वायु -वैशेषिक दर्शन

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  • महर्षि कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छ: पदार्थों का निर्देश किया और प्रशस्तपाद प्रभृति भाष्यकारों ने प्राय: कणाद के मन्तव्य का अनुसरण करते हुए पदार्थों का विश्लेषण किया।
  • जिस द्रव्य में स्पर्श नामक गुण समवाय सम्बन्ध से रहे, उसको वायु कहा जाता है।[1]
  • सूत्रकार के इस कथन में प्रशस्तपाद ने यह बात भी जोड़ी कि वायु में स्पर्श के अतिरिक्त संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व तथा संस्कार ये गुण भी रहते हैं।[2]
  • वायु का स्पर्श अनुष्ण, अशीत तथा अपाकज होने के कारण पृथ्वी आदि के स्पर्श से भिन्न होता है। वायु रूपरहित होता है। वायु भी अणु (नित्य) और कार्य (अनित्य) रूप में दो प्रकार का होता है। कार्यरूप वायु के परमाणुओं में शरीर, इन्द्रिय, विषय और प्राण के भेद से चार प्रकार का द्रव्यारम्भकत्व (समवायिकारणत्व) रहता है।[3]
  • विश्वनाथ के अनुसार विषय में ही प्राण का अन्तर्भाव होने से वायवीय शरीर अयोनिज होते हैं। वे वायुलोक में रहते हैं और पार्थिव अणुओं के संयोग से उपभोग में समर्थ होते हैं वायवीय इन्द्रिय त्वक होती है, जो सारे शरीर में विद्यमान रहती है।[4] किन्तु इस संदर्भ में जयन्त भट्ट का यह कथन भी ध्यान देने योग्य है कि त्वगिन्द्रिय से शरीरावरक चर्म ही नहीं, अपितु शरीर के भीतरी तन्तुओं का भी ग्रहण होना चाहिए। वायु का प्रत्यक्ष नहीं होता। उसका स्पर्श, शब्द, कम्प आदि से अनुमान होता है। वायु की गति तिर्यक होती है। सम्मूर्च्छन (विशेष प्रकार का संयोग) सन्निपात (टकराव), तृण के ऊर्ध्वागमन आदि के आधार पर यह भी अनुमान किया जाता है कि वायु अनेक हैं। शरीर में रस, मल आदि का प्रेरक वायु प्राण कहलाता है और मूलत: एक है, किन्तु स्थानभेद और क्रियाभेद से वह
  1. मुखनासिका से निष्क्रमण और प्रवेश करने के कारण प्राण
  2. मल आदि को नीचे ले जाने के कारण अपान
  3. सब ओर ले जाने से समान
  4. ऊपर ले जाने से उदान और
  5. नाड़ी द्वारों में विस्तृत होने से व्यान कहलाता है।
  • सूत्रकार और प्रशस्तपाद के अनुसार वायु का ज्ञान अनुमान प्रमाण से होता है, किन्तु व्योम शिवाचार्य, रघुनाथ शिरोमणि, वेणीदत्त आदि आचार्यों का यह मत है कि वायु का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण से हो जाता है।[5]
  • अन्नंभट्ट ने रूपरहित और स्पर्शवान को वायु कहा है। अब प्राय: वायु का यही लक्षण सर्वसाधारण में अधिक प्रचलित है।

इन्हें भी देखें: वैशेषिक दर्शन की तत्त्व मीमांसा एवं कणाद


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. स्पर्शवान् वायु:, वै.सू. 2.1.4
  2. प्र.भा. (वायु-निरूपण
  3. न्या.सि.मु. पृ. 44
  4. न्या.म. भाग-2 पृ. 48
  5. व्योमवती, पृ. 274; प.त.नि.पृ. 52-53; प.मां., पृ. 20

बाहरी कड़ियाँ

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