आंग्ल-सिक्ख युद्ध प्रथम

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प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध 1845-1846 ई. में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के छ: वर्षों के बाद प्रारम्भ हुआ था। उसका एक कारण 1843 ई. में अंग्रेज़ों का सिन्ध पर अधिकार करना था, जिससे उनकी आक्रमक नीति स्पष्ट हो गई थी। दूसरा कारण सिक्ख सेना का नियंत्रण के बाहर हो जाना था, जिसने अल्पवयस्क सिक्ख राजा दलीप सिंह की माता तथा संरक्षिका रानी ज़िन्दा कौर और उसके परामर्शदाताओं को इस बात के लिए विवश किया कि, वे दिसम्बर, 1845 ई. में सतलुज नदी पार करके अंग्रेज़ों के राज्य पर आक्रमण करने की आज्ञा दें।

सिक्खों की हार

1838 ई. में 'डब्ल्यू.एफ़. ऑसबर्न' ने लिखा था कि, "हमें रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् पंजाब को तुरन्त ही जीत लेना चाहिए और सिन्ध को अपनी सीमा बना लेना चाहिए। कम्पनी तो बड़े-बड़े ऊँटों को खा चुकी है, इस मच्छर की तो बात ही क्या है"। 1844 ई. में लॉर्ड एलनबरो की जगह लॉर्ड हार्डिंग गवर्नर-जनरल बनकर भारत आया। हार्डिंग ने मेजर 'ब्राडफ़ुट' को पेशावर से पंजाब तक नियंत्रण का स्पष्ट निर्देश दिया। 1845-1846 ई. में हुए सिक्ख युद्ध का परिणाम अंग्रेज़ों के पक्ष में रहा। इस युद्ध के अंतर्गत मुदकी, फ़िरोजशाह, बद्धोवाल तथा आलीवाल की लड़ाइयाँ लड़ी गईं। ये चारों लड़ाइयाँ निर्णायंक नहीं थी। किन्तु पाँचवीं लड़ाई-सबराओ की लड़ाई (10 फ़रवरी, 1846 ई.) निर्णायक सिद्ध हुई। लालसिंह और तेज़ सिंह के विश्वासघात के कारण ही सिक्खों की पूर्णतया हार हुई, जिन्होंने सिक्खों की कमज़ोरियों का भेद अंग्रेज़ों को दे दिया था।

अंग्रेज़ों से सन्धि

सिक्खों ने 9 मार्च, 1846 ई. को 'लाहौर की सन्धि' पर हस्ताक्षर किए। इस सन्धि की शर्तों के अनुसार अंग्रेज़ों को महाराजा ने सतलुज नदी के पार के प्रदेश तथा सतलुज नदी एवं व्यास नदी के मध्य स्थित सभी दुर्गों को देना भी स्वीकार कर लिया। इसके अलावा महाराजा ने डेढ़ करोड़ रुपये युद्ध हर्जाना के रूप में देना तथा अपनी सेना को 12,000 घुड़सवार एवं 20,000 पैदल सैनिकों तक सीमित रखना स्वीकार कर लिया। अंग्रेज़ों ने अल्पायु दलीप सिंह को महाराजा, रानी ज़िन्दा कौर (बीबी साहिबा) को संरक्षिका एवं लाल सिंह, जो ज़िन्दा रानी का प्रेमी था, को वज़ीर के रूप में मान्यता दी तथा सर हेनरी लॉरेन्स को लाहौर का रेजीडेन्ट नियुक्त किया। इसके अलावा 11 मार्च को सम्पन्न हुई एक पूरक सन्धि के द्वारा अंग्रेज़ी सेना को दिसम्बर, 1846 ई. तक लाहौर में रख दिया गया।

हार्डिंग का तर्क

'लाहौर की सन्धि' से लार्ड हार्डिंग ने लाहौर के आर्थिक साधनों को नष्ट कर दिया। इस सन्धि के अनुसार कम्पनी की सेना को दिसम्बर, 1846 तक पंजाब से वापस हो जाना था, परन्तु हार्डिंग ने यह तर्क दिया कि महाराजा के वयस्क होने तक सेना का वहाँ रहना अनिवार्य है। उसने सामन्तों को प्रलोभन तथा शक्ति के द्वारा इस बात को मनवाने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप 22 दिसम्बर, 1846 ई. को 'भैरोवाल की सन्धि' हुई, जिसके अनुसार दिलीप सिंह के संरक्षण हेतु अंग्रेज़ी सेना का पंजाब में प्रवास मान लिया गया। 20 अगस्त, 1847 को महारानी ज़िन्दा कौर को दिलीप सिंह से अलग कर 48,000 रुपये की वार्षिक पेन्शन पर शेखपुरा भेज दिया गया।

  • जनवरी, 1848 ई. में लॉर्ड डलहौज़ी गवर्नर-जनरल बनकर भारत आया। वह साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। अपनी नीति के अनुसार वह पंजाब को अंग्रेज़ी प्रान्त बनाना चाहता था।


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