हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का इतिहास बोध

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हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का इतिहास बोध
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पूरा नाम डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
जन्म 19 अगस्त, 1907 ई.
जन्म भूमि गाँव 'आरत दुबे का छपरा', बलिया ज़िला, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 19 मई, 1979
कर्म भूमि वाराणसी
कर्म-क्षेत्र निबन्धकार, उपन्यासकार, अध्यापक, सम्पादक
मुख्य रचनाएँ सूर साहित्य, बाणभट्ट, कबीर, अशोक के फूल, हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, नाथ सम्प्रदाय, पृथ्वीराज रासो
विषय निबन्ध, कहानी, उपन्यास, आलोचना
भाषा हिन्दी
विद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
शिक्षा बारहवीं
पुरस्कार-उपाधि पद्म भूषण
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी द्विवेदी जी कई वर्षों तक काशी नागरी प्रचारिणी सभा के उपसभापति, 'खोज विभाग' के निर्देशक तथा 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' के सम्पादक रहे हैं।
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हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के लिए इतिहास का अर्थ अतीत से लगाव बिल्कुल नहीं था। वे अतीत की चारदीवारी में अपनी सुरक्षा नहीं खोजते बल्कि अतीत से वर्तमान की मुठभेड़ को ज़रूरी मानते हैं। नामवर जी लिखते हैं कि "इतिहास उनके लिए एक शव था और इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि इस 'शव साधना' में भी उनकी दृष्टि के सम्मुख मनुष्य का भविष्य था।" वस्तुतः द्विवेदी जी में इतिहास का विवेक तो है ही, परंपरा का बोध भी है। परंपरा के भीतर सृजन और संघर्ष का बोध द्विवेदी जी के पूरे चिंतन में है। इसी से उनकी इतिहास दृष्टि निर्मित होती है।


द्विवेजी जी ने साहित्येतिहास लेखन की दिशा में जो प्रयास किए हैं, उसमें उनकी इतिहास दृष्टि का स्वरूप ढूँढा जा सकता है। इतिहास वस्तुतः विकास का आकलन होता है और 'विकास' के पीछे प्रकृति का नियम है। मनोहर श्याम जोशी से बातचीत के क्रम में उनके प्रश्न- 'आपको इतिहास से इतना प्रेम क्यों है'- के उत्तर में द्विवेजी जी कहते हैं कि "इतिहास मनुष्य की तीसरी आँख है। वह हमें पीछे की ओर झाँकने की क्षमता देता है।" इतिहास बोध और आधुनिकता में गहरा रिश्ता है। इतिहास दृष्टि का आशय है कि हम अपने अतीत को कैसे देखें? द्विवेदी जी मानते हैं कि "जो इतिहास को स्वीकार न करे, वह आधुनिक नहीं और जो चेतना को न माने वह इतिहास नहीं। प्रायः वर्तमान और समसामयिक को आधुनिक मान लिया जाता है और अतीत को जड़ पुरातन व पारंपरिक।" द्विवेजी जी की यह मान्यता, उनके आधुनिक होने का प्रमाण है। उनकी दृष्टि परंपरा और आधुनिकता में संतुलन बनाकर चलती है। भारत के इतिहास और अतीत में झांकने की उनकी दृष्टि मूलतः साहित्यिक एवं सांस्कृतिक है।

परंपरा और आधुनिकता का संतुलन

असल में द्विवेदी जी के संस्कार पारंपरिक हैं और मन आधुनिक। इसलिए परंपरा के भीतर वे लगातार अंतर्विरोध और मनुष्य के संघर्ष को तलाशते हैं और इसी के माध्यम से मानव-धर्म को समझने की कोशिश करते हैं। द्विवेदी जी मूलतः मनुष्य हैं, उसके बाद ही कुछ और हैं। वे मनुष्य को बड़ा मानते हैं, क्योंकि मनुष्य में सत्ताओं और नियमों के खिलाफ आवाज़ उठाने की क्षमता है।


'मेघदूतः एक पुरानी कहानी' (1957) के शुरू में उन्होंने लिखा है- "मनुष्य इसीलिए बड़ा होता है कि वह गलती कर सकता है। देवता इसलिए बड़ा है कि वह नियम का नियंता है। द्विवेजी जी आधुनिक मनुष्य को पहले के मनुष्य से भिन्न मानते हैं। 'सहज साधना' नाम की पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि "सृष्टि की लीला में एक तरफ़ अवतार होता है, दूसरी तरफ़ उद्धार। कभी कोई प्रभावी होता है, तो कभी कोई लेकिन आधुनिकता ने 'उद्धार' को महत्व दिया है और यही आधुनिक मानवतावाद है, जिसमें व्यष्टि मनुष्य को नहीं, समष्टि-मनुष्य को मुक्त करने की कामना है।"


स्पष्ट है कि हज़ारी प्रसाद द्विवेदी परंपरा के भीतर की हलचल को पकड़कर आधुनिकता से जुड़ जाते हैं। यह एक जीवन्त प्रक्रिया है, जो संग्रह और त्याग के विवेक पर आधारित है। 'परंपरा और आधुनिकता' में वे लिखते हैं कि परंपरा बोध अतीत नहीं है। यहाँ आधुनिकता से गहरा लगाव है, जहाँ सामूहिक मुक्ति के सवाल पैदा होते हैं। इसके तीन लक्षण हैं-

  1. ऐतिहासिक दृष्टि
  2. पराधीनता से मुक्ति का आग्रह
  3. समष्टि मानव के कल्याण की मंगलकामना


द्विवेदी जी के चिन्तन से जो बात निकलकर आती है, वह यह है कि परंपरा मनुष्य को उसके परिपूर्ण रूप में समझने में सहायता देती है। आधुनिकता उसके बिना संभव नहीं है। परंपरा, आधुनिकता को आधार देती है, उसे शुष्क, नीरस और बुद्धि विलास बनने से बचाती है। उसके प्रयासों को अर्थ देती है, उसे असंयत होने से बचाती है। ये दोनों परस्पर विरोधी नहीं, परस्पर पूरक हैं।


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