नस संकूचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता। कंधे पर जनेऊ है, इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है। इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध की प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है। यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं, बल्कि आरोग्य का पोषक भी है। अत: इसे सदैव धारण करना चाहिए। शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है। आदित्य, वसु, रुद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। यदि सेसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता।

प्राचीन परम्परा

जनेऊ धारण करने की परम्परा काफ़ी प्राचीन है। भारत में हिन्दू समाज सबसे प्रमुख है और इसी समाज की परम्परा है- जनेऊ धारण करना। पूजा पाठ भारतीय परंपरा का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है और भारतीय समाज के अनुसार एक बच्चा तैरह साल का होने के पश्चात, तब तक किसी भी यज्ञ में आहुति नहीं दे सकता, जब तक उसने जनेऊ धारण ना किया हो। साधारण भाषा में जनेऊ एक ऐसी परंपरा है, जिसके बाद ही एक बच्चे को मर्द का स्थान दिया जाता है और वह पारंपरिक तौर से पूजा आदि में भाग ले सकता है। परन्तु भारतीय पूजा से सम्बंधित कई खोखली परम्पराओं कि तरह जनेऊ भी दलित समाज धारण नहीं कर सकता। यह परंपरा केवल लड़कों के लिए होती है और किसी भी लड़के के तैरह साल के होने के पश्चात् उसके माता-पिता मंदिर में जाकर या पंडित को घर बुलाकर इस परंपरा को निभाते हैं। जनेऊ परंपरा निभाने के लिए एक यज्ञ होता है, जिसमें जनेऊ धारण करने वाला लड़का अपने संपूर्ण परिवार के साथ भाग लेता है। जनेऊ वास्तव में एक सफ़ेद रंग का धागा होता है, जिसे पंडित लड़के की छाती से पेट तक बाँधता है।

मंत्र

'उपनयन संस्कार, जिसमें जनेऊ पहना जाता है और विद्यारंभ होता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। सूत से बना वह पवित्र धागा, जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किया गया उपवीत, यज्ञसूत्र या जनेऊ एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियाँ लगायी जाती हैं। ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिन्दू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण कये अन्न-जल गृहण नहीं किया जाता। यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है-

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

लाभ

जनेऊ धारण करने के कई लाभ हैं। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसें, जिनका संबंध पेट की आंतों से होता है, आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है, जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय के रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात् अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दाँत, मुँह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।


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