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12:47, 9 अप्रैल 2013 का अवतरण

प्रगतिशील कवि वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का जन्म 18 अगस्त सन् 1968 को छतरपुर (म.प्र.) के ठेठ देहाती आदिवासी बहुल पहाड़ों एवं जंगलों से घिरे छोटे से गांव किशनगढ़ में एक मध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ । अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा से इतिहास में एम. ए. एवं बी. एड. करने के बाद वे लम्बे समय तक छतरपुर शहर के अशासकीय विद्यालयों में अध्यापन कार्य करते रहे साथ ही निःशक्तजनों की शिक्षा, प्रशिक्षण और पुनर्वास के लिए समर्पित एन. जी. ओ. ‘प्रगतिशील विकलांग संसार, छतरपुर के संचालन एवं व्यवस्था में सक्रिय भूमिका निभाते रहे । वर्तमान में ‘अकेला’ जी एक अध्यापक के रूप में शासन को अपनी सेवाएं दे रहे हैं साथ ही निःशक्तजनों की सेवा एवं लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैं ।

‘अकेला’ जी को लेखन की प्रेरणा अपने पिता स्व. श्री पुरूषोत्तम दास जी से मिली । जो भजन-कीर्तन लिखने में काफी रूचि रखते थे यद्यपि उनकी कोई कृति प्रकाशित नहीं हुई । माता श्रीमती कमला देवी भी साहित्यिक-सांस्कृतिक रूचि की हैं। ‘अकेला’ जी ने सन्-1990 से ग़ज़ल-गीत लेखन की यात्रा शुरू की जो अनवरत जारी है । ग़ज़ल संग्रह ‘शेष बची चौथाई रात’ (1999-अयन प्रकाशन, दिल्ली) के प्रकाशन ने ग़ज़ल के क्षेत्र में उन्हें स्थापित किया और राष्ट्रीय ख्याति दिलाई । दूसरे ग़ज़ल-गीत संग्रह [[‘सुब्ह की दस्तक’ (2006-सार्थक प्रकाशन दिल्ली) एवं तीसरे ग़ज़ल संग्रह ‘अंगारों पर शबनम’ (2012-अयन प्रकाशन, दिल्ली)]] ने उनकी साहित्यिक पहचान को और पुख़्तगी देते हुए उन्हें देश के प्रथम पंक्ति के हिन्दी ग़ज़लकारों के बीच खड़ा कर दिया है ।

प्रकाशित कृतियों के अलावा ‘अकेला’ जी की बहुत सी रचनाएं वसुधा, वागर्थ, कथादेश, महकता आँचल, सृजन-पथ, राष्ट्रधर्म, कादम्बिनी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भी समय-समय पर प्रकाशित होकर प्रशंसित होती रही हैं । उन्होंने कवि-सम्मेलनों, मुशायरों, काव्य-गोष्ठियों तथा आकाशवाणी के माध्यम से भी काफी लोकप्रियता हासिल की है । देश की अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा उन्हें पुरस्कृत एवं सम्मानित भी किया गया है ।

अपनी ग़ज़लों के तीखे तेवरों के कारण वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ बुन्देलखण्ड के दुष्यंत कुमार कहे जाते हैं । उनकी ग़ज़लों में जीवन की सच्ची-तपती-सुलगती आग पूरी तेजस्विता के साथ विद्यमान है । वे देश और समाज में व्याप्त दुख-दर्दों, अभावों, असफलताओं, विसंगतियों और छल-छद्मों को अनूठे अंदाज़ में पेश कर अपने पाठकों में विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला भर देते हैं । ‘अकेला‘ जी की ग़ज़लों की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध कवि डॉ. कुंअर बेचैन लिखते हैं-“ ‘अकेला’ जी की ग़ज़लें विविध विषयों पर होने के साथ साथ बहर आदि की दृष्टि से निष्कलंक हैं, उनमें सहज प्रवाह भी है और अमिट प्रभाव भी । ये ग़ज़लें ग़ज़ल की यशस्वी परम्परा में रहकर नए विषयों तथा नए प्रतीकों की खोज करती हैं । इनमें यथार्थ की सच्चाई और कल्पना की ऊँचाई दोनों के दर्शन होते हैं ।” इसी प्रकार ’अकेला’ जी की ग़ज़ल के प्रभाव का उद्घाटन करते हुए इस दौर के शहंशाहे ग़ज़ल डॉ. बशीर बद्र कहते हैं-“अकेला की ग़ज़ल वो लहर है जो ग़ज़ल के समन्दर में नई हलचल पैदा करेगी ।” पद्मश्री डॉ. गोपालदास ‘नीरज’ कहते हैं कि-“ अकेला के शेरों में यह ख़ूबी है कि वे खुद-ब-खुद होठों पर आ जाते हैं । ” चर्चित व्यंग्यकार माणिक वर्मा एवं प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. देवव्रत जोशी ने भी अपनी अपनी टिप्पणियों में ‘अकेला’ को दुष्यत कुमार के बाद को उल्लेखनीय शायर निरूपित किया है। स्पष्ट है कि वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ ने हिन्दी ग़ज़ल को नए विषय, नई सोच, नए प्रतीक और सम्यक शिल्पगत कसावट देकर इस विधा की उल्लेखनीय सेवा की है और इस क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान क़ायम की है । [[:Image:]]

चित्र:वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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वीरेन्द्र खरे 'अकेला' के कुछ चर्चित शेर

 
        1-
        अदावत दिल में रखते हैं मगर यारी दिखाते हैं
        न जाने लोग भी क्या क्या अदाकारी दिखाते है
        2-
        हुआ सवेरा हमें आफ़ताब मिल ही गया
        अँधेरी शब को करारा जवाब मिल ही गया
        3-
        झूठ-मक्कारी तजें नेता जी मुमकिन ही कहाँ
        नाचना, गाना-बजाना कैसे किन्नर छोड़ दे
        4-
        किस क़दर है सुस्त सरकारी मुलाज़िम
        रोज़ ही इतवार पाना चाहता है
        5-
        सैकड़ों बार पार की है नदी
        वा रे काग़ज़ की नाव की बातें

        दो क़दम काफिला चला भी नहीं
        लो अभी से पड़ाव की बातें
        6-.

        फिर पुरानी राह पर आना पडे़गा
        उसको हिन्दी में ही समझाना पड़ेगा

        गर्म है पॉकिट तुम्हारी बच के जाना
        लुट न जाना राह में थाना पड़ेगा
        7-
        भले चौके न हों दो एक रन तो आएँ बल्ले से
        कई ओवर गँवा कर भी खड़े हो तुम निठल्ले से

        जो क़ानूनन सही हैं उनको करवाना पड़ा मुश्किल
        कि जिन पर रोक है वो काम होते हैं धड़ल्ले से
        8-
        पहले तेरी जेब टटोली जाएगी
        फिर यारी की भाषा बोली जाएगी

        नैतिकता की मैली होती यह चादर
        दौलत के साबुन से धो जी जाएगी
        9-
        सोच की सीमाओं के बाहर मिले
        प्रश्न थे कुछ और कुछ उत्तर मिले

        हमको ऐ जनतंत्र तेरे नाम पर
        उस्तरे थामे हुए बंदर मिले
        10-
        प्यास दो ही घूंट में बुझ जाएगी
        सारा दरिया है मिरे किस काम का
        11-
               
        फिर ज़माने में कहीं रूसवा मेरी चाहत न हो
        करके वादा भूलने की तुझको भी आदत न हो
        12-
        माना वो क़ातिल है पर बेदाग़ बरी हो जाएगा
        पैसा हो तो सब सम्भव है अपने देश महान में
        जनता की तकलीफ़ें सुनने का ये ढंग निराला है
        देखो बैठे हैं साहब जी रूई ठूंसे कान में
        13-
        एक रूपे की तीन अठन्नी मांगेगी
        इस दुनिया से लेना देना कम रखना
        14-
        दो क़दम चलते हैं घंटों हांफते हैं
        देखिये साहिब हमारे रहबरों को
        15-
        पर्चे ही लीक हों तो कुछ काम बन सकेगा
        हैं इम्तहान सर पे तैयारियाँ नहीं हैं
        16-
        प्रेयसि दुनिया बहुत बुरी है और फिर बाहर चलना है
        क्या गर्दन पर ये सोने का हार बहुत आवश्यक है
        17-
        पाँच सौ का धरा मेज़ पर
        जब वो देने लगा अफ़सरी
        18-
        आस गन्तव्य की क्षीर्ण पड़ने लगी
        पथ-प्रदर्शक को है अस्थमा बन्धुओ
        19-
        नेता, वकील, पंडित, मुल्ला, समाज-सेवक
        बदलेगा रूप आखिर शैतान और कितने
        20-
        हैं जुबानों की ताक में छुरियाँ
        ऐसी मुश्किल में कौन लब खोले
        21-
        छपी चापलूसी, तो सच्ची ख़बर थी
        जो तनक़ीद निकली, तो अख़बार झूठा
        22-
        सुब्ह से लाइन में लग जाना था ग़लती हो गई
        जब तलक नम्बर मेरा आया बचा कुछ भी नहीं ।
        23-
        जन्म पर दावत सही, है मौत पर दावत मगर
        कैसे कैसे वाह री दुनिया तेरे दस्तूर हैं
        24-
        ये घातों पर घातें देखो/क़िस्मत की सौग़ातें देखो
        धरती को जन्नत कर देंगे/मक्कारों की बातें देखो
        

संक्षिप्त परिचय

जन्म : 18 अगस्त 1968 को छतरपुर (म.प्र.) के किशनगढ़ ग्राम में
पिता : स्व० श्री पुरूषोत्तम दास खरे
माता : श्रीमती कमला देवी खरे
शिक्षा :एम०ए० (इतिहास), बी०एड०
लेखन विधा : ग़ज़ल, गीत, कविता, व्यंग्य-लेख, कहानी, समीक्षा आलेख ।
प्रकाशित कृतियाँ :
1. शेष बची चौथाई रात 1999 (ग़ज़ल संग्रह),
2. सुबह की दस्तक 2006 (ग़ज़ल-गीत-कविता),
3. अंगारों पर शबनम 2012(ग़ज़ल संग्रह)
उपलब्धियाँ :
वागर्थ, कथादेश सहित विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं रचनाओं का प्रकाशन ।
लगभग 22 वर्षों से आकाशवाणी छतरपुर से रचनाओं का निरंतर प्रसारण ।
आकाशवाणी द्वारा गायन हेतु रचनाएँ अनुमोदित ।
ग़ज़ल-संग्रह 'शेष बची चौथाई रात' पर अभियान जबलपुर द्वारा 'हिन्दी भूषण' अलंकरण ।
मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन एवं बुंदेलखंड हिंदी साहित्य-संस्कृति मंच सागर [म.प्र.]
द्वारा कपूर चंद वैसाखिया 'तहलका ' सम्मान
अ०भा० साहित्य संगम, उदयपुर द्वारा काव्य कृति ‘सुबह की दस्तक’ पर राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान के अन्तर्गत 'काव्य-कौस्तुभ' सम्मान तथा लायन्स क्लब द्वारा ‘छतरपुर गौरव’ सम्मान ।
====संस्तुतियाँ====
'अकेला' की ग़ज़लों में भरपूर शेरियत और तग़ज़्जुल है । छोटी बड़ी सभी प्रकार की बहरों मे उन्होंने नए नए प्रयोग किए हैं और वे खूब सफल भी हुए हैं । उनके शेरों में यह ख़ूबी है कि वे ख़ुद-ब-ख़ुद होठों पर आ जाते हैं जैसे कि यह शेर-
इक रूपये की तीन अठन्नी माँगेगी
इस दुनिया से लेना-देना कम रखना
 -पद्मश्री डॉ० गोपाल दास 'नीरज'
'अकेला' की ग़ज़ल वो लहर है जो ग़ज़ल के समुन्दर में नई हलचल पैदा करेगी ।
 - डॉ. बशीर बद्र
अगर परिमाण की दृष्टि से देखा जाये तो आज की हिन्दी कविता की प्रमुख धारा ग़ज़ल ही है । हिन्दी कविता के क्षेत्र में इन दिनों जितने भी रेखांकित करने योग्य कवि हैं उनमें से अधिकतर कवियों ने ग़ज़लें कही हैं और जिन्होंने ग़ज़लें कही हैं उनमें जो प्रमुख ग़ज़लकार हैं उनमें श्री वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का नाम बिना किसी हिचक के लिया जा सकता है । इसका बड़ा कारण यह है कि ‘अकेला’ जी की ग़ज़लें विविध विषयों पर होने के साथ-साथ बहर आदि की दृष्टि से भी निष्कलंक हैं । उनमें सहज प्रवाह भी है और अमिट प्रभाव भी । ये ग़ज़लें ग़ज़ल की यशस्वी परंपरा में रहकर नए विषयों तथा नए प्रतीकों की खोज भी करती दिखाई देती हैं । इनमें यथार्थ की सच्चाई और कल्पना की ऊँचाई दोनों के ही दर्शन होते हैं । ग़ज़ल का शेर अगर एकदम दिल में न उतर जाये तो वह शेर ही क्या। ऐसे दिल में उतर जाने वाले अनेक शेर इस संग्रह में मिलेंगे । मिसाल के तौर पर एक ग़ज़ल के मतले का यह शेर ही देखें -

     “अदावत दिल में रखते हैं मगर यारी दिखाते हैं
      न जाने लोग भी क्या-क्या अदाकारी दिखाते हैं ।”
डॉ कुंअर बेचैन

श्री वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ जी का 101 हिन्दी ग़ज़लों का काव्य संग्रह “अंगारों पर शबनम” पढ़ने का सौभाग्य मिला । हिन्दी ग़ज़लों या हिन्दी ग़ज़लकारों की अपार भीड़ में श्री वीरेन्द्र खरे सचमुच “अकेले” हैं। मुझे हैरत इस बात में है कि श्री ‘अकेला’ जी सचमुच ग़ज़ल के मिज़ाज से न सिर्फ़ वाक़िफ़ हैं वरन् उनकी 101 मेयारी ग़ज़लें फ़न की सभी कसौटियों पर खरी उतरती हैं ।
ग़ज़ल की पहली और अहम शर्त है शेरों का वज़न में होना, उसके बाद रदीफ़ क़ाफ़ियों का सही इस्तेमाल तथा अल्फ़ाज़ों की नशिस्तो-बरखास्त, जिसमें बड़े-बड़े उस्तादों तक से चूक हो जाती है, परन्तु भाई ‘अकेला’ की किसी भी ग़ज़ल में उपरोक्त ख़ामियाँ ढूँढ़े से भी नहीं मिलतीं । उन्होंने आज के सम्पूर्ण परिवेश को अपनी ग़ज़लों में जिस खूबसूरती से ढाला है, वो देखते ही बनता है । उनकी विहंगम काव्य-दृष्टि कल, आज और कल का ऐसा चमकदार आईना है जिसमें जीवन का हर प्रतिबिंब बोलता है, न सिर्फ़ बोलता है वरन् परत-दर-परत आज ही नहीं कल की हक़ीक़तों का पर्दा भी खोलता है ।
बहुत लम्बे अरसे बाद ऐसा ग़ज़ल संग्रह पढ़ने को मिला जिसने मुझे भीतर तक झकझोरा है, काश ऐसे श्रेष्ठ ग़ज़ल-संग्रह पर “अकेला” जी का नहीं मेरा नाम होता, इससे ज़्यादा प्रशंसा मिश्रित ईर्ष्या और क्या हो सकती है ।
अगले इससे भी श्रेष्ठ ग़ज़ल संग्रह की प्रतीक्षा में ढेरों मंगल कामनाओं सहित-
-माणिक वर्मा
हिन्दी के प्रतिष्ठापित होते ग़ज़लकार भाई वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ की ग़ज़लें भीड़ भरे ग़ज़लकारों में अकेली, अद्वितीय आवाज़ है । लगभग त्रुटिशून्य और सन्नाटे के अंधेरे को शब्दों की रश्मियों से चीरती -
“हमको ऐ जनतंत्र तेरे नाम पर
उस्तरे थामे हुए बंदर मिले”

इस तरह के तल्ख तेवर नागार्जुन, हरिशंकर परसाई के गद्य में भी
मिलते हैं । गद्य को पद्य में विलीन करती उनकी लय आश्वस्त करती है कि यदि कवि ठान ले तो वह जन की, अवाम की प्रतिनिधि आवाज़ बन सकता है।
 
आज के भीषण, निर्लज्ज घोटालों के कुहासे में ये ग़ज़लें ज्योति-किरण हैं । यद्यपि कविता से क्रान्ति नहीं होती, लेकिन वह अपने अग्नि-स्फुर्लिंग तो वातावरण में बिखरा सकती है । वे दुष्यन्त के आगे के ग़ज़लकार हैं । अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए दृढ़संकल्पी किन्तु संकोची कवि का शब्द-निनाद शब्दों के पत्थरों से रगड़कर चिन्गारी पैदा करता है, उसका दाव उसे मालूम है । आज की दलबंदी और तुकबंदी के माहौल में ‘अकेला’ आश्वस्त करता है । ग़ज़ल और जन से उसके सरोकार घने होते चले जाएंगे।
 
मुझे पूरा भरोसा है, हिन्दी के सुधी समीक्षक इस आवाज़ को नज़र अंदाज़ करने की स्थिति में नहीं होंगे । उनकी रचना किसी ऊपरी वाह-वाही की मोहताज़ नहीं, क्योंकि दिल की कमान से निकले उनके अशआर सीधे दिल में उतरने की कोशिश हैं । ‘अंगारों पर शबनम’ की ग़ज़लें सारे देश में लोकप्रिय होंगी, यह मेरा दृढ़ अनुमान है ।
-प्रो. डॉ. देवव्रत जोशी

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