राज योग
ऐतिहासिक रूप में योग की अन्तिम अवस्था 'समाधि' को ही राज योग कहते थे, किन्तु आधुनिक सन्दर्भ में, हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक का नाम 'राज योग'[1] है। पतंजलि का 'योगसूत्र' इसका मुख्य ग्रन्थ है। 19वीं शताब्दी में स्वामी विवेकानन्द ने 'राज योग' का आधुनिक अर्थ में प्रयोग आरम्भ किया था।
योगों का राजा
सभी योगों का राजा 'राज योग' को कहा जाता है, क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ समाग्री अवश्य मिल जाती है। राज योग में पतंजलि द्वारा रचित 'अष्टांग योग' का वर्णन आता है। राज योग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है। महर्षि पतंजलि ने समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का मार्ग सुझाया है। इन साधनों का उपयोग करके साधक के क्लेशों का नाश होता है, चित्त प्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता है और विवेकख्याति प्राप्त होती है।
योगाङ्गानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेकख्यातेः।[2]
पतंजलि का 'अष्टांग योग'
मनुष्य के चित्त में जब तक विकार भरा रहता है और उसकी बुद्धि दूषित रहती है, तब तक तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता। राज योग के अन्तर्गत पतंजलि ने अष्टांग को निम्न प्रकार बताया है-
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयः।
- यम
- नियम
- आसन
- प्राणायाम
- प्रत्याहार
- धारणा
- ध्यान
- समाधि
उपरोक्त में से प्रथम पाँच योग के बहिरंग साधन हैं। 'धारणा', 'ध्यान' और 'समाधि' ये तीन योग के अंतरंग साधन हैं। ध्येय विषय ईश्वर होने पर मुक्ति मिल जाती है। यह परमात्मा से संयोग प्राप्त करने का मनोवैज्ञानिक मार्ग है, जिसमें मन की सभी शक्तियों को एकाग्र कर एक केन्द्र या ध्येय वस्तु की ओर लाया जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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