मेवाड़ के परिधान

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मेवाड़ 'भारतीय इतिहास' में अपनी कई विशिष्टताओं के लिए प्रसिद्ध रहा है। यहाँ की लोक संस्कृति भी पुराने समय से ही आकर्षण का केन्द्र रही है। मेवाड़ के लोगों का पहनावा राजपूताना के अन्य राज्यों से मिलता जुलता है। व्यक्ति की आर्थिक स्थिति, समाज में प्रतिष्ठा तथा किसी जाति या धर्म विशेष से जुड़ा होना, यहाँ के लोगों के पहनावे को प्रभावित करता रहा है। नि:संदेह समय के साथ-साथ पहनावों में भी परिवर्तन आने लगा था, लेकिन समाज के बुजुर्ग एवं ग्रामीण लोग अभी तक अपनी परम्परा को जीवित रखे हुए हैं।

पुरुषों के वस्त्र

मेवाड़ी पुरुष सामान्य रूप से कुर्ता, लंबा अंगरखा, धोती तथा पगड़ी धारण करते हैं। मूल राजपूती पगड़ी पतली व लंबी हुआ करती थी, जो 37 फुट लंबी और 6 इंच चौड़ी थी। क्षेत्र के ग्रामीण तथा भील आदि जंगली क्षेत्र में निवास करने वाले लोग पगड़ी के स्थान पर 'पोतिया' बाँधते हैं, जो प्रायः मोटे कपड़े का बना होता है। पहले के राजकीय कर्मचारी पायजामा और अंगरखा पहनकर कमर बाँधते थे तथा अंगरखे के ऊपर झूलता हुआ कोट पहनते थे, जो बाद में राजपूत और मुस्लिमों के सामूहिक प्रभाव से एक लंबा घेरादार व तानीदार कोट में परिवर्तित हो गया। इसके साथ ही साथ आवश्यकतानुसार चादर, शॉल, दुशाला आदि भी पहनने का रिवाज समाज में था। यही पहनावा धीरे-धीरे शहर तथा बड़े कस्बों के धनवान लोगों में भी प्रचलित हो गया। बोहरे तथा मुस्लिम प्रायः पायजामा धारण करते हैं।

स्त्रियों की पोशाक

प्राचीन मेवाड़ में उच्च घराने की महिलाएँ प्रायः हर एक तरह के ही उपलब्ध कपड़े पहना करती थीं। उनका 'घाघरा', जिसे 'लहंगा' भी कहा जाता है, तीन सौ फुट तक का घेरदार होता था। उनके ओढ़ने की साड़ी या दुपट्टा बारह फुट तक लंबा हो सकता था। लेकिन पिछड़े वर्ग की जातियाँ इतने लंबे वस्त्रों का उपयोग नहीं करती थीं। समाज की महिलाओं की पोशाक में घाघरा, साड़ी, दुपट्टा, आढ़नी[1], चादर, चोली, अंगिया, लहंगा, झुगली और कांचली[2] मुख्य हैं। कुछ स्त्रियाँ कुरती, अंगरखी या बास्लट भी पहनती थीं। ग्रामीण किसान तथा भील स्त्रियों के घाघरे कुछ ऊँचे होते हैं। मुस्लिम स्त्रियों में बहुधा पाजामे पहनने का रिवाज है। बोहरों की स्त्रियाँ घर से बाहर निकलने पर प्रायः लहंगा ही पहनती हैं, लेकिन मुँह पर नकाब डाले रहती हैं।

विधवा स्त्रियों के वस्त्र

वे स्त्रियाँ जो पति की मृत्यु के बाद विधवा हो जाती हैं, उनके लिए मेवाड़ी समाज में प्रायः साधारण सफ़ेद रंग या फिर पक्के रंग के वस्त्र धारण करने का प्रचलन है।

राजसी वस्त्र

ठिकाना के ठाकुरों और राजाओं की पोशाकें बहुत महंगी तथा बारीक होती थीं। उनके सिर पर प्रायः रत्न से जड़ित या गोटेदार पगड़ी, मालवेद या रत्न जड़ित पट्टी होती थी। वैष्णव परम्परानुसार बारह कसों की अंगरखी का पहनावा पुरुषों के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता था। लेकिन इसे केवल राज दरबार के मुखिया ही धारण कर सकते थे। 16वीं सदी के बाद पहनावे में परिवर्तन आया। महाराणा करण सिंह का मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के पगड़ी बदल भाई बनने पर पगड़ी पर मुग़ल प्रभाव आने लगा था। जगतसिंह प्रथम, राजसिंह एवं जयसिंह के राज्यकाल में शाहजानी पगड़ी चलती रही। राणा अमरसिंह द्वितीय ने पगड़ियों की नई शैली अपनाई, जो आकार में छोटी थी। यह महाराणा राजसिंह द्वितीय तक चलती रही। इस प्रकार की पगड़ी को 'अमरशाही पाग' के रूप में जाना गया। महाराणा अरसी की पगड़ी बूँदी शैली के निकट है, जो महाराणा भीमसिंह एवं जवानसिंह के राज्यकाल तक चलती रही। जवानसिंह के बाद पगड़ी के रूपों में बहुत अधिक परिवर्तन आये। महाराणा स्वरूपसिंह ने जो पगड़ी में परिवर्तन किया, उसे 'स्वरूशाही पगड़ी' के नाम से जाना जाता था।

आधुनिक पहनावा

आज वर्तमान समय के पहनावे रियासती काल से अलग नजर आते हैं। कुछ ग्रामीण तथा जंगली क्षेत्रों में रहने वाले मेवाड़ियों को यदि छोड़ दिया जाए तो दिखाई देता है कि समाज का प्रायः सभी वर्ग आधुनिकता से प्रभावित है। समाज के बुद्धिजीवी वर्ग का बड़ा हिस्सा, चाहे वे विद्यार्थी हों या मुलाजिम, प्रायः कमीज और पतलून का इस्तेमाल करता है। इन लोगों के बीच परंपरागत परिधानों का इस्तेमाल प्रायः किसी विशेष उत्सव या त्योहार में या फिर किसी अन्य प्रयोजन से ही किया जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ओढ़नी
  2. कंचुलिका

बाहरी कड़ियाँ

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