रथ सप्तमी

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  • यह व्रत माघ शुक्ल पक्ष की 7 पर; तिथि; सूर्य; षष्ठी की रात्रि को संकल्प एवं नियमों का पालन; सप्तमी को उपवास; कर्ता को सोने या चाँदी का अश्व एवं सारथी से युक्त एक रथ बनवाना पड़ता है तथा कुंकुम, पुष्पों आदि से रथ की पूजा करनी पड़ती है; रथ में सूर्य की स्वर्ण प्रतिमा रखी जाती है; रथ एवं सारथी के साथ सूर्य पूजा तथा मंत्रोच्चारण और उसके साथ मनोकामना की अभिव्यक्ति; नृत्य एवं संगीत से जागर, कर्ता का पलकें बन्द नहीं करनी चाहिए, अर्थात् वह उस रात्रि नहीं सोता है; दूसरे दिन प्रात: स्नान, दान और गुरु को रथ का दान; हेमाद्रि (व्रत0 1, 652-658, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण)। यहाँ पर कृष्ण ने युधिष्ठर से काम्बोज के राजा यशोधर्मा की गाथा कही है, कि किस प्रकार इस व्रत के सम्पादन से उसकी वृद्धावस्था में उत्पन्न पुत्र, जो कि सभी रोगों से विकल था, रोगमुक्त हो गया तथा चक्रवर्ती राजा हो गया। कालविवेक (101); हेमाद्रि (काल 624) ने मत्स्यपुराण का उद्धरण देते हुए कहा है कि मन्वन्तर के आरम्भ में इस तिथि पर सूर्य को रथ प्राप्त हुआ, अत: यह तिथि रथसप्तमी के नाम से विख्यात है। इसे महासप्तमी भी कहा जाता है। हेमाद्रि (काल0, 624)। देखिए तिथितत्व (39); पुरुषार्थचिन्तामणि (104-105); व्रतराज (249-253)। देखिए इंण्डियन एण्टीक्वेरी (जिल्द 11, पृ0 112), राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग का सामनगढ़ दान पत्र, शके सम्वत् 675 (753-54 ई0) जहाँ 'माघमास रथसप्तमीम्' आया है। रथसप्तमी माहात्म्य के लिए देखिए भविष्यपुराण (1|50)।



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