अनुवांशिकता

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आनुवंशिकता (अंग्रेजी में हेरेडिटी) माता, पिता तथा अन्य पूर्वजों से संतति में रूप, रंग, स्वभाव तथा अन्य लक्षणों के आने को कहते हैं। वनस्पतियों तथा प्राणियों दोनों में आनुवंशिकता महत्वपूर्ण है। प्रत्येक व्यक्ति के कुछ लक्षण आनुवंशिक होते हैं, कुछ वातारण तथा परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होते हैं। परिस्थितिजनित लक्षणों का एक उदाहरण है अस्थिदौर्बल्य (रिकेट्स)। माता-पिता में यह रोग गरीबी, निकृष्ट आहार, अस्वास्थ्यकर रहन सहन से हो सकता है और ये ही परिस्थितियाँ बच्चे में भी वही रोग उत्पन्न कर सकती हैं। कभी-कभी यह निश्चित करना कठिन हो जाता है कि कोई विशेष लक्षण आनुवंशिक है अथवा परिस्थितिजनित।

कोशिकाओं का पता लगने के बाद से आनुवंशिकता का कारण कुछ समझ में आने लगा। सजीव प्राणियों के जीवन की इकाई कोशिका (सेल) होती है। इसी इकाई के संरचनात्मक तथा क्रियात्मक समुच्चय (सेग्रिगेट)को हम जीव (आरगैनिज्म) कहते हैं। जीवों की कोशिकाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इनकी रचना लगभग एक जैसे पदार्थों तथा एक ही ढंग या परिपाटी पर हुई है। प्रत्येक कोशिका में प्राय: एक (कभी-कभी अनेक) केंद्रक (न्यूक्लिअस) होता है जो कोशिकाद्रव्य (साइटोप्लाज्म) में अंतर्भूत रहता है। केंद्रक के भीतर धागा सदृश अनेक कोशिकांग (आर्गेनिली) पाए जाते हैं, जिन्हें गुणसूत्र (क्रोमोसोम) कहते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक स्पीशीज़ के जीव में नियम होती है और ए सर्वदा युग्मों में रहते हैं; जैसे मनुष्यों में 23 जोड़े तथा कदली मक्खी, ड्रोसोफिला में चार जोड़े गुणसूत्र पाए जाते हैं। गुणसूत्र दो प्रकार के होते हैं: अलिंगसूत्र (आटासोम्स) एवं लिंगसूत्र (सेक्स क्रोमोसोम)। अंलिगसूत्रों के शरीर के अंगों तथा अवयवों और रंगरूप तथा आकार आकृति का निर्धारण होता है, परंतु लिंग सूत्रों से प्राणियों के लिंग और पैतृिंक गुण प्रभावित होते हैं। लिंगसूत्र दो प्रकार के हाते हैं: पुंलैंगिक गुणसूत्र तथा स्त्रीलिंगगुणसूत्र। इन गुणसूत्रों को अंग्रेजी के ओ, डब्ल्यू, एक्स, वाई तथा ज़ेड अक्षरों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है।

समसूत्रण (माइटोसिस) तथा अर्धसूत्रण (मियासिस) की प्रक्रियाओं द्वारा कोशिकाओं का विभाजन होकर जीवों के शरीरगत तथा आनुवंशिक गुणों का आदान प्रदान पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है। हैकिंग ने सर्वप्रथम 1891 में एक कीट में गुणसूत्रों की खोज की थी। सन्‌ 1848 में होफमीस्टर ने ट्रेडस्कैशिया (एक पौधा) के पराग की मातृकोशिकाओं (पोलेन मदर सेल्स) में गुणसूत्रों को स्पष्ट रूप में देखा था। वाल्डेयर ने इन्हें 'गुणसूत्र' नाम दिया। रासायनिक विश्लेषण द्वारा ज्ञात होता है कि इनकी प्रकृति प्रोटीन जैसी होती है। गुणसूत्रों में माला के दानों की भांति 'जीन' गुँंथे रहते हैं। कोशिकाविभाजन के समय जीन स्वत: प्रतिरूपित (डुप्लिकेट) हो जाते हैं।

जीन की अनेक विशेषताएँ बतलाई गई हैं, जैसे (1) एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में इनकी तद्रूपता (आइडेंटिटी) बनी रहती है, (2) कोशिकाविभाजन के समय स्वप्रतिरूपण (आटो डुप्लिकेशन), (3) गर्भित कोशिका से उत्पन्न नए जीवों की जन्मप्रक्रिया का नियंत्रण। इनके कायाँ के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान्‌ इन्हें पारगति (क्रासिंग ओवर) की इकाई मानते हैं तो कुछ उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) की। इसी प्रकार कुछ विद्वान्‌ इन्हें कायिक (फिजिओलाजिकल) क्रियाओं की इकाई मानते हैं तो कुछ स्वप्रजनन की।

मानव शिशु का जन्म माता पिता के आधे-आधे लिंगसूत्रों के संयुग्मन (यूनियन) का परिणाम होता है। प्रत्येक जनक के लिंगसूत्रों में 22--22 जोड़े लिंगसूत्र तथा एक-एक जोड़े लिंगसूत्र पाए जाते हैं। माता के लिंगसूत्रों का एक जोड़ा XX तथा पिता के लिंगसूत्रों के एक जोड़े में एक X तथा एक Y होता है। इनके संयुग्मन से नए शिशु का लिंग नीचे लिखे प्रकार से निर्धारित होता है: Heredity.gif
कोई भी अंडा भविष्य में नर रूप में विकसित होगा या मादा रूप में, यह संसेचन के संयोग पर निर्भर करता है। इस सिद्धांत को 'संभाविता का सिद्धांत' (ला ऑव प्राबेबिलिटी) कहा जाता है।

आनुवंशिकता के नियम (गालटन के नियम)-फ्रांसिस गालटन (1822-1911) ने, जो चार्ल्स डार्विन का चचेरा भाई था, दो नियम प्रतिपादित किए जो 'पूर्वज पित्रागति का नियम' (ला ऑव ऐनसेस्ट्रल इनहेरिटेंस) और 'संतान का पीछेे हटने का नियम' (ला ऑव फ़िलियल निग्रेशन) के नाम से विख्यात हैं।

पूवर्ज पित्रागति के नियम-के अनुसार प्रत्येक जीव में आधे अर्जित गुण तो जिनकों (एक ¼ पिता से और ¼ माता से) से, एक चौथाई दादा दादी से, एक का आठवां भाग परदादा परदादी से और इसी हिसाब से शेष अन्य पूर्वजों से आते हैं। इन सब गुणों का योग ही जीव या पूर्ण पित्रागति है। इसको निम्न प्रकार से निरूपित किया जा सकता है: Heredity-2.gif इस प्रकार प्रत्येक जीव अपने आधे गुण तो तात्कालिक जनकों से और शेष आधे अन्य पूर्वजों से प्राप्त करता है।

संतान के पीछे हटने अर्थात्‌ पूर्वजों की ओर जाने के नियम के अनुसार यदि जनक किसी एक विशेष गुण में उस जाति की सामान्य अवस्था से बहुत भिन्न होते हैं तो संतान उल्टी दशा की या सामान्य अवस्था की ओर चलती है अर्थात्‌ उसमें सामान्य अवस्था को प्राप्त करने की प्रकृति होती है। इसका कारण यह है कि बहुत पुराने पूर्वजों की आनुवंशिकता का प्रभाव निकट जनकों के प्रभाव को नष्ट करने का प्रयत्न करता है जो समस्त आनुवंशिकता का अर्धांश बनाते हैं। इससे विदित होता है कि क्यों संसार के महान्‌ व्यक्तियों, जैसे वैज्ञानिकों, धर्मज्ञों, कलाकारों, साहित्यकारों, कवियों, गायकों, खिलाड़ियों आदि के बच्चे साधारण बच्चों के समान होते हैं और अपने माता पिता की भाँति ख्याति प्राप्त नहीं कर पाते। प्रोफेसर कार्ल पीयर्सन ने इस संबंध में कहा है, यह सामान्य पूर्वजनीयता का भारी भार ही एक महान्‌ पिता के पुत्र को सामान्य जनसंख्या के मध्यमान की ओर खींचता है, यही एक दृढ़ सामान्यता का संतुलन है जो एक हीन पिता के पुत्र को उसके सभी दुर्गुणों से बचा देता है और वह महान्‌ व्यक्ति बन जाता है। अर्थात्‌ कोई यह नहीं कह सकता कि किस बच्चे का जीवन कैसा होगा क्योंकि एक महान्‌ व्यक्ति का बच्चा भी साधारण मनुष्य बन सकता है। उदाहरणार्थ महात्मागांधी तथा उनकी संतान; और एक सामान्य मनुष्य का बच्चा भी महान्‌ व्यक्ति बन सकता है, जैसे पं. मदनमोहन मालवीय, डॉ. राजेंद्रप्रसाद इत्यादि।

जोहानसन का पित्रागति का नियम (क्वेटलेट् नियम)-यदि बहुत बड़ी संख्या में सेम के बीजों की माप की परीक्षा की जाए तो एक बड़े मनोरंजक विशिष्ट नियम का पता लगेगा कि उनकी विषमताएँ एक औसतमान के दोनों ओर हैं। बहुत बड़ी संख्या औसत माप की होगी और मध्यमान के दोनों तरफ सबसे बड़ी और सबसे छोटी संख्या क्रमश: कम होती जाएगी। इसे 'क्वेटलेट, का नियम' कहते हैं। यह न केवल माप (साइज़) अंतर के लिए ही चरितार्थ होता है बल्कि सभी प्राणियों और वनस्पतियों की सभी संभावित विषमताओं के लिए भी चरितार्थ होता है।

जोहानसन ने सेम तथा मटर के कुछ लक्षणों की आनुवंशिकता पर प्रयोग किए और परिणामों को प्रकाशित किया किंतु उसके प्रयोगोसे आनुवंशिकता की अर्थात्‌ प्रकृति तथा संरचना की महत्वपूर्ण बातों का पता नहीं चलता। समस्या का रहस्य और समाधान ग्रिगरमेंडेल (1822-84) के प्रयोगों से हुआ। उन्होंने मटर (पाइसम सैटाइवम) की कुछ जातियों का परस्पर परपरागण (क्रास फ़र्टिलाइज़ेशन) कर नए-नए तथ्य संकलित किए। उन्होंने इनकी कई पीढ़ियों की परीक्षा की और पाया: (1) कुछ पौधों के बीच चिकने थे और कुछ झुर्रीदार, (2) कुछ के बीजपत्र (काटीलीडोन) पीले रंग के थे और कुछ के हरे रंग के, (3) कुछ बीजों के छिलके श्वेत थे तो कुछ के भूरे, (4) कुछ की फलियाँ सब जगह फूली थीं तो कुछ की फलियाँ दानों के बीच संकुचित थीं, (5) कुछ की कच्ची फलियाँ हरी थीं तो कुछ की पीली थीं, (6) कुछ के फूल पूरे तने पर सब जगह लगे हुए थे तो कुछ के सभी फूल शिखर पर इकट्ठा थे और (7) कुछ के तने लंबे थे तो कुछ के नाटे। उन्होंने एक लंबे पौधे तथा एक नाटे पौधे का पर-परागण कराया और देखा कि इनसे जो बीज उत्पन्न हुए वे सबके सब लंबे पौधे हुए। इन पौधों के स्वपरागण से जो बीज उत्पन्न हुए वे या तो लंबे हुए या नाटे; इनके बीच का (मझोला) कोई भी पौधा नहीं उत्पन्न हुआ। इन प्रयोगों से जो विशेष बात प्रकट हुई, वह यह थी कि नाटे पौधों की अपेक्षा लंबे पौधों की संख्या तीन गुनी अधिक थी। उनकी उपलब्धियों के आँकड़े नीचे दिए जा रहे हैं:

पै. (पैत्रिक) लंबा´नाटा

पीढ़ी---1---लंबा´नाटाHeredity-3.gif

अपने प्रयोगों के आधार पर मेंडेल ने दो नियम बनाए और उनकी व्याख्या करते हुए बतलाया कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी लंबे उत्पन्न होनेवाले पौधों के प्रत्येक परागकण (अथवा बीजाणु) में ऐसे जीन होते हैं जो पौधे को लंबा करते हैं। इसी प्रकार नाटे पौधों में ऐसे जीन होते हैं जो नाटे पौधे उत्पन्न करते हैं। मेंडेल ने लगातार छह वर्षों तक अनेक प्रयोग किए जिनके फल सन्‌ 1865 में प्रकाशित हुए। परंतु इस तथ्य की ओर वैज्ञानिकों ने ध्यान नहीं दिया। यह तथ्य सन्‌ 1900 में संसार के सामने आया जब डी. प्रीज़, कारेंस और वान शरमैक ने अपने प्रयोग किए। इस तथ्य ने आनुवंशिकता के अध्एताओं को बहुत प्रेरणा दी। बेटसन के शोधों से ज्ञात हुआ कि मेंडेल के नियम न केवल पौधों अपितु जंतुओं पर भी लागू होते हैं।

कैसिल, मार्गन और उनके सह कार्यकर्ताओं ने इससे प्रेरित होकर कदली मक्खी, ड्रोसोफिला मेलेबोगैस्टर, पर प्रयोग आरंभ किए। मेंडेल ने बतलाया था कि जब एक परोपगमन (क्रास) में दो विपरीत लक्षण एक साथ दिखलाई देते हैं तो उनमें से अगली पीढ़ी (संतति 1) में एक प्रकट या प्रभावी (डॉमिनेंअ) तथा दूसरा प्रसुप्त (रिसेसिव) होता है। अगली (दूसरी संतति) पीढ़ी में ए दोनों लक्षण पृथक्कृत (सेग्रिगेटेंड) हो जाते हैं, इनका अनुपात 3:1 होता है। अत: मेंडेल का प्रथम नियम इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है: किसी युग्म लक्षणों के कारण पृथककृत होते हैं (द फ़ैक्टर्स फ़ार ए पेयर ऑव कैरेक्टर्स आर सेग्रिगेटिटेड)। आजकल इन कारकों का युग्मविकल्पी (एलेलोमार्फ़ या एलेलीस) कहा जाता है।

कतिपय प्रयोगों द्वारा पता चला है: (1) यदि किसी डिंब का केंद्रक नष्ट हो (या कर दिया) जाए और उसे कोई शुक्राणु गर्भित कर दे तो जो संतान उत्पन्न होगी उसमें केवल पिता के लक्षणों की प्रधानता होगी; (2) यदि किसी परिपक्व डिंब को कृत्रिम अनिषेकजनन द्वारा बढ़ने दिया जाए तो जो संतान होगी, उसमें केवल माता के लक्षणों की प्रमुखता होगी; और (3) यदि किसी डिंब के कुछ कोशिकाद्रव्य को नष्ट कर देने पर भी डिंबकेंद्रक किसी शुक्राणु द्वारा निषेचित हो जाता है तो उत्पन्न संतान में माता पिता दोनों के लक्षण पाए जाएँगे। इससे पता चलता है कि गुणों का आनुवंशिक परिगमन कोशिकाद्रव्य (साइटोप्लाज्म) पर आधृत न होकर केंद्रक पर होता है। विभिन्न आनुवंशिकता के प्राणियों के युग्मकों के संयुग्मन द्वारा संकर प्राणी उत्पन्न होते हैं। द्वितीय पीढ़ी में लक्षणोत्पादक जीनों को पृथक्‌ करनेवाले कारकों की खोज ऐसे संकरों की जनन कोशिकाओं में की जानी चाहिए। मेंडेल के सामने भी यह समस्या उपस्थित हुई होगी किंतु वे इसकी वास्तविक प्रक्रिया की व्याख्या नहीं कर सके।

विनिमय द्वारा उत्पन्न सभी संतान, जिनमें प्रभावी लक्षण दिखलाई पड़ते हैं, समलक्षणी (फ़ेनोटाइप) होती हैं किंतु उन लक्षणों (या लक्षणविशेष) के लिए वे या तो समयुग्मजी (होमोज़ाइगस) हो सकते हैं, या विषम युग्मज (हेटेरोज़ाइगस) हो सकते हैं। उनके आनुवंशिक रूप (जीनोटाइप) का पता लगाने के लिए परीक्षण संकरण (टेस्टक्रास) या संकरपूर्वज संकरण (बैक क्रास) का प्रयोग किया जाता है। इस प्रक्रिया में प्रभावों संकर का शुद्ध प्रसुप्त संकर प्राणी से संसेचन कराया जाता है। प्रयोगात्मक आनुवंशिकी में संकरपूर्वज संकरण का ऐच्छिक वंश (स्टाक) के शुद्धीकरण (सगयुग्मजों को छाँटने ) के लिए उपयोग किया जाता है।

अब तक जो कुछ कहा गया है वह एकसंकर (मोनोहाइब्रिड) संस्करण के संबंध में था। पौधों या प्राणियों में दो जोड़ों के लक्षणों या गुणों (कैरेक्टर्स) को एक साथ लेकर क्रास कराने को द्विसंकर (डाइहाइब्रिड) क्रास कहते हैं; उदाहरणार्थ लंबे तथा चिकने बीजवाले पौधों का क्रास नाटे और झुर्रीदार बीजवाले पौधों से। ऐसे संकरणों में मेंडेल ने पाया कि लक्षणों का प्रत्येक जोड़ा दूसरे जोड़े से भिन्न रूप में वंशानुक्रमित होता है है। इस प्रकार के संकरण में भी मेंडेल के तीन प्रभावी: एक प्रसुप्त का अनुपात दृष्टिगोचर होता है। इसमें लक्षणों के प्रत्येक जोड़े की पृथकता स्पष्ट रहती है; मेंडेल का यह दूसरा नियम है। इसकी परिभाषा इस प्रकार की गई है: जब कारकों से दो या अधिक जोड़ों की पीढ़ियों (रेसेज़) में भिन्नता होती है तो उनके विपरीत गुणों का प्रत्येक जोड़ा स्वतंत्रापूर्वक अपना प्रदर्शन करता है।

आनुवंशिकता के क्षेत्र में मेंडेल को जो ख्याति प्राप्त हुई, उसका कारण यह था कि उन्होंने अत्यंत सावधानीपूर्वक प्रयोग किए और आनुवंशिकता की क्रियाविधिि (मिकैनिज्म ऑव हेरेडिटी) से संबद्ध निम्नलिखित मत प्रकट किए:

  1. उन्होंने बतलाया कि आनुवंशिक गुण या लक्षण दो वैकल्पिक रूपों में प्रकट होते हैं, जैसे चिकने और झुर्रीदार बीज।
  2. जीवों के प्रत्येक गुण या लक्षण आनुवंशिक इकाइयों के केवल एक जोड़े द्वारा निर्धारित होते हैं। मेंडेल ने इन्हें अंग्रेजी के A, a, B, b अक्षरों द्वारा प्रकट किया था; इन्हें आजकल जीन कहा जाता है।
  3. संकरण (क्रास) की प्रक्रिया में प्रत्येक विपरीत युग्म (पेयर) की एक इकाई प्रभावी होती है जो दूसरी इकाई को अप्रभावित कर देती है।
  4. संकर (हाइब्रिड) में उपस्थित आनुवंशिक इकाइयों के जोड़े जननकोशिकाओं की उत्पत्ति के समय एक दूसरे से अलग हो जाते हैं। अलग हो जाने के बाद भी अपने पूर्वगुणों से ए वंचित नहीं होते अपितु नया युग्म बनने के समय ए पुन: संयुक्त हो जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि प्रत्येक जननकोशिका में लक्षणों की ऐसी आनुवंशिक इकाइयों की संख्या केवल एक रह जाती है।
  5. प्रत्येक नई पीढ़ी में जननकोशिकाओं द्वारा वाहित आनुवंशिक इकाइयाँ पुन: युग्मित हो जाती हैं। नर और मादा जनकों की आनुवंशिक इकाइयों का पुनर्युग्मन सर्वथा अवसर (चांस) पर निर्भर करता है। यही कारण है कि एक ही माता पिता की अनेक संतानों के लक्षणों में पर्याप्त भिन्नता दृष्टिगोचर होती है।

मेंडेल के उपर्युक्त मतों या सिद्धांतों को आजकल मेंडेल के आनुवंशिकता के नियम (मेंडेल्स लॉ ऑव हेरेडिटी) के रूप में प्रकट किया जाता है, जो निम्नलिखित है:

एकक गुणनियम (लॉ ऑव यूनिट कैरेक्टर्स)-इस नियम के अनुसार सभी इकाई आनुवंशिक गुणों का युग्मजों में अलग-अलग प्रतिनिधित्व होता है। ये इकाइयाँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अलग-अलग जाती हैं।

प्रभुत्व का नियम (लॉ ऑव डामिनेंस)-विपरीत लक्षणोंवाले जीवों के संकरण द्वारा उत्पन्न पीढ़ी (प्रथम संतति) में लक्षणों की केवल एक इकाई ही प्रकट होती है और दूसरी अप्रकट रहती है।

पृथक्करण का नियम (लॉ ऑव सेग्रिगेशन)-विपरीत गुणों के एक जोड़े में से केवल एक ही गुण किसी एक युग्मज (गैमीट) में पहुँच पाता है।

स्वतंत्र आपव्यूवहन या लक्षणों की इकाई का नियम (लॉ ऑव इंडिविडेंड एसार्टमेंट या लॉ ऑव यूनिट कैरेक्टर्स)-प्रत्येक लक्षण अपने विपरीत दूसरे लक्षण के साथ प्रकट न होकर स्वतंत्र रूप से प्रकट होता है।

प्रश्न हो सकता है कि मेंडेल को अपने प्रयोगों तथा सिद्धांतों की स्थापना में इतनी अभूतपूर्व सफलता कैसे प्राप्त होती गई। इसका उत्तर यही है कि उन्होंने अपने प्रयोगों में अत्यधिक सावधानी बरती। इन विशेषताओं के अतिरिक्त भी उनकी कई विशेषताएँ थीं, जिन्हें नीचे उल्लिखित किया जा रहा है:

  1. प्रायोगिक वस्तु का चुनाव - उन्होंने अपने प्रयोगों के लिए संयोगवश ऐसे पौधे (मटर) का चुनाव किया, जिसका संकरण सरल और परिणाम शीघ्रोद्भावी था।
  2. स्वस्थ पौधों का निर्वाचन - परिणामों की शुद्धता के लिए उन्होंने स्वस्थ पौधों का ही संकरण कराया।
  3. समलक्षणी संकरण - उन्होंने जिस वंश (स्टाक) का नर बीज लिया, उसी से मादा बीज भी लिया, अत: उनके प्रयोग में जनक पीढ़ी सर्वथा शुद्ध (प्योर) थी।
  4. नियंत्रण - उन्होंने नियंत्रित (कंट्रोल्ड) और अनियंत्रित पौधों का पृथक्‌-पृथक्‌ निरीक्षण किया।
  5. इकाई लक्षणों का अध्ययन - मेंडेल का विश्वास था कि जीव अनेक लक्षणों द्वारा बने होते हैं, अर्थात्‌ जीवों में अनेक लक्षण पाए जाते हैं। अत: इनका अलग-अलग अध्ययन किया जा सकता है। मेंडेल ने सहलग्नता जैसी जटिलताओं से दूर रहकर इन इकाई लक्षणों का अध्ययन किया।
  6. गणित का प्रयोग - आनुवंशिकीय तथ्यों को प्रकट करने के लिए मेंडेल ने गणित का सहारा लिया था। उन्होंने संपूर्ण परिणामों का सम्यक्‌ हिसाब रखा था, जिसके कारण उनके घोषित आँकड़ों का पुनरीक्षण या पुन: परीक्षण संभव हो सका।

आनुवंशिकता का संबंध जनन कोशिकाओं (जर्म सेल्स) से होता है। एक गुणसूत्र से जुड़े सभी जीन साथ-साथ आनुवंशिक होते हैं। दूसरे शब्दों में, एक गुणसूत्र में स्थित किसी जीन की आनुवंशिकता दूसरे जीन की आनुवंशिकता से जुड़ी होती है।

लिंग गुणसूत्र (सेक्स क्रोमोसोम) में स्थित जीन भी परस्पर सहलग्न होते हैं किंतु ए जीन जैवलिंग से संबद्ध होते हैं और किसी जीव के लिंग से संबद्ध जीन की आनुवंशिकता को लिंग-सहलग्न-आनुवंशिकता (सेक्सलिंक्ड इनहेरिटेन्स) कहते हैं। इसका पता टी.एच. मार्गन ने 1910 में लगाया। लिंगों के बनने का कारण और कुछ जीन के ग्रथित होने की बात समझ लेने से यह भी समझ में आ जाता है कि कुछ गुण क्यों विशेष लिंग से संबद्ध रहते हैं। अवश्य ही उन गुणों के जीन लिंगसूत्र में ग्रथित होंगे। इन गुणों को लिंगग्रथित गुण कहते हैं। उदाहरणत: कुछ प्रकार की वर्णांधताएँ (लाल और हरे रंग में अंतर न दिखाई पडुना) अथवा अधिरक्तस्राव (रुधिर के थक्का न बनने का रोग, हेमोफीलिया) मिडिलियन रीति से आनुवंशिक नहीं है। उनकी आनुवंशिकता निम्नलिखित प्रकार की है:

रोगी व्यक्ति से रोग उसके लड़के लड़कियों तथा पोतियों में नहीं पहुँचता परंतु पोतों में 50 प्रतिशत पहुँचता है।

जंतुओं में एक्स या ज़ेड गुणसूत्रों को लिंगसहलग्न लक्षणोंवाले जीन का वाहक बतलाया गया है। उदाहरणार्थ कदली मक्खी, ड्रोसोफिला, के नेत्रों का रंग लिंगसहलग्न होता है। साधारणतया लाल रंग प्रभावी होता है और श्वेत प्रसुप्त। जब लाल नेत्रोंवाली मादा मक्खी का श्वेत नेत्रवाली नर मक्खी से मैथुन कराया जाता है तो प्रथम पीढ़ी की सभी संतति लाल नेत्रोंवाली होती है। इनके अंतर्संकरण (इंटरक्रास) द्वारा उत्पन्न दूसरी पीढ़ी की संतति का अनुपात दो लाल नेत्रवाली मादा:एक लाल नेत्र नर:एक श्वेतनेत्र नर का होता है। इस प्रयोग में जनक पीढ़ी के प्रत्येक परिपक्व डिंब में लाल नेत्र के जीन युक्त एक्स गुणसूत्र होते हैं; किंतु आधे शुक्रणुओं (स्पर्म) में श्वेतनेत्र के जीन युक्त एक्स गुणसूत्र तथा आधे में नेत्र रंगविहीन जीन युक्त वाइ गुणसूत्र पाए जाते हैं। प्रथम पीढ़ी की संतति में दो प्रकार के डिंब उत्पन्न होते हैं-या तो लाल या श्वेत नेत्र के जीन। किंतु शुक्राणुओं में से आधे में (एक्स गुणसूत्र) लाल रंग के नेत्र के जीन तथा शेष आधे (वाइ गुणसूत्र) में नेत्र-रंग-विहीन जीन रहते हैं। इस प्रकार चार प्रकार के युग्मनज (ज़ाइगोट) उत्पन्न हो सकते हैं। दूसरी पीढ़ी की संतति आधी मादा मक्खियाँ लाल नेत्र के लिए समयुग्मनजी (होमोज़ाइगस) और आधी विषमयुग्मनजी (हेटेरोज़ाइगस) होती है; किंतु नर मक्खियों में से आधी लाल तथा शेष आधी श्वेत नेत्रोंवाली होती हैं।

किंतु व्युत्क्रमसंकरण (रेसीप्रोकल क्रास) या विपरीत संकरण में किंचित्‌ भिन्न फल प्राप्त होते हैं। जब समयुग्नजी श्वेत नेत्रवाली मादा तथा विषमयुग्मनजी लाल नेत्रवाली नर मक्खी का मैथुन होता है तो प्रथम पीढ़ी की नर मक्खियाँ श्वेत नेत्रवाली तथा मादा मक्खियाँ लाल नेत्रवाली होती हैं। दूसरी पीढ़ी की संतति में लगभग सम संख्यक लाल नेत्रवाली मादाएँ, श्वेत नेत्रवाली मादाएँ, लाल नेत्रवाले नर और श्वेत नेत्रवाले नर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार के प्रयोगों द्वारा ड्रोंसोफिला में अब तक लगभग 150 लिंग सहलग्न जीनों का पता लगाया जा चुका है।

लिंग सहलग्न वंशानुक्रम के कुंछ असामान्य उदाहरण भी प्रकाश में आ चुके हैं। स्त्री-पुं-रूप (जिनेंड्रोमॉर्फ) मधुमक्खियों, कदली मक्खियों तथा अन्य कीटों का अध्ययन करने पर ज्ञात हुआ कि उनके शरीर के एक भाग में नर लक्षण और दूसरे में मादा लक्षण होते हैं। इसी प्रकार जिप्सी शलभ (मॉथ) और सूअरों में कुछ मध्यलिंगी (इंटरसेक्स) प्राणी भी पाए जाते हैं। यौन परिवर्तन (सेक्स रिवर्सल) के उदाहरण भी इसी कोटि में आते हैं। मुर्गियों तथा कभी-कभी मनुष्यों में भी स्त्री से पुरुष और पुरुष से स्त्री बन जाने के उदाहरण मिलते रहते हैं।

जंतुओं तथा पौधों की संततियों में कभी-कभी नए लक्षण भी प्रकट हो जाएा करते हैं। प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ है कि इनमें से कुछ लक्षण आनुवंशिक होते हैं। ऐसे परिवर्तनों को उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) कहा जाता है। ड्रोसोफिला में अब तक लगभग 1,000 उत्परिवर्तनों का पता चला है। इन उत्परिवर्तनों से सर्वदा हानि ही होती हो, ऐसी बात नहीं है; इनको कृत्रिम रूप से भी उत्पन्न करके पौधों, अनाजों तथा पालतू पशुओं की नस्लों में सुधार किए गए हैं। अधिकांश उत्परिवर्तन जीन अप्रभावी (रिसेसिव) होते हैं, यद्यपि कुछ प्रभावी जीनों का भी पता चला है।[1]

आनुवंशिकता, जीन तथा गुणसूत्रों के संचरण की मूल व्यवस्था सभी सजीव प्राणियों में लगभग एक जैसी होती है। मेंडिल के नियम, यद्यपि मूल रूप से मटर में ढूँढ़े और ड्रोसोफिला में आरोपित किए गए थे, तथापि मनुष्यों पर भी ये समान रूप से लागू होते हैं। त्वचा, नेत्र तथा बालों के रंगों पर भी वंशानुक्रम का प्रभाव प्रमाणित किया गया है। इसी प्रकार अनेक प्रकार के रक्त संबंधी रोग, नाटा या लंबापन आदि पर भी वंशानुक्रम का प्रभाव पड़ता है। मेंडेल के पृथक्करण और स्वतंत्र अपव्यूहन (इंडिपेडेंट एसोर्टमेंट) के नियम जनकों, संतानों तथा भाई बहनों के बीच के छह अंतरों की व्याख्या करते हैं।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 377-780 |
  2. डॉ. भृगुनाथप्रसाद

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