कवित्त रत्नाकर

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कवित्त रत्नाकर सेनापति कवि का प्राप्त एक मात्र ग्रंथ है। कवित्त रत्नाकर का रचनाकाल सं. 1706 वि. (सन 1649 ई.) है। यह कवि की स्फुट रचनाओं का संकलन ग्रंथ है। इसमें पाँच शीर्षक अथवा अध्याय हैं, जिन्हें 'तरंग' की संज्ञा दी गयी है। पहली तरंग में 96, दूसरी में 74, तीसरी में 62, चौथी में 76 तथा पाँचवीं में 86 और सब मिलाकर पूरे ग्रंथ में 394 छन्द हैं। इनमें से कुछ छन्द ऐसे भी हैं जो दो तरंगों में समान रीति प्राप्त होते हैं। 10 पुनरावृति वाले छन्दों को छोड़कर 'कवित्त-रत्नाकर' में परिशिष्ट रूप में पृथक् दिये हुए मिलते हैं। ये छन्द रचना-शैली की दृष्टि से सेनापति के ही प्रतीत होते हैं किंतु केवल एक ही हस्तलिखित प्रति में प्राप्त होने के कारण इन्हें असम्पादित रूप में मुद्रित किया गया है[1]

हस्तलिखित प्रतियाँ

कवित्त-रत्नाकर की 11 हस्तलिखित प्रतियाँ प्रकाश में आ चुकी हैं, जिनमें से 9 प्रतियाँ भरतपुर के 'राजकीय पुस्तकालय' में प्राप्त हैं। एक अन्य हस्तलिखित प्रति भी भरतपुर के राजकीय पुस्तकालय में थी। प्रयाग विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग के भूतपूर्व अध्यापक 'शिवाधार पाण्डेय' ने सन् 1932 ई. में इस प्रति की एक प्रतिलिपि प्रस्तुत की थी, जिसका उपयोग 'हिन्दी परिषद' के संस्करण में हुआ है, किंतु मूल हस्तलिखित प्रति अब भरतपुर के पुस्तकालय में नहीं है। इन दस प्रतियों में ज्ञात प्राचीनतम प्रति सन् 1761 ई. की है। भरतपुर की दो अन्य हस्तलिखित प्रतियों का लिपिकाल ज्ञात है- सन् 1775 ई. और सन् 1823 ई.। इन दस प्रतियों में 4 प्रतियाँ खण्डित रूप में प्राप्त हैं। इनके अतिरिक्त 'कवित्त रत्नाकर' की ज्ञात ग्यारहवीं प्रति सन् 1884 ई. की है जो सीतापुर निवासी प्रसिद्ध विद्वान् 'स्व.कृष्णबिहारी' के संकलन में प्राप्त है। इस सामग्री के आधार पर प्रयाग विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग ने कवित्त रत्नाकर का एक संस्करण उमाशंकर शुक्ल द्वारा प्रस्तुत करवाया था, जो पहली बार सन् 1936 ई. में हिन्दी परिषद , प्रयाग विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित हुआ है।

पहली तरंग

'कवित्त-रत्नाकर' की पहली तरंग का दूसरा नाम श्लेष-वर्णन है। इसके दस प्रारम्भिक छन्दों में 'मंगलाचरण', 'राम-स्तुति', 'गुरु-वन्दना', 'वंश-परिचय' तथा 'काव्य-परिचय' वर्णित है; छन्द 8 से 96 तक 89 श्लिष्ट छन्द संकलित हैं जिनकी प्रासादिकता तथा सरसता की आलोचकों ने सराहना की है। ब्रजभाषा की साधारण-से साधारण शब्दावली का ऐसा चमत्कारपूर्ण प्रयोग कवि ने किया है कि इसकी वाणी से छन्दों के दोहरे अर्थ बरबस निकलते चले आते हैं, एक कवित्त तो तीन अर्थ देता है।

दूसरी तरंग

श्लेष के पश्चात् दूसरी तरंग में श्रृंगारिक रचनाएँ संकलित हैं। इस तरंग के आधे से अधिक छ्न्दों में रूप-वर्णन तथा नायिक-भेद का विस्तार मिलता है, शेष रचना विरह का अतिरंजित रूप प्रस्तुत करती है। इन तीनों विषयों का कोई निश्चित क्रम नहीं हैं। इनके छ्न्द मिले-जुले रूप में पाये जाते हैं।

तीसरी तरंग

तीसरी तरंग के 62 में शरद, 9 में शिशिर तथा 11 में हेमंत ऋतु का चित्रण हुआ है। जिस प्रकार दूसरी तरंग में श्रृंगार रस के 'आलम्बन-विभाव' का चित्रण मिलता है, उसी प्रकार तीसरी तरंग में 'उद्दीपन विभाग' की दृष्टि से षटऋतु वर्णन प्रस्तुत किया गया है। यह अवश्य है कि इसमें कवि का दृष्टिकोण सामान्य रीतिकालीन दृष्टिकोण से भिन्न है, क्योंकि उसके प्रकृति-चित्रण में प्रकृति के विभिन्न व्यापारों के प्रति कवि का सच्चा अनुराग झलकता है।

चौथी तरंग

चौथी तरंग का सम्बन्ध रामकथा से है। रामकथा की विशालता से कवि परिचित था इसलिए उसने प्रारम्भ में ही कथा-क्रम को नमस्कार कर लिया है[2]और 'रामकथा' के प्रमुख मार्मिक स्थलों पर स्फुट रचनाएँ प्रस्तुत की है। इस ग्रंथ की अंतिम तरंग में भक्ति-ज्ञान - वैराग्यसम्बन्धी स्फुट रचनाएँ संग्रहीत हैं। अंत में 'चित्रालंकार' विषयक कमलबद्धोत्तर, अमत्त एकाक्षरी, द्वय्‌क्षरी तथा लाटानुप्रास के थोड़े से छ्न्द संकलित हैं जो कवि सेनापति की अलंकार-प्रियता के सूचक हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'हिन्दी परिषद', प्रयाग विश्वविद्यालय संस्करण, पृ.119
  2. 'तरंग' 3, छ्न्द 6

धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 76-77।

बाहरी कड़ियाँ

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