शहरे आशोब भाग-1 -नज़ीर अकबराबादी

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शहरे आशोब भाग-1 -नज़ीर अकबराबादी
नज़ीर अकबराबादी
कवि नज़ीर अकबराबादी
जन्म 1735
जन्म स्थान दिल्ली
मृत्यु 1830
मुख्य रचनाएँ बंजारानामा, दूर से आये थे साक़ी, फ़क़ीरों की सदा, है दुनिया जिसका नाम आदि
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नज़ीर अकबराबादी की रचनाएँ
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अब तो कुछ सुख़न का मेरे कारोबार बंद ।
रहती है तबअ सोच में लैलो निहार बंद ।
दरिया सुख़न की फ़िक्र का है मौज दार बंद ।
हो किस तरह न मुंह में जुबां बार बार बंद ।
जब आगरे की ख़ल्क़ का हो रोज़गार बंद ॥1॥

        बेरोज़गारी ने यह दिखाई है मुफ़्लिसी ।
        कोठे की छत नहीं हैं यह छाई है मुफ़्लिसी ।
        दीवारों दर के बीच समाई है मुफ़्लिसी ।
        हर घर में इस तरह से भर आई है मुफ़्लिसी ।
        पानी का टूट जावे है जूं एक बार बंद ॥2॥

कड़ियाँ जो साल की थीं बिकी वह तो अगले साल ।
लाचार कर्जों दाम से छप्पर लिए हैं डाल ।
फूस और ठठेरे इसके हैं जूं सरके बिखरे बाल ।
उस बिखरे फूस से है यह उन छप्परों का हाल ।
गोया कि उनके भूल गए हैं चमार, बंद ॥3॥

        दुनिया में अब क़दीम से है ज़र का बन्दोबस्त ।
        और बेज़री में घर का न बाहर का बन्दोबस्त ।
        आक़ा का इन्तिज़ाम न नौकर का बन्दोबस्त ।
        मुफ़्लिस जो मुफ़्लिसी में करे घर का बन्दोबस्त ।
        मकड़ी के तार का है वह नाउस्तुवार बंद ॥4॥

कपड़ा न गठड़ी बीच, न थैली में ज़र रहा ।
ख़तरा न चोर का न उचक्के का डर रहा ।
रहने को बिन किवाड़ का फूटा खंडहर रहा ।
खँखार जागने का, न मुतलक़ असर रहा ।
आने से भी जो हो गए चोरो चकार बंद ॥5॥

        अब आगरे में जितने हैं सब लोग हैं तबाह ।
        आता नज़र किसी का नहीं एक दम निबाह ।
        माँगो अज़ीज़ो ऐसे बुरे वक़्त से पनाह ।
        वह लोग एक कौड़ी के मोहताज अब हैं आह ।
        कस्बो हुनर के याद है जिनको हज़ार बंद ॥6॥

सर्राफ़, बनिये, जौहरी और सेठ, साहूकार ।
देते थे सबको नक़्द, सो खाते हैं अब उधार ।
बाज़ार में उड़े है पड़ी ख़ाक बे शुमार ।
बैठें हैं यूँ दुकानों में अपनी दुकानदार ।
जैसे कि चोर बैठे हों क़ैदी कतार बंद ।

        सौदागरों को सूद, न व्यौपारी को फ़लाह॥7॥
        बज्ज़ाज को है नफ़ा न पनसारी को फ़लाह ।
        दल्लाल को है याफ़्त, न बाज़ारी को फ़लाह ।
        दुखिया को फ़ायदा न पिसनहारी को फ़लाह ।
        याँ तक हुआ है आन के लोगों का कार बंद ॥8॥

मारें है हाथ हाथ पे सब यां के दस्तकार ।
और जितने पेशावर हैं सो रोते हैं ज़ार ज़ार ।
कूटे है तन लोहार तो पीटे है सर सुनार ।
कुछ एक दो के काम का रोना नहीं है यार ।
छत्तीस पेशे बालों के हैं कारोबार बंद ॥9॥

        ज़र के भी जितने काम थे वह सब दुबक गए ।
        और रेशमी क़िवाम भी यकसर चिपक गए ।
        ज़रदार उठ गए तो बटैये सरक गए ।
        चलने से काम तारकशों के भी थक गए ।
        क्या हाल बाल खींचे जो हो जाए तार बंद ॥10॥

बैठे बिसाती राह में तिनके से चुनते हैं ।
जलते हैं नानबाई तो भड़भूजे भुनते हैं ।
धुनिये भी हाथ मलते हैं और सर को धुनते हैं ।
रोते हैं वह जो मशरुओ दाराई बुनते हैं ।
और वह तो मर गए जो बुनें थे इज़ार बंद ॥11॥

        बेहद हवासियों में दिये ऐसे होश खो,
        रोटी न पेट में हो तो शहवत कहां से हो,
        कोई न देखे नाच, न रंडी कि सूंघे बू,
        यां तक तो मुफ़लिसी है कि क़स्बी का रात को,
        दो-दो महीने तक नहीं खुलता इजारबंद।
        जब आगरे की ख़ल्क़ का है रोज़गार बंद ॥12॥

गर काग़ज़ी के हाल के काग़ज़ को देखिए ।
मुतलक़ उसे ख़बर नहीं काग़ज़ के भाव से ।
रद्दी, क़लम दुकान में, न टुकड़े हैं टाट के ।
याँ तक कि अपनी चिट्ठी के लिखने के वास्ते ।
काग़ज़ का मांगता है हर इक से उधार बंद ॥13॥

        लूटे हैं गरदो पेश जो क़्ज्ज़ाक राह मार ।
        व्यापारी आते जाते नहीं डर से ज़िनहार ।
        कुतवाल रोवें, ख़ाक उड़ाते हैं चौकी दार ।
        मल्लाहों का भी काम नहीं चलता मेरे यार ।
        नावें हैं घाट-घाट की सब वार पार बंद ॥14॥

हर दम कमां गरों के ऊपर पेचो ताब हैं ।
सहोफ़े अपने हाल में ग़म की किताब हैं ।
मरते हैं मीनाकार मुसव्विर कबाव हैं ।
नक़्क़ास इन सभों से ज़्यादा ख़राब हैं ।
रंगों क़लम के हो गए नक़्शो निगार बंद ॥15॥

        बैचेन थे यह जो गूंध के फूलों के बध्धी हार ।
        मुरझा रही है दिल की कली जी है दाग़दार ।
        जब आधी रात तक न बिकी, जिन्स आबदार ।
        लाचार फिर वह टोकरी अपनी ज़मी पे मार ।
        जाते हैं कर दुकान को आख़िर वह हार बंद ॥16॥

हज्ज़ाम पर भी यां तईं है मुफ़्लिसी का ज़ोर ।
पैसा कहाँ जो सान पे हो उस्तरों का शोर ।
कांपे है सर भिगोते हुए उसकी पोर पोर ।
क्या बात एक बाल कटे या तराशे कोर ।
याँ तक हैं उस्तरे व नहरनी की धार बंद ॥17॥

        डमरू बजाके वह जो उतारे हैं ज़हर मार ।
        आप ही वह खेलते हैं, हिला सर ज़मीं पे मार ।
        मन्तर तो जब चले कि जो हो पेट का आधार ।
        जब मुफ़्लिसी का सांप हो उनके गले का हार ।
        क्या ख़ाक फिर वो बांधें कहीं जाके मार बंद ॥18॥

लज़्ज़त है ज़िक्रो हुस्न के नक़्शो निगार से ।
महबूब है जो गुन्चे दहन गुल इज़ार से ।
आवें अगर वह लाख तरह की बहार से ।
कोई न देखे उनको नज़र भर के प्यार से ।
ऐसे दिलों के होगए आपस में कार बंद ॥19॥

        फिरते हैं नौकरी को जो बनकर रिसालादार ।
        घोड़ों की हैं लगाम न ऊंटों के है महार ।
        कपड़ा न लत्ता, पाल न परतल न बोझ मार ।
        यूं हर मकां में आके उतरते हैं सोगवार ।
        जंगल में जैसे देते हैं लाकर उतार बंद ॥20॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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