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पहले वर्ग के पदार्थों में फॉर्मेल्डीहाइड, सल्फ़्यूरिक अम्ल, कपूर और कुछ वाष्पशील तेल आते हैं। फॉमैल्डीहाइड सर्वोत्कृष्ट निस्संक्रामक हैं, यह मनुष्य के लिए विषैला नहीं होता, यद्यपि [[आँख|आँखों]] और गले के लिए क्षोभकारी होता है। यह रोगाणुओं को बड़ी जल्दी नष्ट कर देता है। यद्यपि पीड़क जंतुओ के विनाश के लिए यह उतना प्रभावकारी नहीं है जितना सल्फ़्यूरिक अम्ल।  
 
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दूसरे वर्ग के पदार्थों मे अनेक ऑक्सीकारक जैसे पोटाश, लवण, चूना, सोडा और पोटाश के क्लोराइड, सल्फ़ेट या सल्फ़ाइट तथा [[एलुमिनियम]] और जस्ते के क्लोराइड इत्यादि, अलकतरे के उत्पाद फीनोल, क्रीसोल क्रियोसोट सैलिसिलिक अम्ल आदि आते हैं।  
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13:34, 29 नवम्बर 2014 के समय का अवतरण

निस्संक्रामक (अंग्रेज़ी भाषा: Disinfectants) का प्रयोग रोगाणुओं और सूक्ष्माणुओं को मार डालने के लिए होता है। इससे संक्रामक रोगों को रोकने में सहायता मिलती है। सर्वोत्कृष्ट निस्संक्रामक तो सूर्य की किरणें है, जिनका व्यवहार प्राचीन काल से इसके लिए होता आ रहा है। अब कुछ अन्य कृत्रिम पदार्थ भी प्रयुक्त होते हैं।

वर्ग

निस्संक्रामक पदार्थों को तीन वर्गों मे विभक्त किया जा सकता है:-

  1. पहले वर्ग मे वाष्पशील पदार्थ आते हैं, जो वाष्प बनकर वायु के सूक्ष्म जीवाणुओं का विनाश करते हैं।
  2. दूसरे वर्ग मे वे पदार्थ आते हैं जो रोगग्रस्त अंगों या उनसे बने संक्रामक पदार्थों का विनाश करते हैं।
  3. तीसरे वर्ग में भौतिक साधन आते हैं।

पहला वर्ग

पहले वर्ग के पदार्थों में फॉर्मेल्डीहाइड, सल्फ़्यूरिक अम्ल, कपूर और कुछ वाष्पशील तेल आते हैं। फॉमैल्डीहाइड सर्वोत्कृष्ट निस्संक्रामक हैं, यह मनुष्य के लिए विषैला नहीं होता, यद्यपि आँखों और गले के लिए क्षोभकारी होता है। यह रोगाणुओं को बड़ी जल्दी नष्ट कर देता है। यद्यपि पीड़क जंतुओ के विनाश के लिए यह उतना प्रभावकारी नहीं है जितना सल्फ़्यूरिक अम्ल।

दूसरा वर्ग

दूसरे वर्ग के पदार्थों मे अनेक ऑक्सीकारक जैसे पोटाश, लवण, चूना, सोडा और पोटाश के क्लोराइड, सल्फ़ेट या सल्फ़ाइट तथा एलुमिनियम और जस्ते के क्लोराइड इत्यादि, अलकतरे के उत्पाद फीनोल, क्रीसोल क्रियोसोट सैलिसिलिक अम्ल आदि आते हैं।

तीसरा वर्ग

तीसरे वर्ग के साधनों में ऊष्मा और शीत है। शीत साधारणतया प्राप्य नहीं हैं। ऊष्मा सरलता से प्राप्य है। ऊष्मा से पहनने के कपड़ों, शय्याओं तथा सूत के अन्य वस्त्रों का निस्संक्रमण होता है। ऊष्मा दबाव वाली भाप से प्राप्त होती है। इसके लिए भाप का ताप कुछ समय के लिए लगभग 250° सेंन्टीग्रेट रहना आवश्यक होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

वर्मा, फूलदेवसहाय “खण्ड 6”, हिन्दी विश्वकोश, 1966 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, 386।

बाहरी कड़ियाँ

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