सदस्य:रेणु/अभ्यास

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मृत्यु के उपरान्त मानव का क्या होता है?

यह एक ऐसा प्रश्न है जो आदिकाल से ज्यों-का-त्यों चला आया है; यह एक ऐसा रहस्य है, जिसका भेदन आज तक सम्भव नहीं हो सका है। आदिकालीन भारतीयों, मिस्रियों, चाल्डियनों, यूनानियों एवं पारसियों के समक्ष यह प्रश्न एक महत्त्वपूर्ण जिज्ञासा एवं समस्या के रूप में विद्यमान रहा है। मानव के भविष्य, इस पृथिवी के उपरान्त उसके स्वरूप एवं इस विश्व के अन्त के विषय में भाँति-भाँति के मत प्रकाशित किये जाते रहे हैं, जो महत्त्वपूर्ण एवं मनोरम हैं। प्रत्येक धर्म में इसके विषय में पृथक दृष्टिकोण रहा है। इस प्रश्न एवं रहस्य को लेकर एक नयी विद्या का निर्माण भी हो चुका है, जिसे अंग्रेज़ी में इश्चैटॉलॉजी (Eschatology) कहते हैं। यह शब्द यूनानी शब्दों-इश्चैटॉस (Eschatos=Last) एवं लोगिया (Logia=Discourse) से बना है, जिसका तात्पर्य है, अन्तिम बातों, यथा-मृत्यु, न्याय एवं मृत्यु के उपरान्त की अवस्था से सम्बन्ध रखने वाला विज्ञान। इसके दो स्वरूप हैं, जिनमें एक का सम्बन्ध है मृत्यु के उपरान्त व्यक्ति की नियति, आत्मा की अमरता, पाप एवं दण्ड तथा स्वर्ग एवं नरक के विषय की चर्चा से, और दूसरे का सम्बन्ध है अखिल ब्रह्माण्ड, उसकी सृष्टि, परिणति एवं उद्धार तथा सभी वस्तुओं के परम अन्त के विषय की चर्चा से। प्राचीन ग्रन्थों में प्रथम स्वरूप पर ही अधिक बल दिया गया है, किन्तु आजकल वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले लोग बहुधा दूसरे स्वरूप पर ही अधिक सोचते हैं।

मृत्यु विलक्षण एवं भयावह

सामान्यत: मृत्यु विलक्षण एवं भयावह समझी जाती है, यद्यपि कुछ दार्शनिक मनोवृत्ति वाले व्यक्ति इसे मंगलप्रद एवं शरीररूपी बंदीगृह में बन्दी आत्मा की मुक्ति के रूप में ग्रहण करते रहे हैं। मृत्यु का भय बहुतों को होता है; किन्तु वह भय ऐसा नहीं है कि उस समय की अर्थात् मरण-काल की समय की सम्भावित पीड़ा से वे आक्रान्त होते हैं, प्रत्युत उनका भय उस रहस्य से है, जो मृत्यु के उपरान्त की घटनाओं से सम्बन्धित है तथा उनका भय उन भावनाओं से है, जिनका गम्भीर निर्देश जीवनोपरान्त सम्भावित एवं अचिन्त्य परिणामों के उपभोग की ओर है। सी.ई. वुल्लियामी ने अपने ग्रन्थ 'इम्मार्टल मैन'[1] में कहा है-यद्यपि (मृत्युपरान्त या प्रेत) जीवन के सम्बन्ध में अत्यन्त कठोर एवं भयानक कल्पनाओं से लेकर उच्च एवं सुन्दरतम कल्पनाएँ प्रकाशित की गयी हैं, तथापि तात्त्विक बात यही रही है कि शरीर मरता है न कि आत्मा।[2]

मृत्यु के सम्बन्ध में धारणाएँ

मृत्यु के विषय में आदिम काल से लेकर सभ्य अवस्था तक के लोगों में भाँति-भाँति की धारणाएँ रही हैं। कठोपनिषद[3] में आया है-'जब मनुष्य मरता है तो एक सन्देह उत्पन्न होता है, कुछ लोगों के मत से मृत्यूपरान्त जीवात्मा की सत्ता रहती है, किन्तु कुछ लोग ऐसा नहीं मानते हैं।' नचिकेता ने इस सन्देह को दूर करने के लिए यम से प्रार्थना की है। मृत्यूपरान्त जीवात्मा का अस्तित्व मानने वालों में कई प्रकार की धारणाएँ पायी जाती हैं।[4] कुछ लोगों का विश्वास है कि मृतों का एक लोक है, जहाँ मृत्यूपरान्त जो कुछ बच रहता है, वह जाता है। कुछ लोगों की धारणा है कि सुकृत्यों एवं दुष्कृत्यों के फलस्वरूप शरीर के अतिरिक्त प्राणी का विद्यमानांश क्रम से स्वर्ग एवं नरक में जाता है। कुछ लोग आवागमन एवं पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं।[5]

ग्रंथों के अनुसार

ब्रह्मपुराण[6] ने ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख किया है, जिन्हें मृत्यु सुखद एवं सरल प्रतीत होती है; न कि पीड़ाजनक एवं चिन्तायुक्त। वह कुछ यों है-'जो झूठ नहीं बोलता, जो मित्र या स्नेही के प्रति कृतघ्न नहीं है, जो आस्तिक है, जो देवपूजा परायण है और ब्राह्मणों का सम्मान करता है तथा जो किसी से ईर्ष्या नहीं करता-वह सुखद मृत्यु पाता है।' इसी प्रकार अनुशासनपर्व[7] ने विस्तार के साथ अकालमृत्यु एवं दीर्घ जीवन के कारणों का वर्णन किया है, वह कुछ यों है-नास्तिक, यज्ञ न करने वाले, गुरुओं एवं शास्त्रों की आज्ञा के उल्लंघनकर्ता, धर्म न जानने वाले एवं दुष्कर्मी लोग अल्पायु होते हैं। जो चरित्रवान् नहीं हैं, जो सदाचार के नियम तोड़ा करते हैं और जो कई प्रकार से सम्भोग क्रिया करते रहते हैं, वे अल्पायु होते हैं और नरक में जाते हैं। जो क्रोध नहीं करते, जो सत्यवादी होते हैं, जो किसी की हिंसा नहीं करते, जो किसी की ईर्ष्या नहीं करते और जो कपटी नहीं होते, वे शतायु होते हैं।[8]

मृत्यु के आगमन के संकेत

बहुत से ग्रन्थ मृत्यु के आगमन के संकेतों का वर्णन करते हैं, यथा-शान्तिपर्व[9]), देवल[10], वायु पुराण[11], मार्कण्डेय पुराण[12], लिंग पुराण[13] आदि पुराणों में मृत्यु के आगमन के संकेतों या चिह्नों की लम्बी-लम्बी सूचियाँ मिलती हैं। स्थानाभाव से अधिक नहीं लिखा जा सकता, किन्तु उदाहरणार्थ कुछ बातें दी जा रही हैं।

शान्तिपर्व के अनुसार

शान्तिपर्व[14] के अनुसार जो अरुन्धती, ध्रुव तारा एवं पूर्ण चन्द्र तथा दूसरे की आंखों में अपनी छाया नहीं देख सकते, उनका जीवन बस एक वर्ष का होता है; जो चन्द्रमण्डल में छिद्र देखते हैं, वे केवल छ: मास के शेष जीवन वाले होते हैं; जो सूर्यमण्डल में छिद्र देखते हैं या पास की सुगन्धित वस्तुओं में शव की गन्ध पाते हैं, उनके जीवन के केवल सात दिन बचे रहते हैं। आसन्न मृत्यु के लक्षण ये हैं-कानों एवं नाक का झुक जाना, आंखों एवं दाँतों का रंग परिवर्तन हो जाना, संज्ञाशून्यता, शरीरोष्णता का अभाव, कपाल से धूम निकलना एवं अचानक बायीं आंख से पानी गिरना।

देवल के अनुसार

देवल ने 12, 11 या 10 मास से लेकर एक मास, 15 दिन या 2 दिनों तक की मृत्यु के लक्षणों का वर्णन किया है और कहा है कि जब अँगुलियों से बन्द करने पर कानों में स्वर की धमक नहीं ज्ञात होती या आंख में प्रकाश नहीं दिखता तो समझना चाहिए कि मृत्यु आने ही वाली है।

वायुपुराण एवं लिंगपुराण के अनुसार

अन्तिम दो लक्षणों को वायुपुराण[15] एवं लिंगपुराण[16] ने सबसे बुरा माना है।[17] मुंशी हीरक जयन्ती ग्रन्थ[18] में डॉ. आर. जी. हर्षे ने कई ग्रन्थों के आधार पर लिखा है कि जब व्यक्ति स्वप्न में गधा देखता है तो उसका मरण निश्चित-सा है, जब वह स्वप्न में बूढ़ी कुमारी स्त्री देखता है तो भय, रोग एवं मृत्यु का लक्षण समझना चाहिए[19] या जब त्रिशूल देखता है तो मृत्यु परिलक्षित होती है।

भारत के अधिकांश भागों में ऐसी प्रथा है कि जब व्यक्ति मरणासन्न रहता है या जब वह अब-तब रहता है, तो लोग उसे खाट से उतारकर पृथिवी पर लिटा देते हैं।

टीका टिप्पणी

  1. इम्मार्टल मैन (पृष्ठ 2)
  2. अंग्रेज़ी शब्द ‘स्पिरिट’ एवं भारतीय शब्द आत्मा में धार्मिक एवं दार्शनिक दृष्टि से अर्थ-साम्य नहीं है। प्रथम शब्द जीवनोच्छ्वास का द्योतक है और दूसरे को भारतीय दर्शन में परमात्मा की अभिव्यक्ति का रूप दिया गया है। आत्मा अमर है, शरीर नाशवान्। गीता में आया भी है-

    'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
    न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।’ और भी-‘अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराण:........।’

  3. कठोपनिषद (1।1।20)
  4. देखिए सी.ई. वुल्लियामी का इम्मार्टल मैन पृष्ठ 11।
  5. यूनानी लेखक पिण्डार (द्वितीय आलिचिएन ओड), प्लेटो (पीड्रस एवं टिमीएस) एवं हेरोडोटस (2।123)।
  6. ब्रह्मपुराण 214।34-39
  7. अनुशासनपर्व 104।11-12; 144।49-60
  8. अनुशासनपर्व 104।11-12 एवं 14
  9. शान्तिपर्व 318।9-17
  10. कल्पतरु, मोक्षकाण्ड, पृष्ठ 248-250
  11. वायु पुराण 19|1-32
  12. मार्कण्डेय पुराण 43।1-33 या 40।1-33
  13. लिंग पुराण पूर्वार्ध, अध्याय 91
  14. शान्तिपर्व अध्याय 318
  15. वायुपुराण 19|28
  16. लिंगपुराण पूर्वार्ध, 91।24
  17. द्वे चात्र परमेऽरिष्टे एतद्रूपं परं भवेत्। घोषं न श्रृणुयात्कर्णे ज्योतिर्नेत्रे न पश्यति।। वायुपुराण (19।27); नग्नं वा श्रमणं दृष्ट्वा विद्यान्मृत्युमुपस्थितम्। लिंगपुराण (पूर्वभाग 91।19)।
  18. मुंशी हीरक जयन्ती ग्रन्थ पृष्ठ 246-268
  19. पृष्ठ 251