आत्मा -न्याय दर्शन

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  • न्याय दर्शन में पहला प्रमेय है आत्मा,, जिसके इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दु:ख, और ज्ञान अनुमापक हेतु हैं।[1] इच्छा आदि गुणों से (हेतुओं से) अनुमान के आधार पर इन गुणों का आश्रय सिद्ध होता है, पश्चात् इच्छा आदि गुणों का अधिकरण देह आदि नहीं हो सकते हैं- इस अनुमान के द्वारा देह आदि से भिन्न उन गुणों के आश्रयरूप में आत्मा की सिद्धि होती है।
  • मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ- इस प्रकार से सुख आदि के मानस-प्रत्यक्ष के समय में प्रत्येक जीव स्व का भी (आत्मा का भी) मानस प्रत्यक्ष कर लेता है। किन्तु मिथ्या अभिमान में लिप्त जीव उस समय में देह आदि से भिन्नरूप में आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं कर पाता हे। इसी तात्पर्य से महर्षि कणाद जीवात्मा को अप्रत्यक्ष कहकर उसके विषय में अनुमान-प्रमाण दिखाते हैं।
  • इच्छा आदि आत्मा के असाधारण (विशेष) गुण हैं। अन्यथा इच्छा आदि गुण आत्मा के लक्षण नहीं हो सकते। न्यायमत में आत्मा की अनेकता, विभुता तथा नित्यता मानी गयी है। धर्माधर्म रूप अदृश्य का आश्रय आत्मा यहाँ ज्ञान आदि गुणों का अधिकरण है। यही कारण है कि कोई सुखी और कोई दु:खी इस संसार में देखा जाता हैं।
  • आत्मा ज्ञान स्वरूप नहीं माना गया है। पश्चात् ईश्वर भी नित्यज्ञान, नित्यसुख आदि के आधाररूप में यहाँ स्वीकृत हुए हैं, जो इस संसार का कर्ता, वेद का निर्माता तथा अदृष्ट का अधिष्ठाता कहा जाता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न्यायसूत्र 1/1/9।

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