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*इस ग्रंथ को लल्लूलाल ने अपने संस्कृत यंत्रालय, [[कलकत्ता]] से सन 1810 ई. में प्रकाशित किया। आगे चलकर योग ध्यान मिश्र ने अपने कुछ संशोधन के साथ 1842 ई. में इसका पुनर्मुद्रण किया। उसके आवरण पृष्ठ पर लिखा है-  
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*इस ग्रंथ को लल्लूलाल ने अपने संस्कृत यंत्रालय, [[कलकत्ता]] से सन् 1810 ई. में प्रकाशित किया। आगे चलकर योग ध्यान मिश्र ने अपने कुछ संशोधन के साथ 1842 ई. में इसका पुनर्मुद्रण किया। उसके आवरण पृष्ठ पर लिखा है-  
 
<blockquote>"श्री योगध्यान मिश्रेण परिष्क़ृत्य यथामति समंकित लाल कृत प्रेमसागर पुस्तक।"</blockquote>  
 
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*लल्लूलाल ने अपने प्रकाशित संस्करण की भूमिका में उसकी [[भाषा]] के सम्बन्ध में लिखा है-  
 
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*'''यामनी भाषा''' से तात्पर्य [[फारसी भाषा|फारसी]] - [[अरबी भाषा|अरबी]] - तुर्की के शब्दों से ही था। जिनका 'प्रेमसागर' में सतर्कता के साथ बहिष्कार किया गया है।  
 
*'''यामनी भाषा''' से तात्पर्य [[फारसी भाषा|फारसी]] - [[अरबी भाषा|अरबी]] - तुर्की के शब्दों से ही था। जिनका 'प्रेमसागर' में सतर्कता के साथ बहिष्कार किया गया है।  
 
==भाषा शैली==
 
==भाषा शैली==
तुर्की का केवल एक शब्द 'बैरक' (बेरख) प्रमादवश आ गया है। अंग्रेज शासकों की तत्कालीन नीति के अनुसार हिन्दी वह थी, जिसमें अरबी-फारसी का कोई भी शब्द न आने पाये। इस कारण 'प्रेमसागर' की [[भाषा]] कुछ अंशों में कृत्रिम हो गयी है। उसकी कृत्रिमता का दूसरा कारण उसकी काव्यात्मकता भी है। उसमें [[ब्रजभाषा]] के जो मिश्रण पाये जाते हैं, उनमें कुछ तो चतुर्भुज मिश्र के मूलग्रंथ के प्रभाव हैं। पर सबसे प्रधान बात तो यह है कि [[आगरा|आगरे]] की [[खड़ीबोली]] में उसकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार ही ब्रजरंजित प्रयोग स्वभावत:पाये जाते हैं।  
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तुर्की का केवल एक शब्द 'बैरक' (बेरख) प्रमादवश आ गया है। अंग्रेज़ शासकों की तत्कालीन नीति के अनुसार हिन्दी वह थी, जिसमें अरबी-फारसी का कोई भी शब्द न आने पाये। इस कारण 'प्रेमसागर' की [[भाषा]] कुछ अंशों में कृत्रिम हो गयी है। उसकी कृत्रिमता का दूसरा कारण उसकी काव्यात्मकता भी है। उसमें [[ब्रजभाषा]] के जो मिश्रण पाये जाते हैं, उनमें कुछ तो चतुर्भुज मिश्र के मूलग्रंथ के प्रभाव हैं। पर सबसे प्रधान बात तो यह है कि [[आगरा|आगरे]] की [[खड़ीबोली]] में उसकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार ही ब्रजरंजित प्रयोग स्वभावत:पाये जाते हैं।  
 
==प्रेमसागर के संस्करण==
 
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#'प्रेमसागर'- [[अंग्रेज़ी]] में अनुवादित अदालत खाँ, कलकत्ता, 1892 ई.  
 
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#'प्रेमसागर'- अनुवादित, कैप्टन डब्ल्यू हौलिंग्स, कलकत्ता. 1848 ई.  
 
#'प्रेमसागर'- अनुवादित, कैप्टन डब्ल्यू हौलिंग्स, कलकत्ता. 1848 ई.  
#'प्रेमसागर'- सचित्र पंचम संस्करण, सन 1957 ई. श्रीवेंकटेश्वर प्रेस, [[बम्बई]]।  
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#इसके छ: संस्करण अंग्रेज़ी में भी विभिन्न स्थानों में प्रकाशित हुए हैं।  
 
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सन 1567 ई, में चतर्भुज मिश्र ने ब्रजभाषा में दोहा-चौपाई में भागवत के दशम स्कन्ध का अनुवाद किया था। उसी के आधार पर लल्लूलाल ने 1803 ई. में जॉन गिलक्राइस्ट के आदेश से फोर्ट विलियम कॉलेज के विद्यार्थियों के पढ़ने के लिए 'प्रेमसागर' की रचना की।

कथानक

इसमें भागवत के दशम स्कन्ध की कथा 90 अध्यायों में वर्णित है।

प्रकाशन

  • इस ग्रंथ को लल्लूलाल ने अपने संस्कृत यंत्रालय, कलकत्ता से सन् 1810 ई. में प्रकाशित किया। आगे चलकर योग ध्यान मिश्र ने अपने कुछ संशोधन के साथ 1842 ई. में इसका पुनर्मुद्रण किया। उसके आवरण पृष्ठ पर लिखा है-

"श्री योगध्यान मिश्रेण परिष्क़ृत्य यथामति समंकित लाल कृत प्रेमसागर पुस्तक।"

  • लल्लूलाल ने अपने प्रकाशित संस्करण की भूमिका में उसकी भाषा के सम्बन्ध में लिखा है-

"श्रीयत गुन-गाहक गुनियन-सुखदायक जान गिलकिरिस्त महाशय की आज्ञा से सं. 1860 में श्री लल्लूलालजी लाल कवि ब्राह्मन गुजराती सहस्त्र-अवदीच आगरे वाले ने विसका सार ले, यामिनी भाषा छोड़।"

  • अब तक इस ग्रंथ के अनेक संस्करण हो चुके हैं, जिनमें से काशी नागरी प्रचारिणी सभा का संस्करण सबसे प्रामाणिक माना जा सकता है, क्योंकि उसके सम्पादक ने उसका पाठ लल्लूलाल द्वारा प्रकाशित संस्करण ने अनुसार ही रखा है।
  • 'प्रेमसागर' की जो प्रति 1810 ई. में प्रकाशित हुई थी उसके आवरण पृष्ठ पर 'हिन्दुवी' शब्द अंकित है। इससे यह स्पष्ट है कि लेखक ने 'प्रेमसागर' की खड़ी बोली को हिन्दी ही माना है।
  • यामनी भाषा से तात्पर्य फारसी - अरबी - तुर्की के शब्दों से ही था। जिनका 'प्रेमसागर' में सतर्कता के साथ बहिष्कार किया गया है।

भाषा शैली

तुर्की का केवल एक शब्द 'बैरक' (बेरख) प्रमादवश आ गया है। अंग्रेज़ शासकों की तत्कालीन नीति के अनुसार हिन्दी वह थी, जिसमें अरबी-फारसी का कोई भी शब्द न आने पाये। इस कारण 'प्रेमसागर' की भाषा कुछ अंशों में कृत्रिम हो गयी है। उसकी कृत्रिमता का दूसरा कारण उसकी काव्यात्मकता भी है। उसमें ब्रजभाषा के जो मिश्रण पाये जाते हैं, उनमें कुछ तो चतुर्भुज मिश्र के मूलग्रंथ के प्रभाव हैं। पर सबसे प्रधान बात तो यह है कि आगरे की खड़ीबोली में उसकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार ही ब्रजरंजित प्रयोग स्वभावत:पाये जाते हैं।

प्रेमसागर के संस्करण

'प्रेमसागर के' जो संस्करण अब तक देखने में आए हैं वे ये हैं -

  1. प्रेमसागर- सम्पादक तथा प्रकाशक लल्लूलाल, कलकत्ता 1810 ई.
  2. 'प्रेमसागर' कलकत्ता 1842 ई.
  3. 'प्रेमसागर'- सम्पादक जगन्नाथ सुकुल, कलकत्ता 1867 ई.
  4. 'प्रेमसागर'- कलकत्ता 1878 ई.
  5. 'प्रेमसागर'- कलकत्ता 1889 ई.
  6. 'प्रेमसागर'- कलकत्ता 1907 ई.
  7. 'प्रेमसागर'- बनारस 1923 ई.
  8. 'प्रेमसागर'- सम्पादक ब्रजरत्नदास, नागरी प्रचारिणी सभा काशी, 1922 ई. और 'प्रेमसागर'- दूसरा प्रकाशन, 1923 ई.
  9. 'प्रेमसागर'- सम्पादक कालिकाप्रसाद दीक्षित, प्रयाग 1832 ई.
  10. 'प्रेमसागर'- सम्पादक बैजनाथ केडिया, कलकत्ता, 1924 ई.
  11. 'प्रेमसागर'- अंग्रेज़ी में अनुवादित अदालत खाँ, कलकत्ता, 1892 ई.
  12. 'प्रेमसागर'- अनुवादित, कैप्टन डब्ल्यू हौलिंग्स, कलकत्ता. 1848 ई.
  13. 'प्रेमसागर'- सचित्र पंचम संस्करण, सन् 1957 ई. श्रीवेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई
  14. इसके छ: संस्करण अंग्रेज़ी में भी विभिन्न स्थानों में प्रकाशित हुए हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 360।

बाहरी कड़ियाँ

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