कर्मभूमि उपन्यास भाग-4 अध्याय-1

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अमरकान्त को ज्योंही मालूम हुआ कि सलीम यहां का अफसर होकर आया है, वह उससे मिलने चला। समझा, खूब गप-शप होगी। यह खयाल तो आया, कहीं उसमें अफसरी की बू न आ गई हो लेकिन पुराने दोस्त से मिलने की उत्कंठा को न रोक सका। बीस-पच्चीस मील का पहाड़ी रास्ता था। ठंड खूब पड़ने लगी थी। आकाश कुहरे की धुंध से मटियाला हो रहा था और उस धुंध में सूर्य जैसे टटोल-टटोलकर रास्ता ढूंढता हुआ चला जाता था। कभी सामने आ जाता, कभी छिप जाता। अमर दोपहर के बाद चला था। उसे आशा थी कि दिन रहते पहुंच जाऊंगा किंतु दिन ढलता जाता था और मालूम नहीं अभी और कितना रास्ता बाकी है। उसके पास केवल एक देशी कंबल था। कहीं रात हो गई, तो किसी वृक्ष के नीचे टिकना पड़ जाएगा। देखते-ही-देखते सूर्यदेव अस्त भी हो गए। अंधेरा जैसे मुंह खोले संसार को निगलने चला आ रहा था। अमर ने क़दम और तेज किए। शहर में दाखिल हुआ, तो आठ बज गए थे।

सलीम उसी वक्त क्लब से लौटा था। खबर पाते ही बाहर निकल आया, मगर उसकी सज-धज देखी, तो झिझका और गले मिलने के बदले हाथ बढ़ा दिया। अर्दली सामने ही खड़ा था। उसके सामने इस देहाती से किसी प्रकार की घनिष्ठता का परिचय देना बड़े साहस का काम था। उसे अपने सजे हुए कमरे में भी न ले जा सका। अहाते में छोटा-सा बाग था। एक वृक्ष के नीचे उसे ले जाकर उसने कहा-यह तुमने क्या धज बना रखी है जी, इतने होशियार कब से हो गए- वाह रे आपका कुरता मालूम होता है डाक का थैला है, और यह डाबलशू जूता किस दिसावर से मंगवाया है- मुझे डर है, कहीं बेगार में न धार लिए जाओ ।

अमर वहीं ज़मीन पर बैठ गया और बोला-कुछ खातिर-तवाजो तो की नहीं, उल्टे और फटकार सुनाने लगे। देहातियों में रहता हूं, जेंटलमैन बनूं तो कैसे निबाह हो- तुम खूब आए भाई, कभी-कभी गप-शप हुआ करेगी। उधर की खैर-कैफियत कहो। यह तुमने नौकरी क्या कर ली- डटकर कोई रोज़गार करते, सूझी भी तो ग़ुलामी।

सलीम ने गर्व से कहा-ग़ुलामी नहीं है जनाब, हुकूमत है। दस-पांच दिन में मोटर आई जाती है, फिर देखना किस शान से निकलता हूं मगर तुम्हारी यह हालत देखकर दिल टूट गया। तुम्हें यह भेष छोड़ना पड़ेगा।

अमरकान्त के आत्म-सम्मान को चोट लगी। बोला-मेरा खयाल था, और है कि कपड़े महज जिस्म की हिफाजत के लिए हैं, शान दिखाने के लिए नहीं।

सलीम ने सोचा, कितनी लचर-सी बात है। देहातियों के साथ रहकर अक्ल भी खो बैठा। बोला-खाना भी महज जिस्म की परवरिश के लिए खाया जाता है, तो सूखे चने क्यों नहीं चबाते- सूखे गेहूं क्यों नहीं फांकते- क्यों हलवा और मिठाई उड़ाते हो-

'मैं सूखे चने ही चबाता हूं।'

'झूठे हो। सूखे चनों पर ही यह सीना निकल आया है मुझसे डयोढ़े हो गए, मैं तो शायद पहचान भी न सकता।'

'जी हां, यह सूखे चनों ही की बरकत है। ताकत साफ़ हवा और संयम में है। हलवा-पूरी से ताकत नहीं होती, सीना नहीं निकलता। पेट निकल आता है। पच्चीस मील पैदल चला आ रहा हूं। है दम- जरा पांच ही मील चलो मेरे साथ।

'मुआफ कीजिए, किसी ने कहा-बड़ी रानी, तो आओ पीसो मेरे साथ। तुम्हें पीसना मुबारक हो। तुम यहां कर क्या रहे हो?'

'अब तो आए हो, खुद ही देख लोगे। मैंने ज़िंदगी का जो नक्शा दिल में खींचा था, उसी पर अमल कर रहा हूं। स्वामी आत्मानन्द के आ जाने से काम में और भी सहूलियत हो गई है।'

ठंड ज्यादा थी। सलीम को मजबूर होकर अमरकान्त को अपने कमरे में लाना पड़ा।

अमर ने देखा, कमरे में गद्वेदार कोच हैं, पीतल के गमले हैं, ज़मीन पर कालीन है, मधय में संगमरमर की गोल मेज है।

अमर ने दरवाज़े पर जूते उतार दिए और बोला-किवाड़ बंद कर दूं, नहीं कोई देख ले, तो तुम्हें शर्मिंदाहोना पड़े। तुम साहब ठहरे।

सलीम पते की बात सुनकर झेंप गया। बोला-कुछ-न-कुछ खयाल तो होता ही है भई, हालांकि मैं व्‍यसन का ग़ुलाम नहीं हूं। मैं भी सादी ज़िंदगी बसर करना चाहता था लेकिन अब्बाजान की फरमाइश कैसे टालता- प्रिंसिपल तक कहते थे, तुम पास नहीं हो सकते लेकिन रिजल्ट निकला तो सब दंग रह गए। तुम्हारे ही खयाल से मैंने यह ज़िला पसंद किया। कल तुम्हें कलक्टर से मिलाऊंगा। अभी मि. गजनवी से तो तुम्हारी मुलाकात न होगी। बड़ा शौकीन आदमी है मगर दिल का साफ। पहली ही मुलाकात में उससे मेरी बेतकल्लुफी हो गई। चालीस के क़रीब होंगे, मगर कंपेबाजी नहीं छोड़ी।

अमर के विचार में अफसरों को सच्चरित्र होना चाहिए था। सलीम सच्चरित्रता का कायल न था। दोनों मित्रों में बहस हो गई।

अमर बोला-सच्चरित्र होने के लिए खुश्क होना ज़रूरी नहीं।

मैंने तो मुल्लाओं को हमेशा खुश्क ही देखा। अफसरों के लिए महज क़ानून की पाबंदी काफ़ी नहीं। मेरे खयाल में तो थोड़ी-सी कमज़ोरी इंसान का जेवर है। मैं ज़िंदगी में तुमसे ज्यादा कामयाब रहा। मुझे दावा है कि मुझसे कोई नाराज नहीं है। तुम अपनी बीबी तक को खुश न रख सके। मैं इस मुल्लापन को दूर से सलाम करता हूं। तुम किसी ज़िले के अफसर बना दिए जाओ, तो एक दिन न रह सको। किसी को खुश न रख सकोगे।

अमर ने बहस को तूल देना उचित न समझा क्योंकि बहस में वह बहुत गर्म हो जाया करता था।

भोजन का समय आ गया था। सलीम ने एक शाल निकालकर अमर को ओढ़ा दिया। एक रेशमी स्लीपर उसे पहनने को दिया। फिर दोनों ने भोजन किया। एक मुद्दत के बाद अमर को ऐसा स्वादिष्ट भोजन मिला। मांस तो उसने न खाया लेकिन और सब चीज़ें मजे से खाईं।

सलीम ने पूछा-जो चीज़ खाने की थी, वह तो तुमने निकालकर रख दी।

अमर ने अपराधी भाव से कहा-मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन भीतर से इच्छा नहीं होती। और कहो, वहां की क्या खबरें हैं- कहीं शादी-वादी ठीक हुई- इतनी कसर बाकी है, उसे भी पूरी कर लो।

सलीम ने चुटकी ली-मेरी शादी की फ़िक्र छोड़ो, पहले यह बताओ कि सकीना से तुम्हारी शादी कब हो रही है- वह बेचारी तुम्हारे इंतज़ार में बैठी हुई है।

अमर का चेहरा फीका पड़ गया। यह ऐसा प्रश्न था, जिसका उत्तर देना उसके लिए संसार में सबसे मुश्किल काम था। मन की जिस दशा में वह सकीना की ओर लपका था, वह दशा अब न रही थी। तब सुखदा उसके जीवन में एक बाधा के रूप में खड़ी थी। दोनों की मनोवृत्तियों में कोई मेल न था। दोनों जीवन को भिन्न-भिन्न कोण से देखते थे। एक में भी यह सामर्थ्य न थी कि वह दूसरे को हम-खयाल बना लेता लेकिन अब वह हालत न थी। किसी दैवी विधन ने उनके सामाजिक बंधन को और कसकर उनकी आत्माओं को मिला दिया था। अमर को पता नहीं, सुखदा ने उसे क्षमा प्रदान की या नहीं लेकिन वह अब सुखदा का उपासक था। उसे आश्चर्य होता था कि विलासिनी सुखदा ऐसी तपस्विनी क्योंकर हो गई और यह आश्चर्य उसके अनुराग को दिन-दिन प्रबल करता जाता था। उसे अब उस असंतोष का कारण अपनी ही अयोग्यता में छिपा हुआ मालूम होता था, अगर वह अब सुखदा को कोई पत्र न लिख सका, तो इसके दो कारण थे। एक जो लज्जा और दूसरे अपनी पराजय की कल्पना। शासन का वह पुरुषोचित भाव मानो उसका परिहास कर रहा था। सुखदा स्वच्छंद रूप से अपने लिए एक नया मार्ग निकाल सकती है, उसकी उसे लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है, यह विचार उसके अनुराग की गर्दन को जैसे दबा देता था। वह अब अधिक-से-अधिक उसका अनुगामी हो सकता है। सुखदा उसे समरक्षेत्र में जाते समय केवल केसरिया तिलक लगाकर संतुष्ट नहीं है, वह उससे पहले समर में कूदी जा रही है, यह भाव उसके आत्मगौरव को चोट पहुंचाता था।

उसने सिर झुकाकर कहा-मुझे अब तजुर्बा हो रहा है कि मैं औरतों को खुश नहीं रख सकता। मुझमें वह लियाकत ही नहीं है। मैंने तय कर लिया है कि सकीना पर जुल्म न करूंगा।

'तो कम-से-कम अपना फैसला उसे लिख तो देते।'

अमर ने हसरत भरी आवाज़ में कहा-यह काम इतना आसान नहीं है सलीम, जितना तुम समझते हो। उसे याद करके मैं अब भी बेताब हो जाता हूं। उसके साथ मेरी ज़िंदगी जन्नत बन जाती। उसकी इस वफा पर मर जाने को जी चाहता है कि अभी तक...।

यह कहते-कहते अमर का कंठ-स्वर भारी हो गया।

सलीम ने एक क्षण के बाद कहा-मान लो मैं उसे अपने साथ शादी करने पर राजी कर लूं तो तुम्हें नागावार होगा-

अमर को आँखेंं-सी मिल गईं-नहीं भाईजान, बिलकुल नहीं। अगर तुम उसे राजी कर सको, तो मैं समझूंगा, तुमसे ज्यादा खुशनसीब आदमी दुनिया में नहीं है लेकिन तुम मजाक कर रहे हो। तुम किसी नवाबजादी से शादी का खयाल कर रहे होगे।

दोनों खाना खा चुके और हाथ धोकर दूसरे कमरे में लेटे।

सलीम ने हुक्के का कश लगाकर कहा-क्या तुम समझते हो, मैं मजाक कर रहा हूं- उस वक्त ज़रूर मजाक किया था लेकिन इतने दिनों में मैंने उसे खूब परखा। उस वक्त तुम उससे न मिल जाते, तो इसमें जरा भी शक नहीं है कि वह इस वक्त कहीं और होती। तुम्हें पाकर उसे फिर किसी की ख्वाहिश नहीं रही। तुमने उसे कीचड़ से निकालकर मंदिर की देवी बना दिया और देवी की जगह बैठकर वह सचमुच देवी हो गई। अगर तुम उससे शादी कर सकते हो तो शौक़ से कर लो। मैं तो मस्त हूं ही, दिलचस्पी का दूसरा सामान तलाश कर लूंगा, लेकिन तुम न करना चाहो तो मेरे रास्ते से हट जाओ फिर अब तो तुम्हारी बीबी तुम्हारे लिए तुम्हारे पंथ में आ गई। अब तुम्हारे उससे मुंह फेरने का कोई सबब नहीं है।

अमर ने हुक़्क़ा अपनी तरफ खींचकर कहा-मैं बड़े शौक़ से तुम्हारे रास्ते से हट जाता हूं लेकिन एक बात बतला दो-तुम सकीना को भी दिलचस्पी की चीज़ समझ रहे हो, या उसे दिल से प्यार करते हो-

सलीम उठ बैठे-देखो अमर मैंने तुमसे कभी परदा नहीं रखा इसलिए आज भी परदा न रखूंगा। सकीना प्यार करने की चीज़ नहीं, पूजने की चीज़ है। कम-से-कम मुझे वह ऐसी ही मालूम होती है। मैं कसम तो नहीं खाता कि उससे शादी हो जाने पर मैं कंठी-माला पहन लूंगा लेकिन इतना जानता हूं कि उसे पाकर मैं ज़िंदगी में कुछ कर सकूंगा। अब तक मेरी ज़िंदगी सैलानीपन में गुजरी है। वह मेरी बहती हुई नाव का लंगर होगी। इस लंगर के बगैर नहीं जानता मेरी नाव किस भंवर में पड़ जाएगी। मेरे लिए ऐसी औरत की ज़रूरत है, जो मुझ पर हुकूमत करे, मेरी लगाम खींचती रहे।

अमर को अपना जीवन इसलिए भार था कि वह अपनी स्त्री पर शासन न कर सकता था। सलीम ऐसी स्त्री चाहता था जो उस पर शासन करे, और मजा यह था कि दोनों एक सुंदरी में मनोनीत लक्षण देख रहे थे।

अमर ने कौतूहल से कहा-मैं तो समझता हूं सकीना में वह बात नहीं है, जो तुम चाहते हो।

सलीम जैसे गहराई में डूबकर बोला-तुम्हारे लिए नहीं है मगर मेरे लिए है। वह तुम्हारी पूजा करती है, मैं उसकी पूजा करता हूं।

इसके बाद कोई दो-ढाई बजे रात तक दोनों में इधर-उधर की बातें होती रहीं। सलीम ने उस नए आंदोलन की भी चर्चा की जो उसके सामने शुरू हो चुका था और यह भी कहा कि उसके सफल होने की आशा नहीं है। संभव है, मुआमला तूल खींचे।

अमर ने विस्मय के साथ कहा-तब तो यों कहो, सुखदा ने वहां नई जान डाल दी।

'तुम्हारी सास ने अपनी सारी जायदाद सेवाश्रम के नाम वक्ग कर दी।'

'अच्छा ।'

'और तुम्हारे पिदर बुजुर्गवार भी अब कौमी कामों में शरीक होने लगे हैं।'

'तब तो वहां पूरा इंकलाब हो गया ।'

सलीम तो सो गया, लेकिन अमर दिन-भर का थका होने पर भी नींद को न बुला सका। वह जिन बातों की कल्पना भी न कर सकता था वह सुखदा के हाथों पूरी हो गईं मगर कुछ भी हो, है वही अमीरी, जरा बदली हुई सूरत में। नाम की लालसा है और कुछ नहीं मगर फिर उसने अपने को धिक्कारा। तुम किसी के अंत:करण की जात क्या जानते हो- आज हजारों आदमी राष्ट' सेवा में लगे हुए हैं। कौन कह सकता है, कौन स्वार्थी है, कौन सच्चा सेवक-

न जाने कब उसे भी नींद आ गई।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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