शून्यकाल

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भारतीय संसद के दोनों सदनों में प्रश्नकाल के बाद का समय शून्यकाल होता है, इसका समय 12 बजे से लेकर 1 बजे तक होता है। दोपहर 12 बजे आरंभ होने के कारण इसे शून्यकाल कहा जाता है। शून्यकाल का आरंभ 1960[1]के दशकों में हुआ जब बिना पूर्व सूचना के अविलम्बनीय लोक महत्व के विषय उठाने की प्रथा विकसित हुई। शून्यकाल के समय उठाने वाले प्रश्नों पर सदस्य तुरंत कार्रवाई चाहते हैं।

शून्यकाल अथवा जीरो आवर

संसद के दोनों सदनों में प्रश्नकाल के ठीक बाद का समय आमतौर पर शून्यकाल अथवा जीरो आवर के नाम से जाना जाने लगा है। यह एक से अधिक अर्थों में शून्यकाल होता है। 12 बजे से दोपहर का समय न तो मध्याह्न पूर्व का समय होता है और न ही मध्याह्न पश्चात् का समय। शून्यकाल 12 बजे प्रारम्भ होने के कारण इसे इस नाम से जाना जाता है। इसे जीरो आवर भी कहा गया, क्योंकि पहले शून्यकाल पूरे घंटे तक चलता था, अर्थात 1 बजे पर सदन के मध्याह्न भोजन के लिए स्थगित होने तक। बाद में सातवीं और आठवीं लोक सभाओं में, उदाहरण के लिए, शून्यकाल सामान्यतया 5 से 15 मिनट तक ही चलता रहा। आठवीं लोक सभा में शून्य कार्रवाई में अधिक से अधिक समय जो लगा वह 32 मिनट था। किंतु अल्पकालिक नवीं लोक सभा में स्थिति एकदम बदल गई, जब अध्यक्ष रवि राय ने इस नियम विरुद्ध शून्यकाल को न्याय संगत और सम्माननीय बनाने का निर्णय और उसे व्यवस्थित करना चाहा। नतीजा यह हुआ कि प्राय: शून्यकाल एक घंटे से कहीं अधिक तक चलता रहने लगा। वस्तुतया कभी कभी तो वह दो दो घंटे या उससे भी अधिक देर तक चला, जिससे सदन की आवश्यक व्यवस्थित कार्रवाई के शुरू होने की प्रतीक्षा में बैठे मंत्रियों और सदस्यों को स्वाभाविक खीज की अनुभूति हुई।

इतिहास

यह कोई नहीं कह सकता कि इस काल के दौरान कौन सा मामला उठ खड़ा हो या सरकार पर किस तरह का आक्रमण कर दिया जाये। नियमों में शून्यकाल का कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है। शून्यकाल का यह नाम 1960 और 1970 की दशाब्दी के प्रारंभिक वर्षों में किसी समय समाचार पत्रों में तब दिया गया, जब बिना पूर्व सूचना के अविलम्बनीय लोक महत्व के विषय उठाने की प्रथा विकसित हुई। प्रश्न काल के समाप्त होते ही सदस्यगण ऐसे मामले उठाने के लिए खड़े हो जाते हैं, जिनके बारे में वे महसूस करते हैं कि कार्रवाई करने में देरी नहीं की जा सकती, हालांकि इस प्रकार मामले उठाने के लिए नियमों में कोई उपबंध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रथा के पीछे यही विचार रहा है कि ऐसे नियम जो राष्ट्रीय महत्त्व के मामले या लोगों की गंभीर शिकायतों संबंधी मामले सदन में तुरंत उठाये जाने में सदस्यों के लिए बाधक होते हैं, वे निरर्थक हैं और उन्हें लोगों के प्रतिनिधियों की चिंता की मूल बातों और अधिकारियों के आड़े नहीं आना चाहिए। आखिर संसद एक राजनीतिक संस्था है, जो लोगों के प्रतिनिधियों से बनती है और सदन को बिल्कुल नियमों के अनुसार ही चलाने का प्रयास निरर्थक हो सकता है। नियम सामान्य विनियमन एवं मार्गदर्शन के लिए होते हैं और उनमें समय समय पर उत्पन्न हो सकने वाली सभी संभव स्थितियों की पहले से परिकल्पना कदापि नहीं की जा सकती।

शून्यकाल एक अनियमितता

नियमों की दृष्टि से तथाकथित शून्यकाल एक अनियमितता है। मामले चूंकि बिना अनुमति के या बिना पूर्व सूचना के उठाये जाते हैं, अत: इससे सदन का बहुमूल्य समय व्यर्थ जाता है और इससे सदन के विधायी, वित्तीय और अन्य नियमित कार्य का अतिक्रमण होता है। अनेक उत्तेजित सदस्यों के साथ बोलने से पीठासीन अधिकारी का काम बहुत कठिन हो जाता है। अत: अध्यक्ष और सदन नियमित कार्य में ऐसी बाधा को प्रोत्साहन न दें। किंतु जैसी स्थिति इस समय है, उससे प्रतीत होता है कि शून्यकाल हमेशा के लिए स्थायी हो गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1970

बाहरी कड़ियाँ

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