मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग

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श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग / Shri Mallikarjun


दक्षिण भारत के तमिलनायडु प्रदेश में कृष्णा जिले के अन्तर्गत श्री मल्लिकार्जुन नामक द्वितीय ज्योतिर्लिंग का स्थान है। यह कृष्णा नदी के किनारे श्री शैलर्पवत पर अविस्थित है। इसे दक्षिण कैलास भी कहा जाता है। अनेक धर्मग्रन्थों में इस स्थान की महिमा बतायी गई है। महाभारत के अनुसार श्रीशैल पर्वत पर भय़गवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध-यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। कुछ ग्रन्थों में तो यहाँ तक लिखा है कि श्रीशैल के शिखर के दर्शन मात्र करने से दर्शको के सभी प्रकार के कष्ट दूर भाग जाते है, उसे अनन्त सुखों की प्राप्ती होती है और आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है। इस आश्य का वर्णन शिवमहापुराण के काटिरूद्र संहिता के पन्द्रहवे अध्याय में उपलब्ध होता है।− तदिद्नं हि समारभ्य मल्लिकार्जुन सम्भवम्। लिंगं चैव शिवस्यैकं प्रसिद्धं भुवनत्रये।। तल्लिंग यः समीक्षते स सवैः किल्बिषैरपि। मुच्यते नात्र सन्देहः सर्वान्कामानवाप्नुयात्।। दुःखं च दूरतो याति सुखमात्यंतिकं लभेत। जननीगर्भसम्भूत कष्टं नाप्नोति वै पुनः।। धनधान्यसमृद्धिश्च प्रतिष्ठाऽऽरोग्यमेव च। अभीष्टफलसिद्धिश्च जायते नात्र संशयः।। इस महत्वपूर्ण स्थान के सम्बन्ध में पौराणिक कथानक कुछ इस प्रकार है- शिवपार्वती के पुत्र स्वामी कार्तिकेय और श्रीगणेश दोनों भाई विवाह के लिए आपस में कलह करने लगे। कार्तिकेय का कहना था कि वे बड़े हैं, इसलिए उनका विवाह पहले होना चाहिए, किन्तु श्री गणेश अपआ विवाह पहले करना चाहते थे। इस झगड़े पर फैसला देने के लिए दोनों अपने माता-पिता भवानी और शंकर के पास पहूँचे। उनके माता-पिता ने कहा कि तुम दोनों में जो कोई इस पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले यहाँ आ जाएगा, उसी का विवाह पहले होगा। शर्त सुनते ही कार्तिकेयजी पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए दौड़ पड़े। इधर स्थूलकाय श्री गणेशजी और उनका वाहन भी चूहा, भला इतनी शीघ्रता से वे परिक्रमा कैसे कर सकते थे। गणेशजी के सामने भारी समस्या उपस्थित थी। श्रीगणेशजी शरीर से जरूर स्थूल हैं, किन्तु वे बुद्धि के सागर हैं। उन्होंने कुछ सोच-विचार किया और अपनी माता पार्वती तथा पिता देवाधिदेव महेश्वर से एक आसन पर बैठने का आग्रह किया। उन दोनों के आसन पर बैठ जाने के बाद श्रीगणेश ने उनकी सात परिक्रमा की, फिर विधिवत् पूजन किया- पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रकान्तिं च करोति यः। तस्य वै पृथिवीजन्यं फलं भवति निश्चितम्।। इस प्रकार श्रीगणेश माता-पिता की परिक्रमा करके पृथ्वी की परिक्रमा से प्राप्त होने वाले फल की प्राप्ति के अधिकारी बन गये। उनकी चतुर बुद्धि को देख कर शिव और पार्वती दोनों बहुत प्रसन्न् हुए और उन्होंने श्रीगणेश का विवाह भी करा दिया। जिस समय स्वामी कार्तिकेय सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके वापस आये, उस समय श्रीगणेशजी का विवाह विश्वरूप प्रजापति की पुत्रियों सिद्धि और बुद्धि के साथ हो चुका था। इतना ही नहीं श्री गणेशजी की उनकी ‘सिद्धि’ नामक पत्नी से ‘क्षेम’ तथा बुद्धि नामक पत्नी से ‘लाभ’ ये दो पुत्ररत्न भी मिल गये थे। भ्रमणशील और जगत् का कल्याण करने वाले देवर्षि नारद ने स्वामी कार्तिकेय से यह सारा वृतान्त कहा सुनाया। श्रीगणेश का विवाह और उन्हें पुत्रलाभ का समाचार सुनकर स्वामी कार्तिकेय जल उठे। इस प्रकरण से नाराज कार्तिक ने शिष्टाचार का पालन करते हुए अपने माता-पिता के चरण छुये और वहाँ से चल दिये। माता-पिता से अलग होकर कार्तिक स्वामी क्रौंचपर्वत पर रहने लगे। शिव और पार्वती ने अपने पुत्र कार्तिकेय को समझा-बुझाकर बुलाने हुतू देवर्षि नारद को क्रौंचपर्वत पर भेजा। देवर्षि नारद ने बहुत प्रकार से स्वामी को मनाने का प्रयास किय, किन्तु वे वापस नहीं आये। उसके बाद कोमल ह्दय माता पार्वती पुत्रस्नेह में व्याकुल हो उठीं। वे भगवान् शिवजी को लेकर क्रौंचपर्वत पर पहूँच गई। इधर स्वामी कार्तिकेय को क्रौचपर्वत अपने माता-पिता के आगमन की सूचना मिल गई और वे वहाँ से तीन योजन अर्थात छत्तीस किलोमीटर दूर चले गये। कार्तिकेय के चले जाने पर भगवान् शिव उस क्रौंचपर्वत पर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गये तभी से वे ‘मल्लिकार्जुन’ ज्योतिर्लिं के नाम से प्रसिद्ध हुए ‘मल्लिका’ माता पार्वती का नाम है, जबकि ‘अर्जुन’ भगवान् शंकर को कहा जाता है। इस प्रकार सम्मिलित रूप से ‘मल्लिकार्जुन’ नाम उक्त ज्योतिर्लिंग का जगत् में प्रसिद्ध हुआ। एक अन्य कथानक के अनुसार कौंचपर्वत के समीप में ही चन्द्रगुप्त नामक किसी राजा की राजधानी थी। उनकी राजकन्या किसी संकट में उलझ गई थी उस विपत्ति से बचने के लिए वह अपने पिता के राजमहल से भागकर पर्वतराज की शरण में पहूँच गई। वह कन्या ग्वालों के साथ कन्दमूल खाती और दूध पीती थी। इस प्रकार उसका जीवन-निर्वाह उस पर्वत पर होने लगा। उस कन्या के पास एक श्यामा (काली) गौ थी, जिसकी सेवा वह स्वयं करती थी। उस गौ के साथ विचित्र घटना घटित होने लगी। कोई व्यक्ति छिपकर प्रतिदिन उस श्यामा का दूध निकाल लेता था। एक दिन उस कन्या ने किसी चोर को श्यामा का दूध दुहते हुए देख लिया, तब वह क्रोध में आगबबूला हो उसको मारने के लिए दौड़ पड़ी। जब वह गौ के समीप पहूँची, तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, क्योंकि वहाँ उसे एक शिवलिंग के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दिया। आगे चलकर उस राजकुमारी ने उस शिवलिंग के ऊपर एक सुन्दर सा मन्दिर बनवा दिया। वही प्राचीन शिवलिंग आज ‘मल्लिकार्जुन’ ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध है। इस मन्दिर का भलीभाँति सर्वेक्षण करने के बाद पुरातत्ववेत्ताओं ने ऐसा अनुमान किया है कि इसका निर्माणकार्य लगभग दो हजार वर्ष प्राचीन है। इस ऐतिहासिक मन्दिर के दर्शनार्थ बड़े-बड़े राजा-महाराजा समय-समय से आते रहे हैं। आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व श्री विजयनगरम् के महाराजा कृष्ण्राय यहाँ पहूँचे थे। उन्होंने यहाँ एक सुन्दर मण्डप का भी निर्माण् कराया था। जिसका शिखर (ऊपरी भाग) सोने का बना हुआ था। उनके डेढ़ सौ वर्षों बाद महाराज शिवाजी भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन हेतू क्रौंचपर्वत पर पहूँच थे। उन्होंनके मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर यात्रियों के लिए एक उत्त्म धर्मशाला बनवायी थी। इस पर्वत पर बहुत से शिवलिंग मिलते हैं। यहाँ पर महाशिवरात्रि के दिन मेला लगता है। मन्दिर के पास जगदम्बा का भी एक स्थान है। यहाँ माँ पार्वती को ‘भ्रमराम्बा’ कहा जाता है। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की पहाड़ी से पाँच किलोमीटर नीचे पातालगंगा के नाम प्रसिद्ध कृष्णा नदी हैं, जिसमें स्नान करने का महत्व शास्त्रो में वर्णित है।