श्राद्ध प्रपौत्र द्वारा

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श्राद्ध प्रपौत्र द्वारा
श्राद्ध कर्म में पूजा करते ब्राह्मण
अनुयायी सभी हिन्दू धर्मावलम्बी
उद्देश्य श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक हैं। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है, उसी को 'श्राद्ध' कहते हैं।।
प्रारम्भ वैदिक-पौराणिक
तिथि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से सर्वपितृ अमावस्या अर्थात आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक
अनुष्ठान श्राद्ध-कर्म में पके हुए चावल, दूध और तिल को मिश्रित करके जो 'पिण्ड' बनाते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित 'गुणसूत्र' उपस्थित होते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है।
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अन्य जानकारी ब्रह्म पुराण के अनुसार श्राद्ध की परिभाषा- 'जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित (शास्त्रानुमोदित) विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है', श्राद्ध कहलाता है।

तैत्तिरीय संहिता[1] एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण[2] से प्रकट होता है कि पिता, पितामह एवं प्रपितामह तीन स्व-सम्बन्धी पूर्वपुरुषों का श्राद्ध किया जाता है। बौधायन धर्मसूत्र[3] का कथन है कि सात प्रकार के व्यक्ति एक-दूसरे से अति सम्बन्धित हैं, और वे अविभक्तदाय सपिण्ड कहे जाते हैं–प्रपितामह, पिता, स्वयं व्यक्ति (जो अपने से पूर्व से तीन को पिण्ड देता है), उसके सहोदर भाई, उसका पुत्र (उसी की जाति वाली पत्नी से उत्पन्न) पौत्र एवं प्रपौत्र। सकुल्य वे हैं जो विभक्तदायाद हैं, मृत की सम्पत्ति उसे मिलती है जो मृत के शरीर से उत्पन्न हुआ है।[4] मनु[5] ने लिखा है–पुत्र के जन्म से व्यक्ति लोकों (स्वर्ग) आदि की प्राप्ति करता है, पौत्र से अमरता प्राप्त करता है और प्रपौत्र से वह सूर्यलोक पहुँच जाता है। इससे प्रकट होता है कि व्यक्ति के तीन वंशज समान रूप से व्यक्ति को आध्यात्मिक लाभ पहुँचाते हैं। याज्ञवल्क्य[6] ने भी तीन वंशजों को बिना कोई भेद बताए एक स्थान पर रख दिया है–'अपने पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र से व्यक्ति वंश की अविच्छिन्नता एवं स्वर्ग प्राप्त करता है।' अत: जब मनु[7] यह कहते हैं कि पुत्र के जन्म से व्यक्ति पूर्वजों के प्रति अपने ऋणों को चुकाता है, तो दायभाग[8] ने व्याख्या की है कि 'पुत्र' शब्द प्रपौत्र तक के तीन वंशजों का द्योतक है, क्योंकि तीनों को पार्वणश्राद्ध करने का अधिकार है और तीनों पिण्डदान से अपने पूर्वजों को समान रूप से लाभ पहुँचाते हैं और 'पुत्र' शब्द को संकुचित अर्थ में नहीं लेना चाहिए। प्रत्युत् उसमें प्रपौत्र को भी सम्मिलित मानना चाहिए, क्योंकि किसी भी ग्रन्थ में बड़ी कठिनाई से यह बात मिलेगी कि प्रपौत्र को भी श्राद्ध करने या सम्पत्ति पाने का अधिकार है, किसी भी ग्रन्थ में यह स्पष्ट रूप से (पृथक् ढंग से) नहीं लिखा गया है कि प्रपौत्र सम्पत्ति पाने वाला एवं पिण्डदान कर्ता है। याज्ञवल्क्य[9] में जब यह आया कि पिता की मृत्यु पर या जब वह दूर देश में चला गया हो या आपदों (असाध्य रोगों से ग्रस्त आदि) में पड़ा हो तो उसके ऋण पुत्रों या पौत्रों द्वारा चुकाये जाने चाहिए, तो मिताक्षरा ने जोड़ा है कि पुत्र या पौत्र का वंश सम्पत्ति न मिलने पर भी पिता के ऋण चुकाने चाहिए, अन्तर केवल इतना ही है कि पुत्र मूल के साथ ब्याज भी चुकाता है और पौत्र केवल मूल। मिताक्षरा ने बृहस्पति को उद्धृत कर कहा है कि वहाँ सभी वंशज एक साथ वर्णित हैं। मिताक्षरा ने इतना जोड़ दिया है कि जब वंश सम्पत्ति न प्राप्त हो तो प्रपौत्र को मूल धन भी नहीं देना पड़ता। इससे प्रकट है कि मिताक्षरा ने भी पुत्र शब्द के अंतर्गत प्रपौत्र को सम्मिलित माना है।

याज्ञवल्क्य[10] ने कहा है कि जो भी कोई मृत की सम्पत्ति प्राप्त करता है उसे उसका ऋण भी चुकाना पड़ता है। अत: प्रपौत्र को भी ऋण चुकाना पड़ता है यदि वह प्रपितामह से सम्पत्ति पाता है। इसी से मिताक्षरा[11] ने स्पष्ट कहा है कि प्रपौत्र अपने प्रपितामह का ऋण नहीं चुकाता है यदि उसे सम्पत्ति नहीं मिलती है, नहीं तो पुत्र के व्यापक अर्थ में रहने के कारण उसे ऋण चुकाना ही पड़ता। यदि मिताक्षरा पुत्र शब्द के प्रपौत्र को सम्मिलित न करती तो याज्ञवल्क्य[12] में प्रपौत्र शब्द के उल्लेख की आवश्यकता की बात नहीं उठती। इसके अतिरिक्त मिताक्षरा[13] ने पुत्र के अंतर्गत प्रपौत्र भी सम्मिलित किया हैं इससे प्रकट है कि मिताक्षरा इस बात से सचेत है कि मृत के तीन वंशज एक दल में आते हैं, वे उसके धन एवं उत्तरदायित्व का वहन करते हैं और पुत्र शब्द में तीनों वंशज आते हैं।[14] यदि पुत्र शब्द को उपलक्षणस्वरूप नहीं माना जाएगा तो याज्ञवल्क्य की व्याख्या में गम्भीर आपत्तियाँ उठ खड़ीं होंगी। उदाहरणार्थ, याज्ञवल्क्य[15] में आया है कि जब पुत्रहीन व्यक्ति मर जाता है तो उसकी पत्नी, पुत्रियों एवं अन्य उत्तराधिकारी एक के पश्चात् एक आते हैं। यदि 'पुत्र' का अर्थ केवल 'पुत्र' माना जाए तो पुत्रहीन व्यक्ति मर जाने पर 'पौत्र' के रहते हुए मृत की पत्नी या कन्या (जो भी कोई जीवित हो) सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी हो जाएगी। अत: 'पुत्र' शब्द की व्याख्या किसी उचित संदर्भ में विस्तृत रूप में की जानी चाहिए। व्यवहारमयूख, वीरमित्रोदय, दत्तकमीमांसा आदि ग्रन्थ 'पुत्र' शब्द में तीन वंशजों को सम्मिलित मानते हैं। इसी से, यद्यपि मिताक्षरा दायाधिकार एवं उत्तराधिकार के प्रति अपने निर्देशों में केवल 'पुत्र' एवं 'पौत्र' (शाब्दिक रूप में उसे 'पुत्र' का ही उल्लेख करना चाहिए) के नामों का उल्लेख करता हैं इसमें 'प्रपौत्र' को भी संयुक्त समझना चाहिए, विशेषत: इस बात को लेकर कि वह याज्ञवल्क्य[16] की समीक्षा में 'प्रपौत्र' की ओर भी संकेत करता हैं बौधायन एवं याज्ञवल्क्य ने तीन वंशजों को उल्लेख किया है और शंख-लिखित, वसिष्ठ[17] एवं यम ने तीन पूर्वजों के सम्बन्ध में केवल 'पुत्र' या 'सुत' का प्रयोग किया है। अत: डॉ. कापडिया[18] का यह उल्लेख है कि विज्ञानेश्वर 'पुत्र' शब्द से केवल 'पुत्रों' एवं 'पौत्रों' की ओर संकेत करते हैं, निराधार है। जिस प्रकार राजा दायादहीनों का अन्तिम उत्तराधिकारी है और सभी अल्पवयस्कों का अभिभावक है, उसी प्रकार वह (सम्बन्धियों से हीन) व्यक्ति के श्राद्ध सम्पादन में पृत्र के सदृश है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तैत्तिरीय संहिता 1|8|5|1
  2. तैत्तिरीय ब्राह्मण 1|6|9
  3. बौधायन धर्मसूत्र 1|5|113-115
  4. अपि च प्रपितामह: पितामह: पिता स्वयं सोदर्या भ्रातर: पुत्र: पौत्र: प्रपौत्र एतानविभक्तदायादान् सपिण्डानाचक्षते। विभक्तदायादान् सकुल्यानाचक्षते। सत्स्वगंजेषु तदगामी ह्यथों भवति। बौधायन धर्मसूत्र 1|5|113-115 इसे दायभाग (11|37) ने उद्धघृत किया है और (11|38) में व्याख्यापित किया है। और देखिए दायतत्त्व (पृ. 189)।
  5. मनु 9|137=वसिष्ठ 17|5=विष्णु. 15|16
  6. याज्ञवल्क्य 1|78
  7. मनु 9|106
  8. दायभाग 9|34
  9. याज्ञवल्क्य 2|50
  10. याज्ञवल्क्य 2|51
  11. याज्ञ. 2|50
  12. याज्ञवल्क्य 2|50
  13. याज्ञ. 2|51 'पुत्रहीनस्य निक्थिन:'
  14. जहाँ भी कहीं कोई ऐसी आवश्यकता पड़े तो
  15. याज्ञवल्क्य 2|135-136
  16. याज्ञवल्क्य 2|50 एवं 51
  17. वसिष्ठ 11|39
  18. हिन्दू किंगशिप, पृ. 162

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