बनारस के अखाड़े
काशी अथवा बनारस में एक जमाने में ‘धूर’ को लोग अपना आभूषण मानते थे।
दो घंटे ‘धूर’ में ‘लोटाई’ न की तो चैन कहाँ।
गमछा उठाया, लँगोट पहना और चले अखाड़े की ‘धूर’ में लोटने। ‘लँगोट की मजबूती’ का मुहावरा आज भी यहाँ प्रसिद्ध है लेकिन समय बदला, युग बदला, परिवेश बदला। इसी के साथ ‘धूर’ का महत्व भी कम होता गया। उस समय बनारस के युवकों में अखाड़े जाने की होड़ थी। हर वर्ग के युवक ‘धूर’ पोतने जाते। पहलवानी करना प्रतिष्ठापरक माना जाता। किसी परिवार में अगर कोई नामी पहलवान निकला तो उसकी प्रतिष्ठा दोगुनी हो जाती। बनारस में अखाड़ों की संख्या बहुत है। कहा यह जाता था कि यहाँ पहले मुहल्ले-मुहल्ले में अखाड़े थे। लेकिन कुछ अखाड़े समय के साथ हाशिये में मिट गये। फिर भी अभी अखाड़ों की संख्या बहुत है।
- पंडाजी का अखाड़ा
- राज मन्दिर अखाड़ा
- अखाड़ा शकूर खलीफ़ा
- तकिया मुहल्ला अखाड़ा
- रामसिंह अखाड़ा
- मुहल्ला बड़ागणेश अखाड़ा
- कालूक सरदार अखाड़ा
- बबुआ पाण्डेय अखाड़ा
- अधीन सिंह अखाड़ा
- वृद्धकाल अखाड़ा
- ‘विष्णु राम’ अखाड़ा
- जग्गू सेठ अखाड़ा
- पानी पाँडे का अखाड़ा
- रामकुण्ड अखाड़ा
- गया सेठ अखाड़ा
- संतराम अखाड़ा
- नागनाथ अखाड़ा
- स्वामीनाथ अखाड़ा
वर्तमान में
बनारस के कुछ प्रसिद्ध अखाड़ों के नाम इस प्रकार हैं-जो अब लगभग बन्द हो गये हैं- अखाड़ा अशरफी सिंह-भदैनी, कल्लू कलीफा-मदनपुरा, इशुक मास्टर-मदनपुरा, शकूर मजीद, छत्तातले-दालमण्डी, मस्जिद में जिलानी, बचऊ चुड़िहारा-चेतगंज, गंगा-चेतगंज, वाहिद पहलवान-अर्दली बाज़ार, खूद बकस-बेनिया, चुन्नी साव-राजघाट चुँगी आदि। वाराणसी में अखाड़ों और अखाड़ियों की बड़ी शानदार परम्परा रही है। यह कला बनारस की शान से जुड़ी थी, लेकिन अब वह स्थिति नहीं रही। यदि सरकार दिल्ली की तरह बनारस के अखाड़ों को भी सुविधा प्रदान करे, तो यहाँ के पहलवान काफ़ी नाम रोशन कर सकते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि बनारस की मिट्टी की ताकत को पहचान कर इस दिशा में और प्रयास किया जाय।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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