आयकर

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आयकर भारतवर्ष में आयकर का इतिहास बहुत प्राचीन है। भारत में प्रत्यक्ष तथा परोक्ष आयकर की विशद व्यवस्था सबसे पहले कौटिल्य के अर्थशास्त्र[1] में उपलब्ध है। सिक्के के रूप में जो कर राजकोष में दिया जाता था, उसके रूपिक, व्याजो, परीक्षिका, परिघ आदि अनेक नाम और प्रकार थे। पराधीन राज्यों अथवा आश्रित राजाओं से जो चौथ ली जाती थी, केवल उसी को कर की संज्ञा चाणक्य ने दी है। इसके अतिरिक्त भी अनके प्रत्यक्ष तथा परोक्ष आयकर तत्कालीन (उत्तरी) भारत में प्रचलित थे।

भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन ने सर्वप्रथम प्रत्यक्ष आयकर गदर (सन्‌ 1857ई.) से उत्पन्न शासन के आर्थिक संकट के कारण 31 जुलाई, सन्‌ 1860 ई. को पाँच वर्ष के लिए लगाया। यह इंग्लैंड के सन्‌ 1842 ई. के आयकर विधान के अनुरूप था। इस कर में 600 रूपए से अधिक लगानवाली खेती की आय भी सम्मिलित कर ली गई थी। सन्‌ 1862 ई. में लाइसेंस टैक्स के रूप में फिर व्यापारों और व्यवसायों की वार्षिक आय पर कर लगाया गया। सन्‌ 1867 ई. में सर्टिफिकेट टैक्स लगाया गया, जो लाइसेंस टैक्स से गुणात्मक रूप में भिन्न था। दोनों ही प्रकार के करों की देय राशियों की सीमा निर्धारित कर दी गई किंतु इस बार कृषिआय इन दोनों ही प्रकार के आयकरों से मुक्त रही।

सन्‌ 1869 ई. में सर्टिफिकेट टैक्स को सामान्य आयकर में परिवर्तित कर दिया गया। जिसमें कृषि आयकर फिर सम्मिलित कर लिया गया। सन्‌ 1873 ई. में शासन की वित्तीय स्थिति सुधरने पर आयकर उठा लिया गया।

किंतु सन्‌ 1877 में दुर्भिक्ष (सन्‌ 1876-1878 ई.) के कारण प्रत्यक्ष आयकर पुन: लगाया गया। यह कर व्यापारिक वर्ग पर लाइसेंस टैक्स और कृषक वर्ग पर लगान के रूप में लगा। इस आयकर से दुर्भिक्ष निवारण-कोष संचित किया गया। किंतु यह संपूर्ण भारत में समान रूप से लागू नहीं था।

सन्‌ 1886 ई. में जो आयकर विधेयक बना वह भारत के आयकर के इतिहास में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसका मूल ताना बाना प्राय: आज तक चला आता है। इसमें सबसे पहले कृषि आय को परिभाषित किया गया, जो परिभाषा बहुत कुछ अभी तक मान्य है। यह ऐतिहासिक विधेयक 32 वर्ष, अर्थात्‌ सन्‌ 1918 ई. तक लागू रहा। इसमें आय आँकने के लिए ब्योरेवार नियम नहीं बनाए गए थे। यह कार्य गवर्नर जनरल-इन-कौंसिल पर छोड़ दिया गया था; किंतु सन्‌ 1916 ई. में इसमें संशोधन करके आयकर कीे क्रमवर्ती दरें निर्धारित की गई थीं। इसमें व्यक्तिगत करदाताओं की आय आँकने और करनिर्धारण में अनके विषमताएँ उत्पन्न हो गई। अतएव सन्‌ 1918 ई. में इस करव्यवस्था को आमूल संशोधित किया गया। फलस्वरूप करनिर्धारण के लिए कर दाताओं के विभिन्न साधनों से प्राप्त आय और लाभ का समंजन किया गया।

सन्‌ 1921 ई. में अखिल भारतीय आयकर समिति ने पूर्वोक्त विधेयक का परीक्षण कर जो सुझाव दिए, उनके अनुसार सन्‌ 1922 ई. में वर्तमान आयकर विधेयक बना। तब से सन्‌ 1939 ई. तक इस विधेयक में बीस बार संशोधन हुए और सन्‌ 1939 ई. के संशोधन विधेयक ने तो इसमें महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिए।

सन्‌ 1922 ई. के विधेयक में आय अतिकर को भी मिला लिया गया, जबकि इससे पूर्व यह अतिरिक्त शुल्क सन्‌ 1917 ई. से आय अतिकर विधेयक (जिसका संशोधन सन्‌ 1920 ई. में हुआ) के अंतर्गत अलग से लगाया जाता था। दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि सन्‌ 1922 ई. के विधेयक में आयकर की क्रमवर्धी दरों को निर्धारित करने की प्रथा बंद कर दी गई। करनिर्धारण का कार्य एकांत रूप से वार्षिक वित्तीय विधेयकों के लिए छोड़ दिया गया। जो प्रथा अब तक चली आती है। सम्मिलित हिंदू परिवार के किसी भी सदस्य की व्यक्तिगत धनप्राप्ति को भी आयकर से मुक्त कर दिया गया। आय के अनेक साधनों में से यदि किन्हीं में घाटा हो और किन्हीं में लाभ, तो लाभ और घाटे को मिलाकर यदि कोई लाभ बच रहे, तो अब उसी पर आयकर लगने लगा। यदि कोई करनिर्धारित व्यापारी किसी कारण न रहे, तो उसके प्रति अंकित आयकर को अदा करने का दायित्व उसके उत्तराधिकारी पर रख दिया गया। किंतु यदि निर्धारित वर्ष में व्यापार किसी समय बंद हो जाए, तो कर में आनुपातिक छूट दी जाती थी। सन्‌ 1935 ई. में एक आयकर विशेषज्ञ समिति की नियुक्ति हुई, जिसने दिसंबर, सन्‌ 1936 में अपने सुझाव प्रस्तुत किए। तदनुसार दिसंबर, सन्‌ 1939 ई. का आयकर विधेयक बना, जिसके अंतर्गत ब्रिटिश भारत में निवासित व्यक्तियों की सब प्रकार की विदेशी आय पर भी कर लगा दिया गया। इसके अतिरिक्त आयकर से बचने का जाल करनेवालों की अनेक चतुर युक्तियों की काट भी इस विधेयक में रखी गई। साथ ही निवल (नेट) हानि को अगले छह वर्षो तक की आय में समंजित करने की छूट भी व्यापारियों की दी गई। सन्‌ 1945 ई. में आर्जित आय पर विशेष छूट दी गई और सन्‌ 1947 ई. में पूँजीगत लाभकर भी इस विधेयक में सम्मिलित कर लागू किया गया। किंतु यह कर सन्‌ 1949 ई. में उठा लिया गया।

द्वितीय महायुद्ध के कारण व्यापारियों द्वारा अनायास उपार्जित विपुल लाभराशियों पर अतिलाभकर लगाया गया, जो 1 दिसंबर, सन्‌ 1939 ई. से 31 मार्च, सन्‌ 1946 ई. तक लागू रहा। यह कर 36,000 रूपए से अधिक लाभ पर लगाया गया था। तत्पश्चात्‌ 1 अप्रैल, सन्‌ 1946 ई. से 31 मई, सन्‌ 1948 ई. तक व्यापार-लाभकर-विधेयक (जो सन्‌ 1947 ई. में बना) लगा रहा, जिसमें करनिर्धारण की विधि और दर अतिलाभकर विधेयक की अपेक्षा क्रमश: कम जटिल और न्यून थी।

भारत के स्वतंत्र होने तथा 26 जनवरी, सन्‌ 1950 ई. को सार्वभौम गणतंत्र घोषित होने पर और साथ ही 600 छोटे बड़े देशी राज्यों के इस सत्ता में समाविष्ट होने के उपरांत 1 अप्रैल, सन्‌ 1950 ई. से केंद्रीय वित्त विधेयक (सन्‌ 1950 ई.) द्वारा आयकर विधेयक जम्मू और कश्मीर को छोड़कर समस्त देश पर लागू हो गया।

आयकर वसूल करने की शासकीय व्यवस्था का इतिहास भी संक्षेप में जान लेना आवश्यक है। जब तक आयकर अप्रत्याशित वित्तीय विपत्तिकाल में यदा कदा लगाया जाता रहा, तब तक यह शासकीय व्यवस्था का एक अस्थायी अंग रहा। अतएव कोई स्थायी विभाग इसकी वसूली के प्रबंध के लिए नहीं खोला गया और प्रांतीय राजस्व विभागों को ही यह कार्य सौंपा जाता रहा। इस कार्य के लिए ये विभाग अस्थायी कर्मचारी नियुक्त कर लेते थे, जिनके भ्रष्टाचार तथा अयोग्यता के कारण आयकर निर्धारण तथा संग्रह करने के काम भली भाँति संपन्न नहीं होते थे। सन्‌ 1886 ई. के पश्चात्‌ भी केवल कलकत्ता, बबंई और मद्रास में ही स्थायी आयकर अधिकारी थे। अखिल भारतीय आयकर समिति (सन्‌ 1921) के सुझाव पर सन्‌ 1924 ई. में भारत सरकार ने एक विधेयक द्वारा केंद्रीय राजस्व बोर्ड की स्थापना की, जिसके अंतर्गत आय-कर-संग्रह की अखिल भारतीय स्थायी व्यवस्था की गई। सन्‌ 1922 ई. के आयकर विधेयक के अतंर्गत प्रत्येक प्रांत में एक आयकर आयुक्त नियुक्त किया गया था, जिसके नियंत्रण में आयकर उपायुक्त तथा आयकर अधिकारी होते थे। सन्‌ 1939 से पूर्व आयकर उपायुक्त तत्संबंधी शासकीय व्यवस्था के अतिरिक्त कर निर्धारण की अपील भी सुनता था, किंतु सन्‌ 1939 ई. के बाद इन दो कार्यों के लिए अलग अलग उपायुक्त नियक्त किए गए। सन्‌ 1941 ई. में अपील सुननेवाले आयकर उपायुक्त के निर्णय से असंतुष्ट करनिर्धारण की दूसरी अपील करने का अधिकार दिया गया और ऐसी अपीलें सुनने के लिए दो सदस्यों का एक विशेष आयकर न्यायमंडल (इनकम टैक्स अपेलेट ट्राइब्यूनल) स्थापित किया गया, जिसे विधि (कानून) संबंधी विवादास्पद विषयों में प्रादेशिक उच्च न्यायालय विशेष से निर्णायक परामर्श्‌ लेने का भी अधिकार है।

इसके बाद भी महत्वपूर्ण संशोधन होते रहे जिनके परिणाम प्रभावशाली सिद्ध हुए लेकिन इस प्रकार के जितने संशोधन किए गए वे अधिकतर मुख्य पृष्ठभूमि एवं आधार को दृष्टि में रखकर नहीं किए गए; परिणामस्वरूप या तो उनमें जटिलता ज्यादा रही या भाषा कीे त्रुटि रही। इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखकर 1956 ई. में भारत सरकार ने आयकर अधिनियम को विधिआयोग के सुपुर्द कर दिया ताकि वह आयकर अधिनियम के अतंर्गत इस प्रकार संशोधन कर दे कि वह जनता को ग्राह्म होने के साथ साथ स्पष्ट और सरल हो तथा मूल पद्धति का भी कहीं हनन न हो।

उक्त आयोग ने अपनी रिर्पोर्ट सितंबर, 1958 में प्रस्तुत की। परंतु इसी बीच सरकार ने करदाताओं की कठिनाइयों एवं करापवंचन को न्यूनतम करने के लिए प्रत्यक्ष कर प्रशासन जाँच समिति (डाइरेक्ट टैक्सेज़ ऐडमिनिस्ट्रेशन इंक्वायरी कमेटी) नियुक्त की। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सन्‌ 1959 में दी। विधि आयोग और प्रत्यक्ष कर प्रशासन जाँच समिति की रिर्पोर्टो पर विचार करने के लिए केंद्रीय राजस्व परिषद् (सेंट्रल बोर्ड ऑव रेवेन्यू) ने अपने उच्च अधिकारियों की एक कमेटी नियुक्त की जिसने विधि मंत्रालय के परामर्श के परिप्रेक्ष्य में इन रिर्पोर्टो पर विचार किया और अंत में 24 अप्रैल, 1961 को आयकर विधेयक, 1961, लोकसभा में प्रस्तुत किया गया। 1मई, 1961 ई. को यह बिल चुनाव समिति के सुपुर्द कर दिया गया, जिसकी रिपोर्ट लोकसभा में 10 अगस्त, 1961ई. को प्रस्तुत की गई और आयकर अधिनियम, 1961 सितंबर, 1961 ई. में स्वीकृत हो गया।

आयकर अधिनियम (1961) 1अप्रैल, 1962 से संपूर्ण भारत मैं लागू कर दिया गया। तत्पश्चात्‌ आयकर अधिनियम में वित्त अधिनियम 1962, 1963,1964, 1965 (नं.2), 1966, 1967, (नं.2), 1968, 1969, 1970, 1971(न.2) तथा 1972 द्वारा महत्वपूर्ण संशोधन किए गए। इसके अतिक्ति कराधान नियमों से संबंधित (संशोधन) अधिनियम, 1962, आयकर (संशोधन) अधिनियम, 1963, प्रत्यक्ष कर (संशोधन) अधिनियम, 1964, आयकर (संशोधन), अधिनियम, 1965, कराधान नियमों से संबंधित (संशोधन) कराधान नियमों से संबंधित (संशोधन), 1966, कराधान नियमों से संबंधित (संशोधन) अधिनियम, 1967,1970 तथा 1971 द्वारा भी आयकर अधिनियम में संशोधन किए गए हैं।[2]

वास्तव में 1, अप्रैल, 1962 से लागू आयकर अधिनियम, 1961, केवल 10 वर्षो में इतनी बार संशोधित हो चुका है कि 1922 का अधिनियम अब एक सतत परिवर्तनशील अधिनियम बन गया है।

सन्‌ 1973-74 के बजट में भी वित्तमंत्री ने आयकर अधिनियम में वांचू समिति की सिफारिशों के आधार पर कुछ महत्वपूर्ण संशोधन करने का सुझाव दिया है, जिनके अनुसार कृषिआय को भी करदाता की कुल आय में जोड़ा जाना (जो अब तक पूर्णत: करमुक्त रही है), आकस्मिक आय से संबंधित परिवर्तन तथा बचत को प्रोत्साहन देने के लिए प्राविडेंट फंड तथा जीवन बीमा प्रीमियम के संबंध में और छूट की व्यवस्था प्रमुख है। आयकर की वर्तमान दर निम्न वर्गो की निम्न प्रकार से है:

करनिर्धारण वर्ष 1973-74 में लागू आयकर की दरें कंपनियों से भिन्न करदाताओं के लिए

(1) प्रत्येक व्यक्ति की, जो अविभाजित हिंदू परिवार, अपंजीकृत फर्म, अन्य संस्था अथवा प्रत्येक कृत्रिम न्यायिक व्यक्ति के अंतर्गत न आते हों, आय पर निम्नलिखित दर से आयकर देय है:

सकल आय

1. 5,000 रु. तक करमुक्त

2. 5,000 रु. से अधिक, पर 5,000रु. से अधिक का 10

10,000 रु. से अधिक न हो प्रतिशत

3. 10,000 रु. से अधिक, पर 500 रु.+10,000 रु. से

15,000 रु. से अधिक न हो अधिक का 17 प्रतिशत

4. 15,000 रु. से अधिक, पर 1350 रु.+15,000 रु. से

20,000 रु. से अधिक न हो अधिक का 23 प्रतिशत

5. 20,000 रु. से अधिक, पर 2,500 रु.+20,000 रु. से

25,000 रु. से अधिक न हो अधिक का 30 प्रतिशत

6. 25,000 रु. से अधिक, पर 4,000 रु.+25,000 रु. से

30,000 रु. से अधिक न हो अधिक का 40 प्रतिशत

7. 30,000 से अधिक, पर 6,000 रु.+30,000 रु. से

40,000 रु. से अधिक न हो अधिक का 50 प्रतिशत

8. 40,000 रु. से अधिक, पर 11,000 रु.+ओर 40,000

60,000 रु. से अधिक न हो रु. से अधिक का 60 प्रतिशत

9. 60,000 रु. से अधिक, पर 23,000 रु.+60,000 रु.

80,000 रु. से अधिक न हो से अधिक का 70 प्रतिशत

10. 80,000 रु. से अधिक, पर 37,000 रु.+80,000 रु.

1,00,000 रु. से अधिक न हो से अधिक का 75 प्रतिशत

11. 1,00,000 रु. से अधिक, पर 52,000रु.+1,00,000 रु.

2,00,000 रु. से अधिक न हो से अधिक का 85 प्रतिशत

12. 2,00,000 रु. से अधिक 1,32,000रु.+2,00,000 रु. से अधिक का 85 प्रतिशत लेकिन अविभक्त हिंदू परिवार की 7,000 रु तक की आय करमुक्त है। 7,000 रू से अधिक किंतु 7,660 रु तक की आय परआयकर 40 प्रतिशत से अधिक देय नहीं है।

उपर्युक्त आयकर की धनराशि में निम्न दर से अधिभार भी अलग से देय होगा:

(अ) 15,000 रु. की आय तक 10 प्रतिशत

(ब) अन्य दशा में 15 प्रतिशत

(2) सहकारी समितियाँ

(1) 10,000 रु. सकल आय पर सकल आय का 15 प्रतिशत

(2) 10,000 रु. से अधिक परंतु 1,500 रु.+10,000 से

20,000 रु. से अधिक न हो अधिक का 25 प्रतिशत

(3) 20,000 रु. से अधिक सकल 4,000 रु.+20,000 रु. से

आय पर अधिक का 40 प्रतिशत

आयकर पर लागू अधिभार: प्रत्येक सहकारी समिति के आयकर की धनराशि पर 15 प्रतिशत अधिभार देय है।

(3) पंजीकृत फर्म आयकर

सकल आय

(1) 10,000 रु. से अधिक न हो कुछ नहीं

(2) 10,000 रु. से अधिक, पर 10,000 रु. से अधिक का 4

25,000 रु. से अधिक न हो प्रतिशत

(3) 25,000 रु. से अधिक, पर 600 रु.+25,000 रु. से

50,000 रु. से अधिक न हो अधिक का 6 प्रतिशत

(4) 50,000 रु. से अधिक, पर 2100 रु.+50,000 रु. से

1,00,000 रु. से अधिक न हो अधिक का 12 प्रतिशत

(5) 1,00,000 रु. से अधिक 8,100 रु.+1,00,000 रु. से अधिक का 20 प्रतिशत

आयकर पर लागू अधिभार

(1) आयकर पर अधिभार अधिभार की दर

(क) पंजीकृत फर्म जिसकी आयकर की रकम का 10प्रतिशत

कुल आय का 51 प्रतिशत अथवा

उससे अधिक भाग फर्म दारा

किए जा रहे व्यवसाय से अर्जित हो

(ख) पंजीकृत फर्म की अन्य आयकर की रकम का 20 प्रतिशत तरह की आय हो

(2) विशेष अधिभार

उपर्युक्त आयकर की धनराशि पर तथा आयकर पर लगे अधिभार की धनराशि पर 15 प्रतिशत की दर से विशेष अधिभार लगेगा। अन्य संस्था आयकर अधिभार

(1) स्थानीय स्वायत्त संस्थाएँ, 50 प्रतिशत 15 प्रतिशत

संपूर्ण आय पर

(2) जीवन बीमा--बीमा के लाभ पर 52.5 प्रतिशत

(3) कंपनी:

डोमोस्टिक 50,000 रु. तक 45 प्रतिशत

50,000 रु. से ऊपर 55 प्रतिशत

औद्योगिक

10,00,000 रु. तक 55 प्रतिशत

अधिक पर 60 प्रतिशत

अन्य कंपनी 65 प्रतिशत[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ल.ई.पू.तीसरी चौथी शताब्दी
  2. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 395 |
  3. श्री कांतिचंद्र सौनरेक्सा; श्री दयाशंकर मिश्र

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