"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 34-43" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
छो (Text replacement - "ह्रदय" to "हृदय")
छो (Text replacement - "स्वरुप" to "स्वरूप")
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः श्लोक 34-43 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः श्लोक 34-43 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
उन स्त्रियों में से एक को आने के समय ही उसके पति ने बलपूर्वक रोक लिया था। इस पर उस ब्राम्हणपत्नी ने भगवान  के वैसे ही स्वरुप का ध्यान किया, जैसा कि बहुत दिनों से सुन रखा था। जब उसका ध्यान जम गया, तब मन-ही-मन भगवान  का आलिंगन करके उसके कर्म के द्वारा बने हुए अपने शरीर को छोड़ दिया—(शुद्धसत्वमय दिव्य शरीर से उसने भगवान  की सन्निधि प्राप्त कर ली) । इधर भगवान  श्रीकृष्ण ने ब्राम्हणियों के लाये हुए उस चार प्रकार के अन्न से पहले ग्वालबालों को भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन किया ।
+
उन स्त्रियों में से एक को आने के समय ही उसके पति ने बलपूर्वक रोक लिया था। इस पर उस ब्राम्हणपत्नी ने भगवान  के वैसे ही स्वरूप का ध्यान किया, जैसा कि बहुत दिनों से सुन रखा था। जब उसका ध्यान जम गया, तब मन-ही-मन भगवान  का आलिंगन करके उसके कर्म के द्वारा बने हुए अपने शरीर को छोड़ दिया—(शुद्धसत्वमय दिव्य शरीर से उसने भगवान  की सन्निधि प्राप्त कर ली) । इधर भगवान  श्रीकृष्ण ने ब्राम्हणियों के लाये हुए उस चार प्रकार के अन्न से पहले ग्वालबालों को भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन किया ।
  
 
परीक्षित्! इस प्रकार लीलामनुष्य भगवान  श्रीकृष्ण मनुष्य की-सी लीला की और अपने सौन्दर्य, माधुर्य, वाणी तथा कर्मों से गौएँ, ग्वालबालों और गोपियों को आनन्दित किया और स्वयं भी उनके अलौकिक प्रेमरस का आस्वादन करके आनन्दित हुए ।
 
परीक्षित्! इस प्रकार लीलामनुष्य भगवान  श्रीकृष्ण मनुष्य की-सी लीला की और अपने सौन्दर्य, माधुर्य, वाणी तथा कर्मों से गौएँ, ग्वालबालों और गोपियों को आनन्दित किया और स्वयं भी उनके अलौकिक प्रेमरस का आस्वादन करके आनन्दित हुए ।

13:19, 29 अक्टूबर 2017 का अवतरण

दशम स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः (23) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्यायः श्लोक 34-43 का हिन्दी अनुवाद

उन स्त्रियों में से एक को आने के समय ही उसके पति ने बलपूर्वक रोक लिया था। इस पर उस ब्राम्हणपत्नी ने भगवान के वैसे ही स्वरूप का ध्यान किया, जैसा कि बहुत दिनों से सुन रखा था। जब उसका ध्यान जम गया, तब मन-ही-मन भगवान का आलिंगन करके उसके कर्म के द्वारा बने हुए अपने शरीर को छोड़ दिया—(शुद्धसत्वमय दिव्य शरीर से उसने भगवान की सन्निधि प्राप्त कर ली) । इधर भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राम्हणियों के लाये हुए उस चार प्रकार के अन्न से पहले ग्वालबालों को भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन किया ।

परीक्षित्! इस प्रकार लीलामनुष्य भगवान श्रीकृष्ण मनुष्य की-सी लीला की और अपने सौन्दर्य, माधुर्य, वाणी तथा कर्मों से गौएँ, ग्वालबालों और गोपियों को आनन्दित किया और स्वयं भी उनके अलौकिक प्रेमरस का आस्वादन करके आनन्दित हुए ।

परीक्षित्! इधर जब ब्राम्हणों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे सोंचने लगे कि जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा का उल्लंघन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है। वे तो मनुष्य की-सी लीला करते हुए भी परमेश्वर ही हैं ।

जब उन्होंने देखा कि हमारी पत्नियों के हृदय तो भगवान के अलौकिक प्रेम है और हमलोक उससे बिलकुल रीते हैं, तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे । वे कहते लगे— हाय! हम भगवान श्रीकृष्ण से विमुख हैं। बड़े ऊँचें कुल में हमारा जन्म हुआ, गायत्री ग्रहण करके हम द्विजाति हुए, वेदाध्ययन करके हमने बड़े-बड़े यज्ञ किये; परन्तु वह सब किस काम का ? धिक्कार है! धिक्कार है! हमारी विद्या व्यर्थ गयी, हमारे व्रत बुरे सिद्ध हुए। हमारी इस बहुज्ञता को धिक्कार है! ऊँचें वंश में जन्म लेना, कर्मकाण्ड में निपुण होना किसी काम न आया। इन्हें बार-बार धिक्कार है । निश्चय ही, भगवान की माया बड़े-बड़े योगियों को भी मोहित कर लेती है। तभी तो हम कहलाते हैं मनुष्यों के गुरु और ब्रम्हाण, परन्तु अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थ के विषय में बिलकुल भूले हुए हैं । कितने आश्चर्य की बात है! देखो तो सही—यद्यपि ये स्त्रियाँ हैं, तथापि जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण में इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है! उसी से इन्होने गृहस्थी की वह बहुत बड़ी फाँसी भी काट डाली, जो मृत्यु के साथ भी नहीं कटती ॥ ४१ ॥ इनके न तो द्विजाति के योग्य यज्ञोपवीत आदि संस्कार हुए हैं और न तो इन्होने गुरुकुल में ही निवास किया है। न इन्होने तपस्या की है और न तो आत्मा के सम्बन्ध में ही कुछ विवेक-विचार किया है। उनकी बात तो दूर रही, इनमें न तो पूरी पवित्रता है और न तो शुभकर्म ही । फिर भी समस्त योगेश्वरों के ईश्वर पुण्यकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में इनका दृढ़ प्रेम है। और हमने अपने संस्कार किये हैं, गुरुकुल में निवास किया है, तपस्या की है, आत्मानुसंधान किया है, पवित्रता का निर्वाह किया है तथा अच्छे-अच्छे कर्म किये हैं; फिर भी भगवान के चरणों में हमारा प्रेम नहीं है ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-