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दियासलाई

दियासलाई या 'माचिस' तात्क्षणिक अग्नि प्रज्वलित करने वाली लकड़ी की शलाका को कहते हैं, जिसके सिरे पर मसाला लगा होता है और जो घर्षण या रासायनिक पदार्थों के संपर्क से जल जाती है। इसे माचिस भी कहा जाता है। मनुष्य की सबसे पहली समस्या संभवत: आग उत्पन्न करने की थी। सबसे पहले संभवत: लकड़ी के दो टुकड़ों को रगड़कर आग उत्पन्न की गई थी। फिर पत्थर और लोहे से आग उत्पन्न होने लगी। चकमक पत्थर को लोहे से रगड़कर चिनगारी उत्पन्न करने और चिनगारी से कपड़ा, गंधक या अन्य शीघ्र आग पकड़ने वाली वस्तुओं को प्रज्वलित करने का प्रयास दियासलाई निर्माण की पहली सीढ़ी थी। इस काम के लिए चकमक पत्थर का उपयोग 1847 ई. तक होता रह है। पहले जो दियासलाइयाँ बनती थीं उनमें गंधक रहता था, पीछे आधुनिक दियासलाई का निर्माण शुरू हुआ।

इतिहास

बर्थोले ने पहले पहल आग उत्पन्न करने के लिए पोटासियम क्लोरेट और सलफ्यूरिक अम्ल का उपयोग किया था। पोटासियम क्लारेट चीनी और गोंद में मिलाकर लकड़ी की शलाका के एक सिरे पर लगा होता था। उसे सलफ्यूरिक अम्ल में डुबाने से शलाका जल उठती थी। फॉस्फोरस के आविष्कार के बाद घर्षण दियासलाई का आविष्कार इंग्लैंड के जॉन वाकर द्वारा 1826 ई. में हुआ। लकड़ी की शलाका के सिरे पर एंटिमनी सल्फाइड, पोटासियम क्लोरेट, बबूल का गोंद या स्टार्च लगे रहते थे। उसे रेगमाल पर रगड़ने से मसाला जल उठता था, उससे चिनगारियाँ छिटकतीं और छोटे-छोटे विस्फोट होते थे। गंधक के जलने के कारण गंध बड़ी अरुचिकर होती थी। सन 1832 में फ्रांस में ऐंटीमनी सल्फाइड के स्थान में फॉस्फोरस का प्रयोग शुरू हुआ। इससे गंधक की अरुचिकर गंध तो जाती रही पर फॉस्फोरस के जलने से बना धुआँ बहुत विषैला सिद्ध हुआ और ऐसे कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों में परिगलन रोग फैलने लगा और अनेक लोग मरने लगे। पीत फॉस्फोरस का उपयोग आज क़ानून से वर्जित है। पीत फॉस्फोरस के स्थान पर अब अविषाक्त फॉस्फोरस सेस्क्किसल्फाइड का प्रयोग शुरू हुआ। फिर लाल या अक्रिस्टला फॉस्फोरस का पता लगा, जो बिलकुल विषैला नहीं होता। फिर फॉस्फोरस के स्थान पर बहुत दिनों तक इसी का उपयोग दियासलाई बनाने में होता रहा। ऐसी दियासलाई किसी रुखड़े तल पर रगड़ने से जल उठती है। इसके बाद निरापद दियासलाई का आविष्कार हुआ। इसमें कुछ मसाले शलाका के सिरे पर रहते हैं और कुछ मसाले बक्स पर रहते हैं। इससे दियासलाई केवल बक्स के तल पर रगड़ने से जलती है, अन्यथा नहीं।

दियासलाई का निर्माण

पहले दियासलाई का निर्माण हाथों से होता था। शलाका हाथों से ही बनती थी और हाथों से ही उसके सिरे पर मसाले बैठाए जाते थे। उनके वक्स भी हाथों से ही बनते थे। ऐसी स्थिति 18 वीं शती के मध्य तक थी। उसके बाद मशीनों का उपयोग शुरू हुआ। दियासलाई बनाने के समस्त कार्य मशीनों से होते हैं, लकड़ी का चीरकर शलाका बनाना, लकड़ी से बक्स बनाना, शलाका पर मसाला बैठाना और सुखाना, बक्स पर मसाला बैठाना और लेबल चिपकाना, बक्सों में शलाकाएँ भरना इत्यादि समस्त कार्य मशीनों से होते हैं। एक घंटे में ये सारे काम संपन्न होकर लगभग 3.000 बक्स शलाकाओं से भर कर मशीन से निकल आते हैं।

दियासलाई की तीली

शलाका बनाने के लिए चीड़ का काठ प्रयुक्त होता था। पर अब ऐसा कोई भी काठ प्रयुक्त हो सकता है जिससे शलाका जल्द और अच्छी बन सकती हो और जिसकी शलाका जल्दी टूटे नहीं।

शलाका को ऐमोनियम फॉस्फेट अम्ल के विलयनों में डुबाकर इससे जलाने पर शलाका से विभा नहीं उत्पन्न होती। फिर उसके सिरे के पिघले पैराफिन मोम में डुबाते हैं। यह मोम ज्वालावाहक का काम करता है। अब मोम लगे सिरे पर फॉस्फोरस सैस्क्किसल्फाइड या टेट्राफॉस्फोरस ट्राइसल्फाइड, पोटासियम क्लोरेट, गोंद, काचचूर्ण और रंग के मिश्रण बैठाकर सुखा दिए जाते हैं। वहाँ से शलाका एक परिभ्रामी द्रोणी में जाकर बक्स में भर दी जाती है। बक्स पर काग़ज़ या लेबल चिपका दिए जाते हैं और पार्श्व तल पर रगड़ने वाला मसाला बैठाया जाता है। मसले में लाल या अक्रिस्टली फॉस्फोरस, ऐंटिमनी सल्फाइड, काच का चूरा ,[1] गोंद और रंग लगा रहता है।

दियासलाई के कारखाने

दियासलाई का निर्माण भारत में 1895 ई. से आरंभ हुआ। पहला कारख़ाना अहमदाबाद में और फिर 1909 ई. में कलकत्ता में खुला था। लगभग 200 छोटे बड़े कारखाने काम कर रहे हैं। 1921 ई. तक शलाका और बक्स की लकड़ियाँ प्रयुक्त होने लगीं। स्वीडन की एक मैच मैन्युफैक्चरिंग कंपनी ने भारत में दियासलाई निर्माण का एक कारख़ाना खोला। यह कंपनी 'वेस्टर्न इंडिया मैच कंपनी' के नाम से कार्य कर रही है। इसके अधिकांश शेयरधारी अब भारतीय हैं। 1826 ई. में भारत सरकार ने दियासलाई के कारखानों को संरक्षण दिया, पर साथ ही उत्पादन शुल्क भी लगा दिया है। 40, 60 और 80 शलाकाओं वाले बक्सों के प्रति गुरुस बक्स पर क्रमश: एक, डेढ़ और दो रुपए उत्पादन शुल्क लगता है। फिर भारत सरकार ने दियासलाई का मूल्य भी निर्धारित कर दिया ताकि उसका मूल्य बाज़ारों में न बढ़े और उसकी चोर बाज़ारी न हो। भारत में केवल पाँच ही कारखाने ऐसे हैं जिनका समस्त कार्य मशीनों से होता है। शेष कारखानें या तो आधे मशीनवाले हैं अथवा उनमें केवल हाथों से काम होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

मूल पाठ स्रोत: दियासलाई (हिन्दी) (पी.एच.पी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 4 मई, 2012।

  1. और कभी-कभी लोहे के सल्फाइड

बाहरी कड़ियाँ

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