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'''1298 ई. में अलाउद्दीन ने''' उलूग ख़ाँ एवं नुसरत ख़ाँ को गुजरात विजय के लिए भेजा। [[अहमदाबाद]] के निकट ‘बघेल राजा कर्ण’ (राजकरन) और अलाउद्दीन की सेना में संघर्ष हुआ। राजा कर्ण ने पराजित होकर अपनी पुत्री ‘देवल देवी’ के साथ भाग कर [[देवगिरि]] के शासक रामचन्द्र देव के यहाँ शरण ली। अलाउद्दीन ख़िलजी कर्ण की सम्पत्ति एवं उसकी पत्नी कमला देवी को साथ लेकर वापस [[दिल्ली]] आ गया। कालान्तर में अलाउद्दीन ख़िलजी ने कमला देवी से विवाह कर उसे अपनी सबसे प्रिय रानी बनाया। यहीं पर नुसरत ख़ाँ ने [[हिन्दू]] हिजड़े [[मलिक काफ़ूर]] को एक हज़ार दीनार में ख़रीदा। युद्ध में विजय के पश्चात् सैनिकों ने [[सूरत]], [[सोमनाथ]] और कैम्बे तक आक्रमण किया।
 
'''1298 ई. में अलाउद्दीन ने''' उलूग ख़ाँ एवं नुसरत ख़ाँ को गुजरात विजय के लिए भेजा। [[अहमदाबाद]] के निकट ‘बघेल राजा कर्ण’ (राजकरन) और अलाउद्दीन की सेना में संघर्ष हुआ। राजा कर्ण ने पराजित होकर अपनी पुत्री ‘देवल देवी’ के साथ भाग कर [[देवगिरि]] के शासक रामचन्द्र देव के यहाँ शरण ली। अलाउद्दीन ख़िलजी कर्ण की सम्पत्ति एवं उसकी पत्नी कमला देवी को साथ लेकर वापस [[दिल्ली]] आ गया। कालान्तर में अलाउद्दीन ख़िलजी ने कमला देवी से विवाह कर उसे अपनी सबसे प्रिय रानी बनाया। यहीं पर नुसरत ख़ाँ ने [[हिन्दू]] हिजड़े [[मलिक काफ़ूर]] को एक हज़ार दीनार में ख़रीदा। युद्ध में विजय के पश्चात् सैनिकों ने [[सूरत]], [[सोमनाथ]] और कैम्बे तक आक्रमण किया।
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'''अलाउद्दीन ख़िलजी की सेना के''' कुछ घोड़े चुराने के कारण सुल्तान  ख़िलजी ने [[जैसलमेर]] के शासक दूदा एवं उसके सहयोगी तिलक सिंह को 1299 ई. में पराजित किया और जेसलमेर की विजय की।
 
'''अलाउद्दीन ख़िलजी की सेना के''' कुछ घोड़े चुराने के कारण सुल्तान  ख़िलजी ने [[जैसलमेर]] के शासक दूदा एवं उसके सहयोगी तिलक सिंह को 1299 ई. में पराजित किया और जेसलमेर की विजय की।
 
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'''चित्तौड़ को पुनः स्वतंत्र कराने का''' प्रयत्न राजपूतों द्वारा जारी था। इसी बीच अलाउद्दीन ने खिज्र ख़ाँ को वापस दिल्ली बुलाकर चित्तौड़ दुर्ग की जिम्मेदारी राजपूत सरदार मालदेव को सौंप दी। अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात् गुहिलौत राजवंश के हम्मीरदेव ने मालदेव पर आक्रमण कर 1321 ई. में चित्तौड़ सहित पूरे मेवाड़ को आज़ाद करवा लिया। इस तरह अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद चित्तौड़ एक बार फिर पूर्ण स्वतन्त्र हो गया।
 
'''चित्तौड़ को पुनः स्वतंत्र कराने का''' प्रयत्न राजपूतों द्वारा जारी था। इसी बीच अलाउद्दीन ने खिज्र ख़ाँ को वापस दिल्ली बुलाकर चित्तौड़ दुर्ग की जिम्मेदारी राजपूत सरदार मालदेव को सौंप दी। अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात् गुहिलौत राजवंश के हम्मीरदेव ने मालदेव पर आक्रमण कर 1321 ई. में चित्तौड़ सहित पूरे मेवाड़ को आज़ाद करवा लिया। इस तरह अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद चित्तौड़ एक बार फिर पूर्ण स्वतन्त्र हो गया।
 
====मालवा विजय====
 
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[[मालवा]] पर शासन करने वाला महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द (कोका प्रधान) बहादुर योद्धा थे। 1305 ई. में अलाउद्दीन ने मुल्तान के सूबेदार आईन-उल-मुल्क के नेतृत्व में एक सेना को मालवा पर अधिकार करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों के संघर्ष में महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द मारा गया। नवम्बर, 1305 में क़िले पर अधिकार के साथ ही [[उज्जैन]], धारानगरी, चंदेरी आदि को जीत कर मालवा समेत [[दिल्ली सल्तनत]] में मिला लिया गया। 1308 ई. में अलाउद्दीन ने सिवाना पर अधिकार करने के लिए आक्रमण किया। वहाँ के [[परमार वंश|परमार]] [[राजपूत]] शासक शीतलदेव ने कड़ा संघर्ष किया, परन्तु अन्ततः वह मारा गया। कमालुद्दीन गुर्ग को वहाँ का शासक नियुक्त किया गया।
 
[[मालवा]] पर शासन करने वाला महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द (कोका प्रधान) बहादुर योद्धा थे। 1305 ई. में अलाउद्दीन ने मुल्तान के सूबेदार आईन-उल-मुल्क के नेतृत्व में एक सेना को मालवा पर अधिकार करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों के संघर्ष में महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द मारा गया। नवम्बर, 1305 में क़िले पर अधिकार के साथ ही [[उज्जैन]], धारानगरी, चंदेरी आदि को जीत कर मालवा समेत [[दिल्ली सल्तनत]] में मिला लिया गया। 1308 ई. में अलाउद्दीन ने सिवाना पर अधिकार करने के लिए आक्रमण किया। वहाँ के [[परमार वंश|परमार]] [[राजपूत]] शासक शीतलदेव ने कड़ा संघर्ष किया, परन्तु अन्ततः वह मारा गया। कमालुद्दीन गुर्ग को वहाँ का शासक नियुक्त किया गया।
 
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'''अलाउद्दीन द्वारा दक्षिण भारत के''' राज्यों को जीतने के उद्देश्य के पीछे धन की चाह एवं विजय की लालसा थी। वह इन राज्यों को अपने अधीन कर वार्षिक कर वसूल करना चाहता था। दक्षिण भारत की विजय का मुख्य श्रेय ‘[[मलिक काफ़ूर]]’ को ही जाता है। अलाउद्दीन ख़िलजी के शासन काल में दक्षिण में सर्वप्रथम 1303 ई. में तेलंगाना पर आक्रमण किया गया। तेलंगाना के शासक प्रताप रूद्रदेव द्वितीय ने अपनी एक सोने की मूर्ति बनवाकर और उसके गले में सोने की जंजीर डाल कर आत्मसमर्पण हेतु मलिक काफ़ूर के पास भेजा था। इसी अवसर पर प्रताप रुद्रदेव ने मलिक काफूर को संसार प्रसिद्ध [[कोहिनूर हीरा]] दिया था।
 
'''अलाउद्दीन द्वारा दक्षिण भारत के''' राज्यों को जीतने के उद्देश्य के पीछे धन की चाह एवं विजय की लालसा थी। वह इन राज्यों को अपने अधीन कर वार्षिक कर वसूल करना चाहता था। दक्षिण भारत की विजय का मुख्य श्रेय ‘[[मलिक काफ़ूर]]’ को ही जाता है। अलाउद्दीन ख़िलजी के शासन काल में दक्षिण में सर्वप्रथम 1303 ई. में तेलंगाना पर आक्रमण किया गया। तेलंगाना के शासक प्रताप रूद्रदेव द्वितीय ने अपनी एक सोने की मूर्ति बनवाकर और उसके गले में सोने की जंजीर डाल कर आत्मसमर्पण हेतु मलिक काफ़ूर के पास भेजा था। इसी अवसर पर प्रताप रुद्रदेव ने मलिक काफूर को संसार प्रसिद्ध [[कोहिनूर हीरा]] दिया था।
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====देवगिरि====
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{{मुख्य|देवगिरि}}
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'''शासक बनने के बाद अलाउद्दीन द्वारा''' 1296 ई. में [[देवगिरि]] के विरुद्ध किये गये अभियान की सफलता पर, वहाँ के शासक रामचन्द्र देव ने प्रति वर्ष एलिचपुर की आय भेजने का वादा किया था, पर रामचन्द्र देव के पुत्र शंकर देव (सिंहन देव) के हस्तक्षेप से वार्षिक कर का भुगतान रोक दिया गया। अतः नाइब [[मलिक काफ़ूर]] के नेतृत्व मे एक सेना को देवगिरि पर धावा बोलने के लिए भेजा गया। रास्ते में राजा कर्ण को युद्ध में परास्त कर काफ़ूर ने उसकी पुत्री देवल देवी, जो कमला देवी एवं कर्ण की पुत्री थी, को [[दिल्ली]] भेज दिया, जहाँ पर उसका विवाह खिज्र ख़ाँ से कर दिया गया। रास्ते भर लूट पाट करता हुआ काफ़ूर देवगिरि पहुँचा और पहुँचते ही उसने देवगिरि पर आक्रमण कर दिया। भयानक लूट-पाट के बाद रामचन्द्र देव ने आत्मसमर्पण कर दिया। काफ़ूर अपार धन-सम्पत्ति, ढेर सारे [[हाथी]] एवं राजा रामचन्द्र देव के साथ वापस दिल्ली आया। रामचन्द्र के सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत होने पर सुल्तान ने उसके साथ उदारता का व्यवहार करते हुए ‘राय रायान’ की उपाधि प्रदान की। उसे सुल्तान ने [[गुजरात]] की नवसारी जागीर एवं एक लाख स्वर्ण टके देकर वापस भेज दिया। कालान्तर में राजा रामचन्द्र देव अलाउद्दीन का मित्र बन गया। जब मलिक काफ़ूर द्वारसमुद्र विजय के लिए जा रहा था, तो रामचन्द्र देव ने उसकी भरपूर सहायता की थी।
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====तेलंगाना====
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'''तेलंगाना में [[काकतीय वंश]] के राजा राज्य करते थे। तत्कालीन तेलंगाना का शासक प्रताप रुद्रदेव था, जिसकी राजधानी [[वारंगल आन्ध्र प्रदेश|वारंगल]] थी। नवम्बर, 1309 में मलिक काफ़ूर तेलंगाना के लिए रवाना हुआ। रास्ते में रामचन्द्र देव ने काफ़ूर की सहायता की। काफ़ूर ने हीरों की खानों के ज़िले असीरगढ़ (मेरागढ़) के मार्ग से तेलंगाना में प्रवेश किया। 1310 ई. में काफ़ूर अपनी सेना के साथ वारंगल पहुँचा। प्रताप रुद्रदेव ने अपनी सोने की मूर्ति बनवाकर गले में एक सोने की जंजीर डालकर आत्मसमर्पण स्वरूप काफ़ूर के पास भेजा, साथ ही 100 [[हाथी]], 700 घोड़े, अपार धन राशि एवं वार्षिक कर देने के वायदे के साथ अलाउद्दीन ख़िलजी की अधीनता स्वीकार कर ली।
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====होयसल====
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{{मुख्य|होयसल वंश}}
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'''होयसल का शासक''' वीर बल्लाल तृतीय था। इसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी। 1310 ई. में [[मलिक काफ़ूर]] ने होयसल के लिए प्रस्थान किया। इस प्रकार 1311 ई. में साधारण युद्ध के पश्चात् बल्लाल देव ने आत्मसमर्पण कर अलाउद्दीन की अधीनता ग्रहण कर ली। उसने माबर के अभियान में काफ़ूर की सहायता भी की। सुल्तान अलाउद्दीन ने बल्लाल देव को ‘ख़िलअत’, ‘एक मुकट’, ‘छत्र’ एवं दस लाख टके की थैली भेंट की।
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====पाण्ड्य====
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{{मुख्य|पाण्ड्य साम्राज्य}}
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'''पाण्ड्य को माबर (मालाबार)''' के नाम से भी जाना जाता था। यहाँ के शासक सुन्दर पाण्ड्य एवं वीर पाण्ड्य थे। दोनों में हुए सत्ता संघर्ष में सुन्दर पाण्ड्य पराजित हुआ। सुन्दर पाण्ड्य द्वारा सहायता माँगने पर काफ़ूर ने 1311 ई. में पाण्ड्यों के महत्वपूर्ण केन्द्र ‘वीरथूल’ पर आक्रमण कर दिया, पर वीर पाण्ड्य हाथ नहीं आया। काफ़ूर ने बरमतपती में स्थित ‘लिंग महादेव’ के सोने के मंदिर में खूब लूटपाट की। इसके अतिरिक्त ढेर सारे मंदिर उसके द्वारा लूटे एवं तोड़े गये। अमीर ख़ुसरो के अनुसार काफ़ूर ने [[रामेश्वरम]] तक आक्रमण किया, वहाँ के [[हिन्दू]] मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई। 1311 ई. में काफ़ूर विपुल धन सम्पत्ति के साथ [[दिल्ली]] पहुँचा, परन्तु उसे वीर पाण्ड्य को पकड़ने में सफलता प्राप्त नहीं हुई। सम्भवतः धन के दृष्टिकोण से यह काफ़ूर का सर्वाधिक सफल अभियान था।
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====मंगोल आक्रमण====
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{{मुख्य|मंगोल}}
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'''अलाउद्दीन के समय में हुए''' मंगोलों के आक्रमण का उद्देश्य [[भारत]] विजय और प्रतिशोध की भावना थी। 1297-98 ई. में मंगोल सेना ने अपने नेता कादर के नेतृत्व में [[पंजाब]] एवं [[लाहौर]] पर आक्रमण किया। [[जालन्धर]] के निकट इन आक्रमणकारियों को सुल्तान की सेना ने परास्त कर दिया। इस सेना का नेतृत्व जफ़र ख़ाँ एवं उलूग ख़ाँ ने किया था। मंगोलों का दूसरा आक्रमण सलदी के नेतृत्व में 1298 ई. में सेहबान पर हुआ। जफ़र ख़ाँ ने इस आक्रमण को सफलता पूर्वक असफल कर दिया। 1299 ई. में कुतलुग ख्वाजा के नेतृत्व में [[मंगोल]] सेना के आक्रमण को जफ़र ख़ाँ ने असफल कर दिया। इसी युद्ध के दौरान जफ़र ख़ाँ मारा गया, क्योंकि अलाउद्दीन एवं उलूग ख़ाँ वाली सेना से उसे कोई सहायता नहीं मिली। 1303 ई. में मंगोल सेना का चौथा आक्रमण तार्गी के नेतृत्व में हुआ। लगभग 2 माह तक सीरी के क़िले को घेरे रहने के बाद भी उसे सफलता न मिलने पर [[दिल्ली]] के समीप के क्षेत्रों में लूटपाट कर तार्गी वापस चला गया। 1305 ई. में ‘अलीबेग’, ‘तार्ताक’ एवं ‘तार्गी’ के नेतृत्व में मंगोलों ने अमरोहा पर आक्रमण किया। परंतु मलिक काफ़ूर एवं गाजी मलिक ने मंगोलों को बुरी तरह पराजित किया। 1306 ई. में मंगोल सेना का नेतृत्व करने वाला इकबालमन्द, गाजी मलिक ([[गयासुद्दीन तुगलक]]) द्वारा [[रावी नदी]] के किनारे परास्त किया गया। गाजी मलिक तुगलक को अलाउद्दीन ने अपना सीमा रक्षक नियुक्त किया। इस प्रकार अलाउद्दीन ने अपने शासन काल में मंगोलों के सबसे अधिक एवं सबसे भयानक आक्रमण का सामना करते हुए सफलता प्राप्त की। [[मंगोल]] आक्रमण से सुरक्षा के लिए उसने 1304 ई. में सीरी को अपनी राजधानी बनाया तथा क़िलेबन्दी की।
  
  
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[[Category:ख़िलजी वंश]]
 
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08:45, 23 फ़रवरी 2011 का अवतरण

अलाउद्दीन ख़िलजी (1296-1316 ई.) तक दिल्ली का सुल्तान था। वह ख़िलजी वंश के संस्थापक जलालुद्दीन ख़िलजी का भतीजा और दामाद था। सुल्तान बनने के पहले उसे इलाहाबाद के निकट कड़ा की जागीर दी गयी थी। अलाउद्दीन ख़िलजी का बचपन का नाम अली 'गुरशास्प' था। जलालुद्दीन ख़िलजी के तख्त पर बैठने के बाद उसे 'अमीर-ए-तुजुक' का पद मिला। मलिक छज्जू के विद्रोह को दबाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण जलालुद्दीन ने उसे कड़ा-मनिकपुर की सूबेदारी सौंप दी। भिलसा, चंदेरी एवं देवगिरि के सफल अभियानों से प्राप्त अपार धन ने उसकी स्थिति और मजबूत कर दी। इस प्रकार उत्कर्ष पर पहुँचे अलाउद्दीन ख़िलजी ने अपने चाचा जलालुद्दीन की हत्या 22 अक्टूबर, 1296 को कर दी और दिल्ली में स्थित बलबन के लाल महल में अपना राज्याभिषेक सम्पन्न करवाया।

शासन व्यवस्था

राज्याभिषेक के बाद उत्पन्न कठिनाईयों का सफलता पूर्वक सामना करते हुए अलाउद्दीन ने कठोर शासन व्यवस्था के अन्तर्गत अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करना प्रारम्भ किया। अपनी प्रारम्भिक सफलताओं से प्रोत्साहित होकर अलाउद्दीन ने 'सिकन्दर द्वितीय' (सानी) की उपाधि ग्रहण कर इसका उल्लेख अपने सिक्कों पर करवाया। उसने विश्व-विजय एवं एक नवीन धर्म को स्थापित करने के अपने विचार को अपने मित्र एवं दिल्ली के कोतवाल 'अलाउल मुल्क' के समझाने पर त्याग दिया। यद्यपि अलाउद्दीन ने ख़लीफ़ा की सत्ता को मान्यता प्रदान करते हुए ‘यामिन-उल-ख़िलाफ़त-नासिरी-अमीर-उल-मोमिनीन’ की उपाधि ग्रहण की, किन्तु उसने ख़लीफ़ा से अपने पद की स्वीकृत लेनी आवश्यक नहीं समझी। उलेमा वर्ग को भी अपने शासन कार्य में हस्तक्षेप नहीं करने दिया। उसने शासन में इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों को प्रमुखता न देकर राज्यहित को सर्वोपरि माना। अलाउद्दीन ख़िलजी के समय निरंकुशता अपने चरम सीमा पर पहुँच गयी। अलाउद्दीन ख़िलजी ने शासन में न तो इस्लाम के सिद्धान्तों का सहारा लिया और न ही उलेमा वर्ग की सलाह ली।

विद्रोहों का दमन

अलाउद्दीन ख़िलजी के राज्य में कुछ विद्रोह हुए, जिनमें 1299 ई. में गुजरात के सफल अभियान में प्राप्त धन के बंटवारे को लेकर ‘नवी मुसलमानों’ द्वारा किये गये विद्रोह का दमन नुसरत ख़ाँ ने किया। दूसरा विद्रोह अलाउद्दीन के भतीजे अकत ख़ाँ द्वारा किया गया। अपने मंगोल मुसलमानों के सहयोग से उसने अलाउद्दीन पर प्राण घातक हमला किया, जिसके बदलें में उसे पकड़ कर मार दिया गया। तीसरा विद्रोह अलाउद्दीन की बहन के लड़के मलिक उमर एवं मंगू ख़ाँ ने किया, पर इन दोनों को हराकर उनकी हत्या कर दी गई। चौथा विद्रोह दिल्ली के हाजी मौला द्वारा किया गया, जिसका दमन सरकार हमीद्दीन ने किया। इस प्रकार इन सभी विद्रोहों को सफलता पूर्वक दबा दिया गया। अलाउद्दीन ने तुर्क अमीरों द्वारा किये जाने वाले विद्रोह के कारणों का अध्ययन कर उन कारणों को समाप्त करने के लिए 4 अध्यादेश जारी किये। प्रथम अध्यादेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने दान, उपहार एवं पेंशन के रूप मे अमीरों को दी गयी भूमि को जब्त कर उस पर अधिकाधिक कर लगा दिया, जिससे उनके पास धन का अभाव हो गया। द्वितीय अध्याधेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने गुप्तचर विभाग को संगठित कर ‘बरीद’ (गुप्तचर अधिकारी) एवं ‘मुनहिन’ (गुप्तचर) की नियुक्ति की। तृतीय अध्याधेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ख़िलजी ने मद्यनिषेद, भाँग खाने एवं जुआ खेलने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया। चौथे अध्यादेश के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने अमीरों के आपस में मेल-जोल, सार्वजनिक समारोहों एवं वैवाहिक सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। सुल्तान द्वारा लाये गये ये चारों अध्यादेश पूर्णतः सफल रहे। अलाउद्दीन ने खूतों, मुकदमों आदि हिन्दू लगान अधिकारियों के विशेषाधिकार को समाप्त कर दिया।

साम्राज्य विस्तार

अलाउद्दीन ख़िलजी साम्राज्यवादी प्रवृति का व्यक्ति था। उसने उत्तर भारत के राज्यों को जीत कर उन पर प्रत्यक्ष शासन किया। दक्षिण भारत के राज्यों को अलाउद्दीन ने अपने अधीन कर उनसे वार्षिक कर वसूला।

गुजरात विजय

1298 ई. में अलाउद्दीन ने उलूग ख़ाँ एवं नुसरत ख़ाँ को गुजरात विजय के लिए भेजा। अहमदाबाद के निकट ‘बघेल राजा कर्ण’ (राजकरन) और अलाउद्दीन की सेना में संघर्ष हुआ। राजा कर्ण ने पराजित होकर अपनी पुत्री ‘देवल देवी’ के साथ भाग कर देवगिरि के शासक रामचन्द्र देव के यहाँ शरण ली। अलाउद्दीन ख़िलजी कर्ण की सम्पत्ति एवं उसकी पत्नी कमला देवी को साथ लेकर वापस दिल्ली आ गया। कालान्तर में अलाउद्दीन ख़िलजी ने कमला देवी से विवाह कर उसे अपनी सबसे प्रिय रानी बनाया। यहीं पर नुसरत ख़ाँ ने हिन्दू हिजड़े मलिक काफ़ूर को एक हज़ार दीनार में ख़रीदा। युद्ध में विजय के पश्चात् सैनिकों ने सूरत, सोमनाथ और कैम्बे तक आक्रमण किया।

जैसलमेर विजय

अलाउद्दीन ख़िलजी की सेना के कुछ घोड़े चुराने के कारण सुल्तान ख़िलजी ने जैसलमेर के शासक दूदा एवं उसके सहयोगी तिलक सिंह को 1299 ई. में पराजित किया और जेसलमेर की विजय की।

रणथम्भौर विजय

रणथम्भौर का शासक हम्मीरदेव अपनी योग्यता एवं साहस के लिए प्रसिद्ध था। अलाउद्दीन के लिए रणथम्भौर को जीतना इसलिए भी आवश्यक था, क्योंकि हम्मीरदेव ने विद्रोही मंगोल नेता मुहम्मद शाह एवं केहब को अपने यहाँ शरण दे रखी थी, इसलिए भी अलाउद्दीन रणथम्भौर को जीतना चाहता था। अतः जुलाई, 1301 ई. में अलाउद्दीन ने रणथम्भौर के क़िले को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। हम्मीरदेव वीरगति को प्राप्त हुआ। अलाउद्दीन ने रनमल और उसके साथियों का वध करवा दिया, जो हम्मीरदेव से विश्वासघात करके उससे आ मिले थे। ‘तारीख़-ए-अलाई’ एवं ‘हम्मीर महाकाव्य’ में हम्मीरदेव उसके परिवार के लोगों का जौहर द्वारा मृत्यु प्राप्त होने का वर्णन है। रणथम्भौर युद्ध के दौरान ही नुसरत ख़ाँ की मृत्यु हुई।

चित्तौड़ आक्रमण एवं मेवाड़ विजय

मेवाड़ का शासक राणा रतन सिंह था, जिसकी राजधानी चित्तौड़ थी। चित्तौड़ का क़िला सामरिक दृष्टिकोण से बहुत सुरक्षित स्थान पर बना हुआ था। इसलिए यह क़िला अलाउद्दीन की निगाह में चढ़ा हुआ था। कुछ इतिहासकारों ने अमीर खुसरव के रानी शैबा और सुलेमान के प्रेम प्रसंग के उल्लेख आधार पर और 'पद्मावत की कथा' के आधार पर चित्तौड़ पर अलाउद्दीन के आक्रमण का कारण रानी पद्मिनी के अनुपन सौन्दर्य के प्रति उसके आकर्षण को ठहराया है। अन्ततः 28 जनवरी, 1303 ई. को सुल्तान चित्तौड़ के क़िले पर अधिकार करने में सफल हुआ। राणा रतन सिंह युद्ध में शहीद हुआ और उसकी पत्नी रानी पद्मिनी ने अन्य स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया। क़िले पर अधिकार के बाद सुल्तान ने लगभग 30,000 राजपूत वीरों का कत्ल करवा दिया। उसने चित्तौड़ का नाम खिज्र ख़ाँ के नाम पर 'खिज्राबाद' रखा और खिज्र ख़ाँ को सौंप कर दिल्ली वापस आ गया।

चित्तौड़ को पुनः स्वतंत्र कराने का प्रयत्न राजपूतों द्वारा जारी था। इसी बीच अलाउद्दीन ने खिज्र ख़ाँ को वापस दिल्ली बुलाकर चित्तौड़ दुर्ग की जिम्मेदारी राजपूत सरदार मालदेव को सौंप दी। अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात् गुहिलौत राजवंश के हम्मीरदेव ने मालदेव पर आक्रमण कर 1321 ई. में चित्तौड़ सहित पूरे मेवाड़ को आज़ाद करवा लिया। इस तरह अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद चित्तौड़ एक बार फिर पूर्ण स्वतन्त्र हो गया।

मालवा विजय

मालवा पर शासन करने वाला महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द (कोका प्रधान) बहादुर योद्धा थे। 1305 ई. में अलाउद्दीन ने मुल्तान के सूबेदार आईन-उल-मुल्क के नेतृत्व में एक सेना को मालवा पर अधिकार करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों के संघर्ष में महलकदेव एवं उसका सेनापति हरनन्द मारा गया। नवम्बर, 1305 में क़िले पर अधिकार के साथ ही उज्जैन, धारानगरी, चंदेरी आदि को जीत कर मालवा समेत दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। 1308 ई. में अलाउद्दीन ने सिवाना पर अधिकार करने के लिए आक्रमण किया। वहाँ के परमार राजपूत शासक शीतलदेव ने कड़ा संघर्ष किया, परन्तु अन्ततः वह मारा गया। कमालुद्दीन गुर्ग को वहाँ का शासक नियुक्त किया गया।

जालौर

जालौर के शासक कान्हणदेव ने 1304 ई. में अलाउद्दीन की अधीनता को स्वीकार कर लिया था, पर धीरे-धीरे उसने अपने को पुनः स्वतन्त्र कर लिया। 1305 ई. में कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में सुल्तान की सेना ने कान्हणदेव को युद्ध में पराजित कर उसकी हत्या कर दी। इस प्रकार जालौर पर अधिकार के साथ ही अलाउद्दीन की राजस्थान विजय का कठिन कार्य पूरा हुआ। 1311 ई. तक उत्तर भारत में सिर्फ नेपाल, कश्मीर एवं असम ही ऐसे भाग बचे थे, जिन पर अलाउद्दीन अधिकार नहीं कर सका था। उत्तर भारत की विजय के बाद अलाउद्दीन ने दक्षिण भारत की ओर अपना रुख किया।

अलाउद्दीन की दक्षिण विजय

अलाउद्दीन ख़िलजी के समकालीन दक्षिण भारत में सिर्फ़ तीन महत्वपूर्ण शक्तियाँ थीं-

  1. देवगिरि के यादव
  2. दक्षिण-पूर्व तेलंगाना के काकतीय और
  3. द्वारसमुद्र के होयसल

अलाउद्दीन द्वारा दक्षिण भारत के राज्यों को जीतने के उद्देश्य के पीछे धन की चाह एवं विजय की लालसा थी। वह इन राज्यों को अपने अधीन कर वार्षिक कर वसूल करना चाहता था। दक्षिण भारत की विजय का मुख्य श्रेय ‘मलिक काफ़ूर’ को ही जाता है। अलाउद्दीन ख़िलजी के शासन काल में दक्षिण में सर्वप्रथम 1303 ई. में तेलंगाना पर आक्रमण किया गया। तेलंगाना के शासक प्रताप रूद्रदेव द्वितीय ने अपनी एक सोने की मूर्ति बनवाकर और उसके गले में सोने की जंजीर डाल कर आत्मसमर्पण हेतु मलिक काफ़ूर के पास भेजा था। इसी अवसर पर प्रताप रुद्रदेव ने मलिक काफूर को संसार प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा दिया था।

देवगिरि

शासक बनने के बाद अलाउद्दीन द्वारा 1296 ई. में देवगिरि के विरुद्ध किये गये अभियान की सफलता पर, वहाँ के शासक रामचन्द्र देव ने प्रति वर्ष एलिचपुर की आय भेजने का वादा किया था, पर रामचन्द्र देव के पुत्र शंकर देव (सिंहन देव) के हस्तक्षेप से वार्षिक कर का भुगतान रोक दिया गया। अतः नाइब मलिक काफ़ूर के नेतृत्व मे एक सेना को देवगिरि पर धावा बोलने के लिए भेजा गया। रास्ते में राजा कर्ण को युद्ध में परास्त कर काफ़ूर ने उसकी पुत्री देवल देवी, जो कमला देवी एवं कर्ण की पुत्री थी, को दिल्ली भेज दिया, जहाँ पर उसका विवाह खिज्र ख़ाँ से कर दिया गया। रास्ते भर लूट पाट करता हुआ काफ़ूर देवगिरि पहुँचा और पहुँचते ही उसने देवगिरि पर आक्रमण कर दिया। भयानक लूट-पाट के बाद रामचन्द्र देव ने आत्मसमर्पण कर दिया। काफ़ूर अपार धन-सम्पत्ति, ढेर सारे हाथी एवं राजा रामचन्द्र देव के साथ वापस दिल्ली आया। रामचन्द्र के सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत होने पर सुल्तान ने उसके साथ उदारता का व्यवहार करते हुए ‘राय रायान’ की उपाधि प्रदान की। उसे सुल्तान ने गुजरात की नवसारी जागीर एवं एक लाख स्वर्ण टके देकर वापस भेज दिया। कालान्तर में राजा रामचन्द्र देव अलाउद्दीन का मित्र बन गया। जब मलिक काफ़ूर द्वारसमुद्र विजय के लिए जा रहा था, तो रामचन्द्र देव ने उसकी भरपूर सहायता की थी।

तेलंगाना

तेलंगाना में काकतीय वंश के राजा राज्य करते थे। तत्कालीन तेलंगाना का शासक प्रताप रुद्रदेव था, जिसकी राजधानी वारंगल थी। नवम्बर, 1309 में मलिक काफ़ूर तेलंगाना के लिए रवाना हुआ। रास्ते में रामचन्द्र देव ने काफ़ूर की सहायता की। काफ़ूर ने हीरों की खानों के ज़िले असीरगढ़ (मेरागढ़) के मार्ग से तेलंगाना में प्रवेश किया। 1310 ई. में काफ़ूर अपनी सेना के साथ वारंगल पहुँचा। प्रताप रुद्रदेव ने अपनी सोने की मूर्ति बनवाकर गले में एक सोने की जंजीर डालकर आत्मसमर्पण स्वरूप काफ़ूर के पास भेजा, साथ ही 100 हाथी, 700 घोड़े, अपार धन राशि एवं वार्षिक कर देने के वायदे के साथ अलाउद्दीन ख़िलजी की अधीनता स्वीकार कर ली।

होयसल

होयसल का शासक वीर बल्लाल तृतीय था। इसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी। 1310 ई. में मलिक काफ़ूर ने होयसल के लिए प्रस्थान किया। इस प्रकार 1311 ई. में साधारण युद्ध के पश्चात् बल्लाल देव ने आत्मसमर्पण कर अलाउद्दीन की अधीनता ग्रहण कर ली। उसने माबर के अभियान में काफ़ूर की सहायता भी की। सुल्तान अलाउद्दीन ने बल्लाल देव को ‘ख़िलअत’, ‘एक मुकट’, ‘छत्र’ एवं दस लाख टके की थैली भेंट की।

पाण्ड्य

पाण्ड्य को माबर (मालाबार) के नाम से भी जाना जाता था। यहाँ के शासक सुन्दर पाण्ड्य एवं वीर पाण्ड्य थे। दोनों में हुए सत्ता संघर्ष में सुन्दर पाण्ड्य पराजित हुआ। सुन्दर पाण्ड्य द्वारा सहायता माँगने पर काफ़ूर ने 1311 ई. में पाण्ड्यों के महत्वपूर्ण केन्द्र ‘वीरथूल’ पर आक्रमण कर दिया, पर वीर पाण्ड्य हाथ नहीं आया। काफ़ूर ने बरमतपती में स्थित ‘लिंग महादेव’ के सोने के मंदिर में खूब लूटपाट की। इसके अतिरिक्त ढेर सारे मंदिर उसके द्वारा लूटे एवं तोड़े गये। अमीर ख़ुसरो के अनुसार काफ़ूर ने रामेश्वरम तक आक्रमण किया, वहाँ के हिन्दू मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई। 1311 ई. में काफ़ूर विपुल धन सम्पत्ति के साथ दिल्ली पहुँचा, परन्तु उसे वीर पाण्ड्य को पकड़ने में सफलता प्राप्त नहीं हुई। सम्भवतः धन के दृष्टिकोण से यह काफ़ूर का सर्वाधिक सफल अभियान था।

मंगोल आक्रमण

अलाउद्दीन के समय में हुए मंगोलों के आक्रमण का उद्देश्य भारत विजय और प्रतिशोध की भावना थी। 1297-98 ई. में मंगोल सेना ने अपने नेता कादर के नेतृत्व में पंजाब एवं लाहौर पर आक्रमण किया। जालन्धर के निकट इन आक्रमणकारियों को सुल्तान की सेना ने परास्त कर दिया। इस सेना का नेतृत्व जफ़र ख़ाँ एवं उलूग ख़ाँ ने किया था। मंगोलों का दूसरा आक्रमण सलदी के नेतृत्व में 1298 ई. में सेहबान पर हुआ। जफ़र ख़ाँ ने इस आक्रमण को सफलता पूर्वक असफल कर दिया। 1299 ई. में कुतलुग ख्वाजा के नेतृत्व में मंगोल सेना के आक्रमण को जफ़र ख़ाँ ने असफल कर दिया। इसी युद्ध के दौरान जफ़र ख़ाँ मारा गया, क्योंकि अलाउद्दीन एवं उलूग ख़ाँ वाली सेना से उसे कोई सहायता नहीं मिली। 1303 ई. में मंगोल सेना का चौथा आक्रमण तार्गी के नेतृत्व में हुआ। लगभग 2 माह तक सीरी के क़िले को घेरे रहने के बाद भी उसे सफलता न मिलने पर दिल्ली के समीप के क्षेत्रों में लूटपाट कर तार्गी वापस चला गया। 1305 ई. में ‘अलीबेग’, ‘तार्ताक’ एवं ‘तार्गी’ के नेतृत्व में मंगोलों ने अमरोहा पर आक्रमण किया। परंतु मलिक काफ़ूर एवं गाजी मलिक ने मंगोलों को बुरी तरह पराजित किया। 1306 ई. में मंगोल सेना का नेतृत्व करने वाला इकबालमन्द, गाजी मलिक (गयासुद्दीन तुगलक) द्वारा रावी नदी के किनारे परास्त किया गया। गाजी मलिक तुगलक को अलाउद्दीन ने अपना सीमा रक्षक नियुक्त किया। इस प्रकार अलाउद्दीन ने अपने शासन काल में मंगोलों के सबसे अधिक एवं सबसे भयानक आक्रमण का सामना करते हुए सफलता प्राप्त की। मंगोल आक्रमण से सुरक्षा के लिए उसने 1304 ई. में सीरी को अपनी राजधानी बनाया तथा क़िलेबन्दी की।






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