राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में देवनागरी लिपि -पं. रामेश्वरदयाल दुबे

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लेखक- पं. रामेश्वरदयाल दुबे

          मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर उसे अपने नित्य के कार्य करने पड़ते हैं और उनके लिए उसे अन्य व्यक्तियों के साथ विचार विनमय करना होता है। विचार विनमय के माध्यम अनेक हैं, जिनमें भाषा सबसे प्रमुख और सबसे सरल माध्यम है। विभिन्न संकेतों द्वारा भी भाव प्रकट किए जाते हैं। सिर को आगे हिलाना स्वीकृति का सूचक है, दाएं बाएं हिलाना इनकार का द्योतक है। आँखें तरेर कर देखना अथवा मुट्ठी बांध कर तानना क्रोध का सूचक है। इन विभिन्न संकेतों से भाव प्रकट किए जाते हैं और दूसरे लोग उन्हें समझ भी लेते हैं।
          प्रतीकों द्वारा भी संदेश भेजने की प्रथा तो अति प्राचीन काल से विभिन्न देशों में प्रचलित है। संकेतों द्वारा अथवा प्रतीकों द्वारा भाव या विचार प्रकट किए जाते हैं, फिर भी यह कहना ही होगा कि भाव और विचार प्रकट करने का सबसे सरल साधन भाषा है।
          भाषा का जन्म कैसे हुआ, कब हुआ, कैसे भाषा विकसित हुई इस सबकी कहानी कम रोचक नहीं है, किंतु यहां उसकी चर्चा करना विषयांतर हो जाएगा। निश्चित प्रयत्नों के फलस्वरूप मनुष्य के मुख से निकली हुई ध्वनि समष्टि भाषा से बहुत दिनों तक काम चलता रहा होगा। लिपि का जन्म भाषा के जन्म के बहुत समय बाद हुआ होगा। आज भी ऐसे अनेक जन समाज हैं, जिनके पास उनकी अपनी भाषाएं हैं, किंतु लिपि नहीं है।
          भाषा से अपना काम चलाते रहने के बाद आगे चलकर ऐसी आवश्यकता अनुभव हुई होगी कि कोई ऐसा माध्यम मिले, जिसके द्वारा मनुष्य मुख से निकली वाणी, स्थान और कालगत दूरी को पार कर सके।
          मनुष्य की वाणी एक निश्चित दूरी तक ही सुनी जा सकती है। आधुनिक युग में और वह भी अभी अभी वैज्ञानिक अन्वेषकों ने लाउडस्पीकर का आविष्कार कर ध्वनि को कुछ अधिक दूर तक पहुंचाने का प्रयास किया है। ईथर की लहरों का सहारा लेकर रेडियो काफ़ी दूर की ध्वनियों को खींच लाता है। इस तरह ध्वनि के लिए स्थानगत दूरी सिमट रही है। कालगत दूरी की समस्या अब भी बनी हुई।
          प्राचीन काल में इस स्थानगत और कालगत दूरी को समाप्त करने के लिए, दूरस्थ व्यक्ति तक अपनी बात पहुंचाने के लिए तथा अपनी अगली पीढ़ियों के लिए अपने अनुभव, अपनी मान राशि स्थिर करने के लिए एक माध्यम की खोज शुरू हुई होगी। इस दिशा में जो प्रयत्न हुए, जो सफलता मिली उसी से लिपि के जन्म और उसके विकास की कहानी शुरू होती है। आज हम बाल्मीकि के कथन को पढ़ सकते है, तुलसी की रामकथा का रसास्वाद ले सकते हैं, शेक्सपियर के नाटकों से परिचित हो सकते हैं। यह सब लिपि का ही प्रसाद है।
          लिपि की उत्पत्ति के विषय में सबका मत एक सा नहीं है। कुछ लोग मानते हैं कि लिपि भी भगवान की ही कृति है। यह मान्यता केवल भारत में ही नहीं, वरन् विदेशों में भी पाई जाती है किंतु मानना होगा कि इस मत में सार नहीं है। तथ्य यह है कि मनुष्य ने अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए लिपि को जन्म दिया है।
          लिपि के जन्म की खोज करते करते हम वहां पहुंचते हैं, जहां मनुष्य जादू टोने के लिए, अथवा किसी देवता का प्रतीक बनाने के लिए, अथवा स्मरण रखने के लिए कुछ चिन्हों का प्रयोग किया करता था। आज भी अनपढ़ धोबी भिन्न भिन्न घरों के कपड़ों पर भिन्न प्रकार के चिन्ह बना देते हैं, ताकि उन्हें आसानी से खोजा जा सके।
          लिपि का आदि रूप चिन्ह या चित्रलिपि ही है। चित्रलिपि में किसी वस्तु का बोध कराने के लिए उसका चित्र बनाया जाता है। चित्रलिपि का अपना महत्व है। उसके द्वारा ध्वनि बोध भले न हो, अर्थ बोध हो जाता है। किसी भी देश के समाचार पत्र में छपे कार्टून चित्र के अर्थ को उस देश की भाषा न जानने पर भी सहज ही समझा जा सकता है। इस अर्थ में लिपि को ‘अंतर्राष्ट्रीय लिपि’ कह सकते हैं। चित्रलिपि का प्रयोग प्रायः प्रत्येक देश में पाया जाता हैं।
          चित्रलिपि अपने में सरल लिपि नहीं है। भावों और विचारों को प्रकट करने के लिए सरल माध्यम की खोज होती रही। फलस्वरूप ध्वन्यात्मक लिपि सामने आई। इस लिपि में चिन्ह का संबंध ध्वनि से जुड़ा रहता हैं ध्वन्यात्मक लिपि में चिन्ह कोई चित्र नहीं बनाते, वे मात्र ध्वनियों को प्रकट करते हैं। परिणाम यह होता है कि एक व्यक्ति जिन शब्दों को कहना चाहता है, उन्हें वह उस लिपि में लिख देता है, इसलिए पढ़ने वाला पढ़ते समय उन्हीं ध्वनियों को करता है। ‘राम’ लिखा जाता है, ‘राम’ ही पढ़ा जाता है। ध्वन्यात्मक लिपि में अक्षरों का संबंध ध्वनि से होता है, इसलिए किसी भी भाषा को उसमें लिखा जा सकता है।
          भारतीय लिपियों का इतिहास काफ़ी पुराना है। ऐसा माना जाता है कि भारत में लेखन पद्धति का प्रचार चौथी शताब्दी के पहले भी मौजूद था। प्राचीन काल में भारतवासी अपने विचारों को किसी न किसी लिपि में शिलाओं पर, धातुपत्रों पर, ताड़पत्रों पर, भोजपत्रों पर प्रकट किया करते थे। प्राचीन सूत्रग्रंथों में लेखन कला का स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
          विद्वानों का मत है कि प्राचीन काल में भारत में ब्राह्मी, खरोष्ठी और सिंधु घाटी की लिपियां प्रचलित थी। पहली दो लिपियों की जानकारी तो विद्वानों को पहले से ही थी, किंतु मोहन जोदड़ो की खुदाई में प्राप्त मुद्राओं से तीसरी लिपि का भी पता चला है।
          ब्राह्मी ओर खरोष्ठी लिपियों की जन्म भूमि भारत ही है अथवा कोई अन्य देश, इस संबंध में विद्वान् एक मत नहीं हैं। भारत के प्रसिद्ध विद्धान श्री गौरीशंकर हीरानंद ओझा का स्पष्ट कथन है कि ‘ब्राह्मी लिपि आर्यों की अपनी खोज से उत्पन्न किया हुआ मौलिक आविष्कार है। इसकी प्राचीनता और सर्वांग सुंदरता से इसका कर्ता ब्रह्मा देवता मानकर इसका नाम ब्राह्मी पड़ा। चाहे साक्षर ब्राह्मणों की लिपि होने से यह ब्राह्मी कहलाई हो, पर इसमें संदेह नहीं है कि इसका जन्म भारत में ही हुआ था’ सर्वश्र टामस, डासन और कनिंघम आदि विद्वान् श्री ओझा जी के विचारों से सहमत हैं।
          खरोष्ठी लिपि के जो प्राचीनतम लेख मिले हैं, उनसे पता चलता है कि इसका प्रयोग भारत के कुछ हिस्सों में चौथी सदी (ई० पू०) से लेकर होता रहा है। खरोष्ठी लिपि निर्दोष नहीं है इसमें स्वरों की अव्यवस्था है और दीर्घ स्वरों का अभाव है। सदोष होने के कारण खरोष्ठी लिपि भारत में व्यापक न बन सकी और न स्थायी बन सकी। उसका शीघ्र लोप हो गया खरोष्ठी की अपेक्षा ब्राह्मी अधिक व्यापक हुई और विकास करती हुई आगे बढ़ी। खरोष्ठी की अपेक्षा ब्राह्मी लिपि अधिक सुंदर और अधिक गठी हुई थी इसलिए वह लोकप्रिय होती गई। ब्राह्मी में गोलाई का और छोटी लकीरों का प्रयोग होता है जिससे यह लिपि सुंदर लगती है।
          ब्राह्मी लिपि के प्राचीनतम नमूने 5वीं सदी (ई० पू०) के मिले हैं। यह लिपि अपने गुणों के कारण फैलती हुई विकसित होती गई और लोकप्रिय होती गई। उत्तर भारत से दक्षिण भारत तक इस लिपि का प्रयोग होता था। आगे चलकर उत्तर भारत और दक्षिण भारत की ब्राह्मी में भिन्नता आ गई और यह भिन्नता इतनी बड़ी हो गई कि दोनों की समानता में भी संदेह होने लगा। ब्राह्मी लिपि प्रदेशों में पहुंचकर कुछ कुछ भिन्न रूप धारण करने लगी और भिन्न नामों से जानी जाने लगी।
          उत्तर भारतीय ब्राह्मी लिपि का विकास होता गया। गुप्तलिपि, कुटिल लिपि का रूप धारण कर अंत में वह नागरी लिपि कहलाई। संपूर्ण उत्तर भारत में इसका प्रचार था, महाराष्ट्र में भी इसी का व्यवहार होता था। इतने बड़े भू-भाग की लिपि होने के कारण भारत की लिपियों में इसका महत्वपूर्ण स्थान था। इसमें लिखित जो प्राचीनतम लेख प्राप्त हुआ है, वह सातवीं सदी का है।
          भारत के पूर्वांचल में चलने वाली लिपियां बंगला, असमिया, मणिपुरी, उड़िया देवनागरी से बहुत ही अधिक मिलती है। उड़िया लिपि के अनेक अक्षर तो देवनागरी लिपि जैसे ही हैं। भेद केवल शिरोेरेखा का है। जब कागज उपलब्ध नहीं होता थ, तब उत्कल प्रदेश में ताड़पत्रों का उपयोग किया जाता था। ताड़पत्र पर लिखते समय यदि शिरोरेखा सीधी खींची जाए तो ताड़पत्र फटने का डर रहता है इसीलिए वहां शिरोरेखा गोलाकार लगाई गई।
          दो तीन अक्षरों को छोड़कर गुजराती की संपूर्ण लिपि शिरोरेखा विहीन देवनागरी ही है। सिंधी भाषा की लिपि पहले देवनागरी ही थी। मुसलमानी शासन के प्रभाव के कारण उसने सुधरी हुई फारसी लिपि अपना ली थी। देश विभाजन के पश्चात् उसने फिर देवनागरी को अपना लिया है। लगभग 500 सिंधी के साहित्यिक ग्रंथ देवनागरी लिपि में लाएा जा चुके है। अजमेर की सिंधी देवनागरी प्रचारिणी सभा तथा बंबई की एक सिंधी संस्था ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। पाठ्य पुस्तकें देवनागरी में छापी गई है, कई पत्र देवनागरी लिपि में निकल रहे है।
          इतिहास बताता है कि गुप्त साम्राज्य बंगाल से लेकर दक्षिण तक फैला था, अतः गुप्त लिपि, जो कि ब्राह्मी लिपि का ही विकसित रूप था, दक्षिण में भी व्यवहार में आती थी। दक्षिण में पल्लव राजाओं के शिलालेखों में ग्रंथ लिपि और तमिल लिपियों के अतिरिक्त नागरी लिपि का भी प्रयोग होता था। पल्लवों के परवर्ती चोल राजाओं ने भी अपने सिक्कों पर नागरी लिपि का प्रयोग किया था। दक्षिण में इस लिपि का इतना प्रभाव था कि चोल राज्य से आगे उन द्वीपों में भी यह लिपि चलाई गई, जिन्हें चोल राजाओं ने जीता था।
          पश्चिमी चालुओं ने भी अपने शिलालेखों में कन्नड़ लिपि के साथ साथ देवनागरी लिपि का प्रयोग किया था। दक्षिण के राष्ट्रकूट के अधिकांश शिलालेख नागरी में ही मिलते हैं।
          दक्षिण के विजयनगर राज्य में भी देवनागरी का प्रयोग होता था। 15वीं शताब्दी के बाद तो उस प्रदेश की प्रधान लिपि देवनागरी ही थी। 18वीं सदी में तंजाउकर के पहले राजा शिवजी के सौतेले भाई व्यंकोजी ने प्रजा के साथ समरस होने के लिए अपनी मातृभाषा मराठी के साथ स्थानीय भाषाओं को सीखा था और अपनी मातृभाषा मराठी के साथ स्थानीय भाषाओं को सीखा था और उनमें साहित्य की रचना की थी। ये संपूर्ण ग्रंथ देवनागरी में प्रकाशित किए गए। जो तंजाउर के सरस्वती महल ग्रंथ संग्रहालय में देखे जा सकते हैं। ‘पंचभाषा विलास’ नामक नाटक में तो तेलुगु, तमिल, मराठी, हिन्दी तथा संस्कृत, पांच भाषाओं का प्रयोग किया गया है। सभी भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग किया गया है।
          उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारत के दक्षिण प्रदेशों में भी देवनागरी लिपि का प्रचलन था और वहां की प्रबुद्ध जनता देवनागरी से परिचित थी। दक्षिण की पढ़ी लिखी जनता एक दूसरे माध्यम से भी देवनागरी लिपि से परिचित है। संस्कृत भाषा की लिपि देवनागरी है। दक्षिण में देवनागरी जानने वाले और उसके विद्वानों की संख्या उत्तर भारत की अपेक्षा कहीं अधिक है। दक्षिण में संस्कृत का इतना प्रचार है कि वहां ‘सुधर्मा’ नाम की एक दैनिक पत्रिका तक निकलती है। अतः दक्षिण में देवनागरी लिपि जानने वालों की संख्या कम नहीं है।
          भारतीय भाषाओं के लिए जब एक लिपि का समर्थन किया जाता है तब उसमें एक और बात पूर्ण रूप से सहायक होने वाली है। भारत में भाषाओं की लिपि भिन्नता होने पर भी सर्वत्र वर्णमाला की एकता विद्यमान है। भारतीय वर्णमाला के सभी स्वर और व्यंजन बड़े वैज्ञानिक ढंग से उच्चारण स्थान के अनुसार रखे गए हैं। भारतीय वर्णमाला को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। भारत की सभी भाषाओं की वर्णमाला में ध्वनियों को व्यक्त करने वाले स्वरों और व्यंजनों की संख्या और उसका क्रम भी एक सा ही है, अतः यह साम्य देवनागरी लिपि के सीखने में सहायक होता है।
          भारतीय वर्णमाला तो देश के बाहर भी कहीं कहीं पर कुछ अंश में प्रचलित है। ‘आकार’ से लेकर ‘हकार’ तक चलने वाली भारतीय वर्णमाला नेपाल, भूटान, तिब्बत, बर्मा, श्याम, लंका आदि देशों में किसी न किसी रूप में प्रचलित है। मध्य एशिया, कोचीन, मलाया,, यवद्वीप, बलद्वीप, सुमात्रा, फिलीपीन्स, महाचीन आदि देशों में भारतीय वर्णमाला का आंशिक रूप में प्रचार है। अतः यह वर्णमाला विदेशों में भी देवनागरी के प्रचार में सहायक हो सकती है।
          आज भारत राष्ट्र का सबसे बड़ी आवश्यकता यदि किसी वस्तु की है, तो यह वह है राष्ट्रीय एकता की। विकास की सभी सीढ़ियों का आधार राष्ट्रीय एकता है। अतः प्रत्येक देशभक्त का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह उन सभी मार्गों का अवलंबन करे, जो एकता की स्थापना में सहायक सिद्ध होते हों।
          राष्ट्रपिता गांधी जी इतने दूरदर्शी थेा कि उन्होंने उन सभी समस्यायों पर बहुत पहले विचार किया था, जो आज हमारा ध्यान आकर्षित कर रही है। राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार प्रसार का बहुत कुछ श्रेय उन्हीं को है। किंतु इसी के साथ उन्होंने एक दूसरे विषय की ओर भी संकेत किया था, जो कम महत्व का नहीं है। वह था देवनागरी लिपि का प्रचार।
          गांधी जी चाहते थे कि भारत की सभी प्रांतीय भाषाओं की एक ही लिपि हो जाए। गांधी जी ने एक स्थान पर लिखा था-
‘लिपि-विभिन्नता के कारण प्रांतीय भाषाओं का ज्ञान आज असंभव सा हो गया है। बंगला लिपि में लिखी हुई गुरुदेव की गीतांजलि को सिवा बंगालियों के और कौन पढ़ेगा ? पर यदि यह देवनागरी में लिखी जाए, तो उसे सभी लोग पढ़ सकते हैं।
          ‘हमें अपने बालकों को विभिन्न प्रांतीय लिपियां सीखने का कष्ट नहीं देना चाहिए। यह निर्दयता नहीं तो और क्या है कि देवनागरी के अतिरिक्त तमिल, तेलुगु , मलयालम, कन्नड़, उड़िया और बंगला इन छह लिपियो को सीखने में दिमाग खपाने को कहा जाए। आज कोई प्रांतीय भाषा सीखना चाहे तो लिपियों का यह अमेद प्रतिबंध ही उनके मार्ग में कठिनाई उपस्थित करता है।
          स्पष्ट है कि गांधी जी देवनागरी लिपि के पक्के हिमायती थे और भारत की राष्ट्रलिपि के स्थान पर उसे बैठाना चाहते थे। इतना ही क्यों प्रांतीय भाषा के लिए देवनागरी लिपि के प्रयोग की दिशा में कुछ कार्य भी किया था। उनकी ही प्रेरण से ‘नवजीवन प्रकाशन, अहमदाबाद’ ने उनकी आत्मकथा ‘सम्यनो प्रयोग’ को गुजराती भाषा और देवनारी लिपि में प्रकाशित किया था।
          गांधी के पहले भी स्वामी दयानंद सरस्वती, बंकिम चंद्र चटर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले, रवींद्रनाथ ठाकुर, जस्टिस शारदाचरण मित्र, लोकमान्य तिलक आदि सुधी पुरुषों ने देश के लिए एक सामान्य लिपि के रूप में देवनागरी की स्वीकार किया था
          स्वामी दयानंद की मातृभाषा गुजराती थी, फिर भी उन्होनें अपने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की किरणें हिन्दी और देवनागरी के द्वारा बिखेरी थीं। देवनागरी लिपि के समर्थकों में महत्वपूर्ण नाम है जस्टिस श्री शारदा चरण मित्र का और उसके जनक थे श्री शारदाचरण जी। उन्होंनें एक लिपि विस्तार परिषद की स्थापना की और ‘देवनागर’ नाम की एक पत्रिका निकाली। श्री शारदा चरण मित्र ने इसमें लिखा था।
          जगत विख्यात भारतवर्ष ऐसे महादेश में, जहां जाति पांति, रीति नीति, मत आदि के अनेक भेद दृष्टिगोचर हो रहे है, भाव की एकता रहते हुए भी भिन्न भिन्न भाषाओं के कारण एक प्रांतवासियों के विचारों सेदूसरे प्रांतवालों का उपकार नहीं होता। इसलिए एक ऐसा वृक्ष रोपना चाहिए जिसमें सर्वप्रिय फल लगे भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों की भिन्न भिन्न बोलियों को एक लिपि में लिखना ही उस आशानुरूप फल को देने वाला प्रधान अंकुर है।
          एक बंगाल क्या, सभी प्रांतों के विद्वानों ने भारत की सभी भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि का समर्थन किया था। दक्षिण के श्री कृष्णास्वामी अय्यर ने एक बार कहा था कि विभिन्न लिपियों का व्हवहार करने से हम कितनी बड़ी हानि उठा रहे हैं, क्योंकि वे जनता के एक भाग को दूसरे भाग से पृथक् करती है। भाषा अलग अलग हो भी, किंतु यदि उनकी लिपि एक ही हो, तो लोगों को शब्दों वाक्यों की अभिव्यक्ति के ढंग की समानता के कारण अपनी भाषा के अतिरिक्त अन्य भाषाओ का समझना भी सरल होगा।
          डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, लोकमान्य तिलक, डाॅ. सुनीति कुमार चटर्जी, डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य विनोवा भावे आदि सभी ने राष्ट्रलिपि के रूप में देवनागरी का समर्थन किया है। डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद ने एक स्थान पर लिखा है ‘वर्तमान युग में भारतीय संस्कृति के समन्वय के प्रश्न के अतिरिक्त यह बात भी विचारणीय है कि भारत की प्रत्येक प्रादेशिक भाषा की सुंदर आनंदप्रद कृतियों के स्वाद को भारत के अन्य प्रदेशों के लोगों को कैसे चखाया जाए ? इस बारे में यह उचित ही होगा कि प्रत्येक भाषा की साहित्यिक संस्थाएं उस भाषा की कृतियों को संघ लिपि अर्थात् देवनागरी में भी छपवाने का आयोजन करें।
          एक लिपि के हो जाने पर किसी देश या किन्हीं देशों को कितना लाभ प्राप्त होता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण चीन, यूरोप के देश हैं। चीन एक विशाल देश है। इसकी आबादी सवा सौ करोड़ से भी ज्यादा है। जगह-जगह के उच्चारण के कारण भाषा भेद पैदा हो जाता है। चीन में भाषाएं तो अनेक हैं किंतु सारे चीन में एक ही लिपि (चित्रलिपि) प्रचलित है। इसलिए इस लिपि को पढ़कर प्रत्येक चीनी अपनी भाषा में उसे समझ लेता है।
          यूरोप में बहुत छोटे-छोटे अनेक राष्ट्र हैं और प्रत्येक राष्ट्र की अपनी पृथक् भाषा है, किंतु सम्पूर्ण यूरोप में एक ही लिपि ‘रोमन’ का प्रयोग होता है। इस सुविधा का सबसे अधिक लाभ स्कूल के बच्चे उठाते हैं। स्कूल में पढ़ते समय ही बच्चे चार पांच भाषाएं आसानी से सीख लेते हैं, क्योंकि दूसरी भाषाओ को सीखते समय उनकी भिन्न भिन्न लिपियों के सीखने का कष्ट उन्हें उठाना नहीं पड़ता।
          आचार्य विनोबा भावे ने नागरी लिपि के प्रचार प्रसार पर बहुत जोर दिया है। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है।
          ‘सारे भारत को एक रखने के लिए उसे जितने स्नेह बंधनों से बांध सकते हैं, उतने स्नेह बंधनों की आज ज़रूरत है। जैसे हिन्दी एक स्नेह तंतु है, उतने ही महत्व का स्नेह तंतु देवनागरी लिपि है। आज लोग अपनी भिन्न-भिन्न भाषाएं भिन्न-भिन्न लिपियों में लिखते हैं। साथ साथ नागरी में भी लिखते तो कितना लाभ होता। उनकी लिपि अच्छी है सुंदर है। हम उसका विरोध नहीं करते, परंतु उसके साथ साथ ऐच्छिक तौर पर नागरी में भी वह भाषा लिखना शुरू करते हैं, तो सारे भारत की भिन्न-भिन्न भाषाएं एक दूसरे को सीखना सुलभ होगा।
          देवनागरी का समर्थन करते हुए आचार्य विनोवा ने दूसरे स्थान पर कहा है-‘हिन्दुस्तान की एकता के लिए हिन्दी भाषा जितना काम देगी, उससे अधिक काम देवनागरी लिपि देगी। इसलिए मैं चाहता हूं कि हिन्दुस्तान की समस्त भाषाएं देवनागरी में लिखी जाएं। सब लिपियां चलें, साथ साथ देवनागरी का भी प्रयोग किया जाए।
          देवनागरी के प्रचार प्रसार को विनोबा जी एक आंदोलन का रूप देना चाहते थे। इस दिशा में वे अनेक वर्षों से प्रभावशील थे। और उनकी प्रेरणा से उनका लोकप्रिय ग्रंथ ‘गीता प्रवचन’ तेरह चैदह भाषाओं में प्रकाशित हो चुका है। इन सबकी लिपि देवनागरी ही है। उनकी प्रेरणा से अनेक भाषाओ मे, किंतु देवनागरी लिपि में प्रकाशित होने लगे हैं।
          भारत में दो वर्णमालाएं हैं, जिनकी दो भिन्न लिपियां हैं। ये हैं: फारसी (उर्दू) लिपि और रोमन लिपि। इन दोनों को कुछ विशेष कारणों से थोड़ा महत्व मिल गया है। ये दोनों लिपियां विदेशी हैं। भारत में रोमन लिपि का तो राष्ट्रीय दृष्टि से कोई स्थान नहीं है। अंग्रेजी के साथ वह बनीं रह सकती है, किंतु उसे अपनाने का प्रश्न ही नहीं उठता।
          सरल हिन्दी और सरल उर्दू एक ही भाषा है। हां लिपियों की भिन्नता उन्हें अलग कर देती है। अगर उर्दू के समर्थक राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर उर्दू के लिए देवनागरी लिपि को स्वीकार कर लें, तो न जाने देश की कितनी समस्याएं अपने आप सुलझ जाएं। पिछले दिनों में उर्दू का बहुत कुछ साहित्य देवनागरी लिपि में आ चुका है। कितना अच्छा हो यदि उर्दू के लेखक अपनी कृतियों को देवनागरी में प्रकाशित कराया करें। देखा गया है कि उर्दू लेखकों की जिन जिन कृतियों को देवनागरी में प्रकाशित किया गया है, उनका प्रचार विशेष हुआ है क्योंकि हिन्दी का क्षेत्र उर्दू की अपेक्षा बहुत बड़ा है।
          गांधी जी ने मुसलमान भाइयों से भी यह अपेक्षा रखी थी कि वे देवनागरी लिपि को भी सीख लें। हिन्दीतर प्रदेशों के मुसलमान अपने अपने प्रदेश की लिपियों से परिचित हैं। ये लिपियाँ देवनागरी से मिलती जुलती हैं। लिपि, भाषा का परिधान मात्र है। इसलिए लिपि के साथ धार्मिक अथवा भावनापरक संबंध जोड़ना उचित नहीं है। ऐसा करने से लिपि प्रचार और उसके परिष्कर करने के मार्ग में बाधाएं उपस्थित हो जाती हैं।
          उर्दू के अनेक विद्वानों और राष्ट्रीय मुसलमानों ने खुले दिल से देवनागरी लिपि का समर्थन किया है। हजरत ताराशाह चिश्ती समिति आगरा के अध्यक्ष श्री मौलाना हाफिज रमजान अली कादरी ने एक पत्र में स्पष्ट शब्दों में लिखा है ‘हम व हमारे मुरीदों व शिष्यों की निगाह में देवनागरी प्रचार का एक सच्चा आंदोलन है। इसमें कोई शक-शुबह नहीं है कि देवनागरी ही एक ऐसी लिपि है जो एशिया को और कम से कम हिन्दुस्तान को एक धागे में बांधने की ताकत रखती है। इस आंदोलन को सफल बनाने में हमारी खिदमत में आपके साथ हैं।’
          महाराष्ट्र राज्य के भूतपूर्व राज्यपाल श्री अली यावर जंग ने अपना विचार इन शब्दों में प्रकट किया है-‘मेरा मत यह है कि उर्दू सहित प्रत्येक भाषा को अपनी लिपि में स्वतंत्रता होनी चाहिए, लेकिन देवनागरी लिपि को देश में जोड़ लिपि के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए।
          केंद्रीय सरकार के भूतपूर्व शिक्षामंत्री श्रीयुत नुरूल हमन ने नागरी लिपि परिषद को जो संदेश भेजा था, उससे देवनागरी के संबंध में भारत की केंद्रीय सरकार का रुख स्पष्ट होता है। उन्होंने लिखा था - ‘हमारे देश की विभिन्न भाषाओ का साहित्य विशाल और समृद्ध है लेकिन अभी यह साहित्य सिर्फ इन भाषाओं की परंपरागत लिपियों में ही है। इन परंपरागत लिपियों की रक्षा और उन्नयन तो करना ही है, लेकिन उसके साथ साथ विभिन्न भाषाओं के साहित्य का कुछ अंश यदि एक संपर्क लिपि में भी उपलब्ध हो सके, तो विभिन्न प्रदेशों के लोग दूसरे प्रदेशों के विकसित साहित्य को आसानी से पढ़ सकेंगे और इस प्रकार राष्ट्रीय एकता के दृष्टिकोण से यह एक स्पष्ट लाभ होगा। यह संपर्क केवल देवनागरी में ही हो सकता है।
          इस संदर्भ में भारत सरकार एक जोड़ लिपि की आवश्यकता के प्रति सदैव सजग रही है। इसी आवश्यकता को 1961 में मुख्य मंत्रियों के सम्मेलन में भी औपचारिक रूप से स्वीकार किया गया था। अतः केंद्रीय सरकार द्वारा विभिन्न भारतीय भाषाओं के कुछ संकेत चिन्ह जोड़े गए हैं। इस प्रकार से विकसित लिपि अब ‘परिवर्तित देवनागरी कहलाती है।
          अभी तो सुझाव इतना ही है कि प्रादेशिक भाषाएं अपनी लिपि के साथ साथ देवनागरी लिपि का भी प्रयोग करें। दूर भविष्य में यह सुझाव भी आ सकता है कि भारत में एक लिपि देवनागरी रहे। ऐसा सुझाव आने पर कुछ मौलिक प्रश्न उठ खड़े होते हैं।
पहला प्रश्न यह उठता है कि यदि देवनागरी को स्वीकार कर लिया जाए तो, क्या वर्तमान लिपियो को लुप्त होन दिया जाएगा ?
दूसरा प्रश्न यह उठता है कि प्रांतीय लिपियों में जो असीम सुंदर साहित्य पड़ा है, लिपि के लुप्त होते ही उसका क्या होगा ?
तीसरा प्रश्न यह कि वर्तमान समय में भाषा को लेकर इतनी ताना तानी है, तब क्या यह उचित होगा कि एक नये लिपि आन्दोलन को अंकुरित किया जाए ?
तीनों ही प्रश्न गंभीर हैं और उन पर विचार करना हागा।
          यह तो स्वीकार करना ही होगा कि भारत राष्ट्र में आवश्यकता से अधिक लिपियां हैं जो प्रांत प्रांत के बीच थोड़ा व्यवधान उपस्थित करती हैं। लिपि परिवर्तन का काम जल्दी नहीं हो सकता। प्रत्येक सुधार और प्रत्येक परिवर्तन का सही रूप होना चाहिए यदि इस दिशा में धीरे धीरे बढ़ा जाए, तो यह परिवर्तन भी सहनीय हो जाएगा।
          साहित्य के संबंध में भी यही कहा जा सकता है। उचित होगा कि प्रांतीय साहित्य को धीरे धीरे देवनागरी लिपि में भी हम प्रकाशित करते चलें। देवनागरी में प्रकाशित प्रांतीय साहित्य का क्षेत्र संभवतः व्यापक होगा। अतः आर्थिक दृष्टि से यह लाभप्रद ही होगा। जहां तक प्राचीन साहित्य का प्रश्न है, उसका जितना अंश सुंदर है, शक्तिशानी है, समृद्ध है, देवनागरी में अपने आप स्थान बना लेगा। रविबाबू, शरत, प्रेमचंद, प्रसाद, मेधाणी, बल्लतोल, तमिल कवि भारती जैसे साहित्यकारों की रचनाएं भाषा और लिपि की सीमाएं पार कर देश में और विदेशों में पहुंच ही रही हैं। सुंदर समृद्ध साहित्य नष्ट नहीं हो सकता। उसमें अमर रहने की अर्वणनीय शक्ति रहती है।
          तीसरे प्रश्न का उत्तर और भी सरल है। ज्यों ज्यों हममें राष्ट्रीय भावना का उदय होगा, उसका विकास होगा, त्यो त्यों हम अपनी क्षुद्र सीमाओं से ऊपर उठेंगे। ज्यों ज्यों राष्ट्रीय गौरव का भार होगा, विभेदी विचार स्वयं ही नष्ट हो जाएंगे।
          देवनागरी लिपि के प्रचार प्रसार का काम शुरू हो चुका है। और इस दिशा में काफ़ी काम हो चुका है, हो रहा है। लखनऊ निवासी भुवन वाणी ट्रस्ट के संचालक श्री नंदकुमार अवस्थी द्वारा प्रादेशिक भाषाओं का विपुल प्राचीन साहित्य हिन्दी अनुवाद के साथ देवनागरी लिपि में प्रकाशित हो चुका है। दिल्ली विश्वविद्यालय और केंद्रीय साहित्य अकादमी ने भी इस दिशा में सराहनीय कार्य किया है। बर्धा की राष्ट्रभाषा प्रचार समिति ने ‘कविश्रीमाला’ नाम से प्रादेशिक साहित्य के 25 ग्रंथ देवनागरी में प्रस्तुत किए हैं।
          भारत के पूर्वांचल में रहने वाली पहाड़ी जातियों की भाषाओं की कोई लिपि नहीं थी। मिशनरी पादरियों ने उनकी भाषाओं को रोमन लिपि दी है। इन भाषाओं को देवनागरी लिपि देने का प्रयत्न किया जा रहा है। जिन पहाड़ी और आदिवासियों की भाषाओं की कोई लिपि ही नहीं थी, उन्हें देवनागरी लिपि दी जा रही है। अरुणाचल की विभिन्न भाषाओं की पुस्तकें देवनागरी में छानी गई हैं। पुणे की ‘ज्ञान प्रयोधिनी’ संस्था ने तो अंग्रेजी भाषा की रीडरें देवनागरी लिपि में प्रकाशित की हैं।
          देवनागरी प्रचार के इसी प्रकार के काम विभिन्न स्थानों पर विभिन्न संस्थाओं और व्यक्तियों द्वारा हो रहे हैं। जो लिपि अभी संपूर्ण भारत के लिए जोड़ लिपि भी न बन सकी हो, उसे पूर्वी एशिया की लिपि, या ‘विश्वलिपि’ बनाने की बात एक स्वप्न ही समझी जाएगी, परंतु यह मनुष्य का ही सौभाग्य है कि मनुष्य पहले स्वप्न देखता है फिर अपने पुरुषार्थ के बल पर उसे सत्य में रूपांतरित करता है। लेकिन यह मात्र कल्पना की ही बात नहीं है। अंतराष्ट्रीय संदर्भ में भी देवनागरी लिपि का महत्व है ही।
          पहले ही लिखा जा चुका है कि पूर्व एशिया के देशों और द्वीपों में दक्षिण के आर्यों के द्वारा जो सांस्कृतिक अभियान हुए उनमें बहुत बड़ी संख्या में लोग, जिनमें व्यापारी भी थे, उन देशों और द्वीपों में पहुंच और बस गये। वे अपने साथ अपनी भाषा और लिपि जो ब्राह्मी से उद्भूत थी, लेते गये इन देशों में भारतीय संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव वहां देखा जा सकता है। इसलिये बर्मा, थाइलैंड, स्याम आदि देशों में देवनागरी का प्रचार आसानी से हो सकता है।
          श्रीलंका में बौद्ध धर्म भारत से ही गया था। संस्कृत और पालि के जो ग्रंथ वहां पहुंचे, देवनागरी में थे। इसलिए श्रीलंका निवासी देवनागरी से अपरिचित नहीं हैं। डाॅ. शेर सिंह ने अपने एक लेख में लिखा है। कि ब्राह्मी लिपि ने इस देश के बाहर भी प्रचार प्रसार पाया था। भारत से लेकर मध्य एशिया और चीन जापान तक धार्मिक ग्रंथों के लिए देवनागरी का प्रयोग होता था। सातवीं शताब्दी के मध्य में तिब्बत के राजा सुमितन्न गप्पा ने अपने अनेक विद्यार्थियो को नालंदा भोजकर तिब्बत में इस लिपि का आयात किया था।
          चीन में जो चित्रलिपि प्रचलित है वह अपनी दुरूहता के कारण प्रिय नहीं हो रही है। वहां के विद्वान् अपनी चीनी भाषाओं के लिए एक लिपि की तलाश में है। आचार्य विनोबा का मानना है कि अगर सही ढंग से सेवा भावना से नागरी लिपि को चीन के विद्वानों के सामने पेश किया जाए, तो चीनी भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि को अपनाया जा सकता है।
          यह देखकर आश्चर्य और प्रसन्नता होती है कि जापानी भाषा और हिन्दी भाषा का वाक्य विन्यास लगभग एक सा ही होता है। हिन्दी में जैसे पहले कर्ता, फिर कर्म, फिर क्रिया होती है। (जैसे राम ने आम को खाया) जापानी भाषा में भी ठीक यही क्रम होता है। बौद्ध धर्म के अनुयायी होने के कारण, धार्मिक ग्रंथों के कारण जापानी लोग देवनागरी से परिचित ही हैं। यदि जापानी भाषा देवनागरी को अपना ले, तो जापानी और हिन्दी एक दूसरे के निकट आ जाएंगी।
          संसार के कई ऐसे देश औरर द्वीप हैं, जहां भिन्न भिन्न कारणों से लाखों भारतीय विशेषतः हिन्दी भाषी लोग पहुंचे हैं और वहीं बस गए हैं। उनके साथ उनकी भाषाएं गई, देवनागरी लिपि गई। ऐसे देशों में सूरीनाम, माॅरिशस, गयाना, ट्रिनिडाड, फीजी आदि का नाम आसानी से लिया जा सकता है, इन देशों में हिन्दी भाषा और देवनागरी का खूब प्रचार है। कहीं कहीं राजभाषा हिन्दी है, राजलिपि देवनागरी है।
          स्वतंत्र हो जाने के पश्चात् विश्व में हिन्दी भाषा का मान बढ़ा है। संसार के 74 विश्वविद्यालयों में हिन्दी का अध्ययन अध्यापन विधिवत होता है। हिन्दी के साथ देवनागरी वहां पहुंची। देवनागरी लिपि अपने सहज स्वाभाविक गुणों के कारण सभी जगह लोकप्रिय हो रही है। उसकी वैज्ञानिक पृष्ठभूमि को समझा जा रहा है, इसलिए आश्चर्य नहीं होगा, यदि कभी भविष्य में देवनागरी लिपि अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर चमक उठे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
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57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे