हिंदी और हम -विद्यानिवास मिश्र

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हिंदी और हम -विद्यानिवास मिश्र
'हिंदी और हम' का आवरण पृष्ठ
लेखक विद्यानिवास मिश्र
मूल शीर्षक हिंदी और हम
प्रकाशक ग्रंथ अकादमी
प्रकाशन तिथि 3 फ़रवरी, 2004
ISBN 81-85826-84-6
देश भारत
पृष्ठ: 132
भाषा हिंदी
विधा निबंध संग्रह
विशेष विद्यानिवास मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया था।

हिंदी और हम हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार और जाने माने भाषाविद विद्यानिवास मिश्र का निबंध संग्रह है।

सारांश

कितने लोग नई उम्र वाले तैयार होंगे एक हारी हुई लड़ाई लड़ने के लिए ललकारने के लिए –हमें नहीं चाहिए हिंदी का प्रतिबंधित संवैधानिक दरजा, हमें हिंदी का अधिकार चाहिए ? वह अधिकार पैतृक नहीं, मातृक है। आकाश से पृथ्वी बड़ी होती है, पिता से माता बड़ी होती है। हिंदी जिनके लिए माँ नहीं है उनके लिए क्या विद्यान हो, वे जानें, पर हिंदी के अतिरिक्त कोई माँ नहीं है, जिनके पास हिंदी के अलावा कोई दाई माँ नहीं, नई माँ नहीं, उनके स्वरूप को कोई क्यों छीनता है ? कितने आदमी तैयार मिलेंगे अपने भविष्यत अँधकार को अपनी मज्जा की उर्जा से जलाए मशाल से चीरने के लिए ? कितने आदमी तैयार मिलेंगे इस बात पर जेल भरने के लिए हिंदी में जिस वस्तु का नाम लिखा हो उसे नहीं ख़रीदेंगे, हिंदी में निमंत्रण न आये तो उस निमंत्रण को अस्वीकार करने के लिए ? कुछ पानीदार पत्रकार, लेखक, अध्यापक, छात्र, अधिकारी, किसान, मज़दूर, डॉक्टर, इंजीनियर, मिस्त्री अपने-अपने क्षेत्र में हिंदी के पानी का मान रखने को सन्नद्ध हो जाएँ तो हिंदी भाषी इस देश में द्वितीय श्रेणी के नागरिक न रह जाएँ। हिंदी के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान का विकास करने वाला व्यक्ति विद्या-जगत् से अस्पृश्य न रह जाए। हिंदी में काम करने वाला बाबू लल्लू न रह जाए। एक-दूसरे का मुँह जोंहेंगे तो लड़ाई नहीं लड़ी जा सकेगी, क्योंकि इस मुँहा-मुँही में हिंदी भाषी गूँगा हो गया है।

भूमिका

इस संग्रह में समय-समय पर हिंदी भाषा के प्रति हमारी क्या भावना है, हमने कितनी अपनी जिम्मेवारी निबाही है- इस पर लिखे गए निबंधों और दिए गए वक्तव्यों का संकलन है। हिंदी के प्रति जो उदासीनता है- कुछ राजनीति के कारण, कुछ राजनीति के विचित्र आत्महंता मोड़ों के कारण, कुछ हिंदी भाषी जन के जाति-विद्वेषी लपटों में घिरे रहने के कारण और कुछ हिंदी के प्रबुद्ध जनों की विश्व- यारी के कारण, इसी उदासीनता का निदान करने की नादानी करता रहा हूँ। मेरे संस्कार कुछ ऐसे रहे कि हिंदी की उपेक्षा मुझे कभी सह्य नहीं हुई। इसलिए मेरी प्रतिक्रियाएँ तीखी ही रही हैं। आज उन्हें संकलित करने का कारण यह है कि हिंदी के कहे जाने वाले हम लोग क्षेत्र, जाति और वाद के पार, जाकर हिंदी के बारे में सोचें और हिंदी को स्वरूप-विमर्श का प्रमुख घटक बनाएँ। हम इस प्रकार का विमर्श करेंगे तो हिंदी को लाचार नहीं समझेंगे और इसे राजनीति, विशेषतः सत्ता की राजनीति, के हाथों में जिबह के लिए छोड़ नहीं देंगे। हिंदी का वर्तमान गौरवपूर्ण है। उसकी भूमिका आज भी सामान्य जन को जोड़ने में सभी भाषाओं की अपेक्षा सबसे अधिक कारगर है। हिंदी के बारे में यदि कोई संभ्रम है तो केवल मजबूरी की ओट लेने वाले उदारमना बुद्धिजीवी के मन में। मेरे इस संग्रह के संबोध्य मुख्यतः बुद्धिजीवी ही हैं। यदि कुछ भी इन ठंडे दिमागों में जमा बर्फ गल सके तो मैं अपने को कृतार्थ मानूँगा।
हिंदी की निष्ठा की दीक्षा जिन महापुरुषों से मुझे साक्षात् मिली उनके प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूँ। राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, श्रीनारायण चतुर्वेदी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, और डॉ. राम मनोहर लोहिया, इन लोगों के गहन संपर्क में मैंने सीखा कि जो भाषा इतने विशाल समुदाय को न केवल जोड़ने वाली है बल्कि उन्हें दूसरी भाषाओं से जुड़ने की प्रेरणा देने वाली भी है, उसका हम सब पर ऋण है और उस ऋणबोध से प्रेरित होकर ही हमें हिंदी के बारे में, विनम्र पैमाने पर ही सही, कुछ न कुछ करते रहना है। -विद्यानिवास मिश्र[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिंदी और हम (हिंदी) pustak.org। अभिगमन तिथि: 9 अगस्त, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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