राजभाषा: कार्याचरण और सामासिक संस्कृति -डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति

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लेखक- डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति

स्वतंत्रता प्राप्ति के पैंतीस वर्ष के बाद भी देश की राजभाषा विषयक समस्या को लेकर विचार मंथन क दिशा में अग्रसर होने की हमारी प्रवृत्ति अभी अवशिष्ट ही रह गई है, यह कोई प्रसन्नता और संतोष का विषय नहीं कहा जा सकता। कोई तकपूर्ण शैली में यह नहीं कहा कह सकता कि एक बड़े देश के लिए पैंतीस वर्ष का समय नगण्य हैं, कुछ नहीं है। परंतु यह बात भी सत्य है कि इतने समय की मानवीय शक्ति तथा राष्ट्रीय धन निरर्थक भी नहीं होना चाहिए। स्वराज्य या स्वातंत्रय का प्रयोजन जनराज्य या लोकतंत्र है तो सरकार का कामकाज भी जनभाषा में होना चाहिए, यह सर्वथा तर्कसंगत है। महात्मा गांधी जी की यह उक्ति यहाँ स्मरणीय है- ‘अगर हमारे देश का स्वराज्य अंग्रेज़ी बोलने वाले भारतीय का और उन्हीं के लिए होना वाला है, तो निःसंदेह अंग्रेज़ी ही राजभाषा होगी, लेकिन अगर हमारे देश के करोड़ों भूखों मरने वालों, करोड़ों निरक्षर बहनों और दलित जनों का है और इन सब के लिए होने वाला है तो हमारे देश में हिन्दी का एकमात्र राजभाषा हो सकती है।’ देश की राजभाषा के संबंध में गंभीरतापूर्वक विचार कर हमारे संविधान निर्माताओं ने भारतीय संविधान में अनेक उपबंध किए हैं। इन उपबंधों का सही कार्याचरण करने से हमारे वांछित उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है। भारतीय संविधान के अनुसार उपर्युक्त विषयक जो अनेक उपबंध है, उनको सार रूप में इस प्रकार बताया जा सकता है।

  1. संघ की राजभाषा, राष्ट्रपति के आदेश, राजभाषा आयोग, राजभाषा अधिनियम तथा राज्यों की राजभाषाएँ।
  2. संसद में प्रयोग होने वाली भाषा
  3. कानून बनाने के लिए तथा उच्चतम और उच्च न्यायालयों आदि की भाषा।

प्रस्तुत विषय के प्रतिपादन के लिए उपर्युक्त बातों का किंचित विवरण भी अपेक्षित होता है।

संघ की राजभाषा

अनुच्छेद 343 में संघ की राजभाषा के संबंध में जो कहा गया है, उसका सार यह है कि संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष के लिए सब राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के प्रयोग के विषय में उस अनुच्छेद के खंड 2 में तथा उस कालावधि के पश्चात् अंग्रेजी भाषा के प्रयोग और अंकों के देवनागरी रूप के प्रयोग के विषय में उसी अनुच्छेद के खंड 3 में बताया गया है। खंड 1 में ही राजभाषा के संबंध में बताने के साथ साथ भारतीय अंकों के अंतराष्ट्रीय रूप के प्रयोग के बारे में भी बताया गया है।
उपर्युक्त अनुच्छेद 343 के खंड 2 के अधीन राष्ट्रपति का एक आदेश 1952 में जारी किया गया, जिसमें राज्यों के राज्यपालों, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के नियुक्ति अधिपत्रों के लिए अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त देवनागरी के अंकों के प्रयोग को प्राधिकृत किया गया एवं 1955 में जारी किए गए राष्ट्रपति के एक और आदेश के अनुसार संघ के निम्नांकित राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के अतिरिक्त हिन्दी भाषा के प्रयोग को प्राधिकृत किया गया -

  1. जनता के साथ पत्र व्यवहार
  2. प्रशासनिक रिपोर्ट, सरकारी पत्रिकाएँ और संसद में प्रयुक्त की जाने वाली रिपोर्ट
  3. सरकारी संकल्प और विधायी अधिनियम
  4. जिन राज्य सरकारों ने हिंदी को अपनी राजभाषा के रूप में अपना लिया है उनके साथ पत्र-व्यवहार
  5. संधियाँ और करार
  6. अन्य देशों की सरकारों और उनके दूतों और अंतराष्ट्रीय संगठनों के साथ पत्र व्यवहार
  7. राजनीयिक तथा कौंसली अधिकारियों और अंतराष्ट्रीय संगठनों में भारत के प्रतिनिधियों को जारी किए जाने वाले औरचारिक कागज पत्र।

संघ की राजभाषा हिन्दी के विकास के लिए अनुच्देद 351 में जो निर्देश दिया गया है, वह इस प्रकार है - “हिन्दी भाषा की प्रसार, वृद्धि करना, उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृतिक के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके तथा उसकी आत्मीयता में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी और अष्टम अनुसूची में (अष्टम अनुसूची में उल्लिखित भाषाएँ हैं- तेलुगु, पंजाबी, बंगला, मराठी, असमिया, उड़िया, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, गुजराती, तमिल, मलयालम, संस्कृत, और हिन्दी)” उल्लिखित अन्य भारतीय भाषाओं के रूप में शैली और पदावली को आत्मसात करते हुए जहाँ आवश्यक या वांछित हो वहाँ उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से तथा गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करना संघ का कर्तव्य होगा। हिन्दी भाषा के उत्तरोत्तर अधिक प्रयोग के लिए अंग्रेजी भाषा के प्रयोग पर निर्बधरों के लिएसंचार की भाषा के संबंध में निर्णय करने के लिए तथा संघ के राजकीय प्रयोजनों में से सब या किसी के लिए अनुच्छेद 344 में एक आयोग गठित करने तथा तदनुसार आदेश जारी करने का अधिकार ‘राजभाषा आयोग ’ है। उसके तीस सदस्यों में बीस सदस्य लोकसभा के तथा दस सदस्य राज्यसभा के सदस्यों द्वारा अनुपाती प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा निर्वाचित हुए। उक्त आयोग की सिफारिशों के अनुसार राष्ट्रपति ने 1960 में एक आदेश जारी किया, जिसमें निम्नांकित महत्वपूर्ण बातें हैं

  1. वैज्ञानिक तक तकनीकी शब्दावली केनिर्माण के लिए शिक्षा मंत्रालय को एक स्थायी आयोग स्थापित करना चाहिए।
  2. शिक्षा मंत्रालय सांविधिक नियमों, विनियमों और आदेशों के अतिरिक्त सभी मैन्युअलों तथा कार्य विधि साहित्य का अनुवाद अपने हाथ में ले ले और भाषा में एक रूपपता सुनिश्चित करने की आवश्यकता की दृष्टि से यह काम केवल एक ही अभिकरण को सौंपा जाए।
  3. एक मानक विधि शब्दकोष बनाने, हिन्दी में विधि के पुनः अधिनियम और विधि शब्दावली के निर्माण के लिए विभिन्न राष्ट्रीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले कानून के विशेषज्ञों का एक स्थायी आयोग स्थापित किया जाए।
  4. तृतीय श्रेणी के नीचे के कर्मचारियों, औद्योगिक संस्थाओं के कर्मचारियों और कार्य प्रभारित कर्मचारियों को छोड़कर उन सभी केंद्रीय सरकारी कर्मचारियों के लिए हिन्दी का सेवाकालीन प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया जाए जिनकी आयु दिनांक 1-1-61 को 45 वर्ष से कम हो। गृह मंत्रालय टंकणों और आशुलिपिकों को हिन्दी टंकण तथा आशुलेखन का प्रशिक्षण देने के लिए भी प्रबंध करें।

राष्ट्रपति के उपर्युक्त आदेश के तथा राजभाषा अधिनियम, 1963 जो 1967 में संशोधित हुआ और राजभाषा नियम, 1976 के अनुसार हिन्दी को संघ की राजभाषा के आसन पर पूर्णरूपेण आसीन करने का प्रयत्न किया जा रहा है यद्यपि इस प्रयत्न के सभी अंग समान रूप से प्रभावशील और फलकारी सिद्ध नहीं हुए हैं। तमिलनाडु जैसे अहिन्दी राज्य में हिन्दी विरोधी आंदोलन होने से तथा संसद में अहिन्दी भाषी सदस्यों द्वारा आग्रह होने से पंद्रह वर्ष की कालावधि के लिए अंग्रेजी को संघ की राजभाषा के रूप में पहले जो स्वीकार किया गया था, वह 1965 के बाद भी जारी रखकर कालावधि की बात ही हटा दी गई अर्थात अनिश्चित काल के लिए संघ की राजभाषा वाला प्रश्न वैसा ही छोड़ दिया गया, इसलिए यह निश्चित नहीं है कि हिन्दी पूर्ण रूप से संघ की राजभाषा के रूप में सहराजभाषा के रूप में नहीं एकमात्र राजभाषा के रूप में कब प्रतिष्ठित होगी। संविधान निर्माताओं ने बहुत सोच समझकर संविधान के लागू होने से पंद्रह वर्ष की कालावधि तक अंग्रेजी के प्रयोग को स्वीकार करना कोई शुभकर बात नहीं कही जा सकती। जिस प्रकार संविधान निर्माताओं ने प्रारंभ में कालावधि निश्चित की थी उसी प्रकार अहिन्दी भाषाभाषियों को इस संबंध में आश्वासन कालावधि निश्चित करके दिया जा सकता था। वांछित होने पर कालावधि बाद में बढ़ाई जा सकती थी, जैसा कि अन्य मामलों में किया गया है। यह सर्वथा सत्य है कि संविधान के अनुच्छेद 344 के खंड 2 में राजभाषा आयोग द्वारा लोक सेवाओं के बारे में अहिन्दी भाषाभाषी क्षेत्रों के लोगों के न्यायपूर्ण दावों और हितों की सम्यक रक्षा की बात कही गई है। संपूर्ण देश के हित के विचार से, राजभाषा के निश्चय के विचार से अनिश्चित काल की संज्ञा भ्रमकारक सिद्ध होती है। इस कारण नई भाषा सीखने वालों के मन में एक प्रकार का ढीलापन और ताटस्थ्य भाव उत्पन्न हो जाता है तथा उस भाषा के लोगों के मन में भी विचित्र भावों की शबलता दृष्टिगोचर होने लगती है। आज दिन तो हम ये सब देख रहे हैं। यह मानते हुए भी कि हिन्दी के विकास के लिए अनेक योजनाएँ कार्यान्वित हो रही हैं, सरकारी कार्योलयों में उसकी बढ़ोत्तरी के प्रयन्त हो रहे हैं, तथा देश के नेता और गण्यमान व्यक्ति उसके संबंध में अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। यह भी मानना पड़ेगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व हिन्दी के प्रति जो निष्ठा थी, हिन्दी के प्रति जो प्रेम था, अहिन्दी प्रदेशों में हिन्दी सीखने के लिए जो अदम्य उत्साह था और हिन्दी का कार्यक्रम एक राष्ट्रीय कार्यक्रम समझकर उसमें प्रवृत होने की जो मनोभावना थी, वह आज नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व जैसे कुछ लोग कहते थे कि हमारे समय में देश आजाद नहीं होगा, वैसे ही आज कुछ लोग, गई हिन्दी प्रेमी सेवक यह बताते हैं कि हमारे जीवनकाल में हिन्दी राजभाषा के आसन परपूर्ण रूप से प्रतिष्ठित नहीं होगी और यह भी नहीं कहा जा सकता कि प्रतिष्ठित होगी भी या नहीं। यह नैराश्य काअपस्वर नहीं है, बल्कि वस्तुस्थिति का अवलोकन है। ताप्या से सब कुछ मिलता सकता है, भाषा भी एक तपस्या है, उसके लिए कठोर तपस्या करनी पड़ेगी, राजभाषा हिन्दी के लिए की जाने वाली हमारी तपस्या व्यर्थ नहीं होगी, यह भावना भी कई लोगों के मन में है। जहाँ तक राजभाषा का सवाल है, यह कहा जा सकता है कि हम लोग संधिकाल में हैं। अस्तु, सरकार के द्वारा कार्यान्वित किए जा रहे कार्यक्रमों के संबंध में विचार करने के पहले राजभाषा अधिनियम के संबंध में तथा अखिल भारतीय राजभाषा सम्मेलन में अंगीकृत कुछ महत्वपूर्ण बातों के विषय में विचार करें।

राजभाषा अधिनियम

राजभाषा (संशोधन) अधिनियम, 1967 तथा राजभाषा नियम, 1976 के अनुसार हिन्दी के राजभाषा पात्र निर्वहण की स्थिति का परिचय यत्किंचित् रूप में मिल जाता है। राजभाषा अधिनियम की धारा (1) में राज्यों की बीच पत्रादि की भाषा के संबंध में बताते हुए अंग्रेज़ी की स्थिति का जहाँ स्पष्ट कर दिया गया है, वहाँ यह भी बताया गया है कि इस उपधारा की किसी भी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह किसी ऐसे राज्य को? जिसने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संघ के साथ या किसी ऐसे राज्य के साथ जिसने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में अपनाया है, या किसी अन्य राज्य के साथ, उसकी सहमति से पत्रादि के प्रयोजनों के लिए हिन्दी को प्रयोग में लाने से निवारित करती है और ऐसे किसी मामले में उस राज्य के साथ पत्रादि के प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा को प्रयोग बाध्यकर न होगा। हिन्दी को उसके लिए सर्वथा उपयुक्त स्थान देने की दृष्टि से यह उपबंध महत्वपूर्ण होते हुए भी यह नहीं का जा सकता कि अहिन्दी राज्य इसका समुचित उपयोग कर रहे हैं या निकट भविष्य में करेंगे। उक्त स्थिति में पहुँचने के लिए अहिन्दी राज्यों को और भी मानसिक तैयारी करनी पड़ती है। हाँ, स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं से इस दशा में यथोचित सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का प्रयोग किन किन संदर्भाें में करना चाहिए, इसके संबंध में उपधारा (3) में बताया गया हैं -

  1. संकल्पों, साधारण आदेशों, नियमों, अधिसूचनाओं, प्रशासनिक या अन्य प्रतिवेदनों या प्रेस विज्ञप्तियों के लिए, जो केन्द्रीय सरकार द्वारा या उसके मंत्रालय, विभाग या कार्यालय द्वारा या कंपनी द्वारा या ऐसे निगम या कंपनी के किसी कार्यालय द्वारा निकाले जाते हैं या किए जाते हैं
  2. संसद के किसी सदन या सदनों के समक्ष रखे गए प्रशासनिक तथा अन्य प्रतिवेदनों और राजकीय कागज पत्रों के लिए एवं
  3. केंद्रीय सरकार या उसके किसी मंत्रालय, विभाग या कार्यालय द्वारा या किसी ओर से या केंद्रीय सरकार के स्वामित्व में के या नियंत्रण में के किसी नियम या कम्पनी द्वारा या ऐसे निगम या या कंपनी के किसी कार्यालय द्वारा निष्पादित संविदाओं और करारों के लिए तथा निकाली गई अनुज्ञप्तियों, अनुज्ञापत्रों, सूचनाओं और निविदा प्रारूपों के लिए। राजभाषा नियम, 1976 के उपनियम 6 में भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ‘अधिनियम की धारा 3 की उपधारा (3) में निर्दिष्ट सभी दस्तावेजों के लिए हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही प्रयोग में लाई जायेगी और ऐसे दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्तियों का यह दायित्व होगा कि वे यह सुनिश्चित कर लें कि ऐसे दस्तावेज हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही में तैयार किए जातें हैं, निष्पादित किए जाते हैं या जारी किए जाते हैं। राजभाषा नियम 7 और 8 की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, जिसमें आवेदन, अीयावेदन आदि प्रस्तुत करने तथा टिप्पणी आदि लिखे जाने के संबंध में बताया गया हे। नियम 7 के तीन उपनियम यों हैं -
  4. कर्मचारी कोई आवेदन, अपील या अभ्यावेदन हिन्दी या अंग्रेजी में कर सकता है
  5. कोई आवेदन, अपील या अभ्यावेदन जब भी हिन्दी में किया जाए या उसमें हिन्दी में हस्ताक्षर किए जाएँ तो उसका उत्तर हिन्दी में दिया जाएगा
  6. जब कोई कर्मचारी या बाँछा करता है कि सेवा विषयों में (जिसमें अनुशासनिक कार्यवाहियाँ सम्मिलित हैं) संबंधित कोई आदेश या सूचना जिसका कर्मचारी पर तामील किया जाना अपेक्षित है, यथास्थिति, हिन्दी या अंग्रेजी में होनी चाहिए तो सह उसे बिना किसी अनुचित विलम्ब के उसी भाषा में दी जाएगी। टिप्पणी आदि के लेखन में हिन्दी के प्रयोग के विषय में नियम 8 में निर्दिष्ट किया गया है, यथा
  7. कर्मचारी किसी फाइल पर टिप्पणी या कार्यवृत्त हिन्दी या अंग्रेजी में लिख सकता है या और उससे यह अपेक्षा नहीं की जाएगी कि वह उसका अनुवाद दूसरी भाषा में भी प्रस्तुत करें।
  8. केंद्रीय सरकार का कर्मचारी, जिसे हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त है, किसी हिन्दी दस्तावेज के अंग्रेजी अनुंवाद की माँग तब के सिवाय नहीं कर सकता, जब दस्तावेज विधिय या तकनीकी प्रकृति का हो
  9. यदि ऐसा कोई प्रश्न उठता है कि अमुख दस्तावेज विधिक या कार्यालय के अध्यक्ष द्वारा किया जाएगा
  10. केंद्रीय सरकार आदेश द्वारा ऐसा अधिसूचित कार्यालय विनिर्दिष्ट कर सकती है जहाँ टिप्पणी, प्रारूपण और ऐसे अन्य शासकीय प्रयोजन के लिए जो आदेश में विनिर्दिष्ट किए जाएँ, उन कर्मचारियों द्वारा जिन्हें हिन्दी में प्रवीणता प्राप्त है, केवल हिन्दी का प्रयोग किया जाएगा। यह द्विभाषा प्रयोग की स्थिति केंद्रीय सरकार के मंत्रालयों, कार्यालयों आदि में कामकाज संबंधी साहित्य-साम्रग्री पर भी वैसी ही है। नियम 11 में निर्दिष्ट किया गयाहै कि
  11. केंद्रीय सरकार के कार्यालयों में संबंधित सभी मैन्युअल, संहिताएँ और अन्य प्रक्रिया संबंधी साहित्य, हिन्दी और अंग्रेजी दोनों में द्विभाषिक रूप में, यथास्थिति, मुद्रित किया जाएगा, साइक्लोस्टाइल किया जाएगा और प्रकाशित किया जाएगा।
  12. केंद्रीय सरकार के किसी कार्यालय में प्रयोग के लिए लिख गए मुद्रित या उत्कीर्ण सभी नामपट्ट, सूचनापट्ट पत्र शीर्ष और लिफाफों पर उत्कीर्ण लेख तथा स्टेशनरी की अन्य मदें हिन्दी और अंग्रेजी में होगी। परंतु केन्द्री सरकार, यदि वह ऐसा करना आवश्यक समझती है तो साधारण या विशेष आदेश द्वारा केंद्रीय सरकार के किसी कार्यालय को इस नियम के सभी या किन्ही उपबंधों से छूट दे सकती है।


उपर्युक्त विवरण के साथ साथ सन् 1968 में संसद में पारित संकल्प के कुछ अंशों पर भी ध्यान देना उपयोगी सिद्ध होगा। तदनुसार हिन्दी भाषा की प्रसार वृद्धि और विकास के लिए अधिक गहन और व्यापक कार्यक्रम तैयार करने तथा उसे कार्यान्वित करने की बात स्वीकार कर दी गई है। कई कार्यक्रम संपन्न भी हो रहे हैं। अष्टम अनुसूची में उल्लिखित भारतीय भाषाओं के देश की शैक्षिणिक तथा सांस्कृतिक उन्नति की दृष्टि से पूर्ण विकास हेतु वांछित सामूहिक उपाय किए जाने एवं त्रिभाषा सूत्र को कार्यान्वित करने की बात संकल्प में स्पष्ट कर दी गई है। यह वाक्य महत्वपूर्ण है कि ‘हिन्दी भाषी क्षेत्रों में, हिन्दी तथा अंग्रेजी के अतिरिक्त एक आधुनिक भारतीय भाषा के रूप में दक्षिण भारत की भाषाओं में से किसी एक को तरजीह देते हुए और अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषाओं एवं अंग्रेजी के साथ साथ हिन्दी के अध्ययन के लिए उस सूत्र के अनुसार प्रबंध किया जाना चाहिए। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि सैद्धांतिक रूप से यह वाक्य महत्वपूर्ण होते हुए भी व्यावहारिक रूप से इसकावह परिणाम नहीं हुआ जो होना चाहिए था। कई राज्यों ने त्रिभाषा सूत्र को ठीक प्रकार से कार्यान्वित नहीं किया और कुछ राज्यों ने तो उसको अस्वीकार भी कर दिया। जिन राज्यों ने उसको स्वीकार किया, वहाँ अभी कुछ भ्रांतियाँ हुई। यह विचित्र बात भी देखने में आई समय के बाद राज्यों ने उसे स्वीकार किया, वहाँ की जनता ने कुछ समय बात उसका विरोध किया अथवा यह कहिए कि यह तर्क किया जाना कतिपय लोगों की दृष्टि में उचित प्रतीत हुआ कि त्रिभाषा सूत्र के बदले द्विभाषा सूत्र ही क्यों न अपनाएँ जैसा कि तमिलनाडु में हिन्दी विरोधी आन्दोलन के बाद त्रिभाषा सूत्र को छोड़कर द्विभाषा सूत्र को ही उपयुक्त मानकर स्वीकार किया गया। संघ की लोक सेवाओं के विषय में देश के विभिन्न भागों के लोगों के न्यायोचित दावों और हितों की पूर्ण रक्षा करने का सरकार द्वारा आश्वासन तथा संसद में पारित संकल्प की निम्नांकित बातें भी सर्वथा उचित है

  1. उन सेवाओं अथवा पदों को छोड़कर जिनके लिए ऐस किसी सेवा अथवा पद के कर्तव्यों के संतोषजनक निष्पादन के हेतु केवल अंग्रेजी अथवा हिन्दी दोनों जैसी कि स्थिति हो, का उच्च स्तर का ज्ञान आवश्यक समझा जाए, संघ सेवाओं अथवा पदों के लिए भर्ती करने के हेतु उम्मीदवारों के चयन के समय हिन्दी अथवा अंग्रेजी में किसी एक का ज्ञान अनिवार्यतः अपेक्षित होगा और
  2. परीक्षाओं की भावी योजना, प्रक्रिया संबंध पहलुओं एवं समय के विषय में संघ लोक सेवा आयोग के विचार जानने के पश्चात् अखिल भारतीय एवं उच्चतर केंद्रीय सेवाओं संबंधी परीक्षाओं के लिए संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित सभी भाषओं तथा अंग्रेजी को वैकल्पिक माध्यम के रूप में रखने की अनुमति होगी। परंतु, व्यावहारिक दृष्टि से इस कारण राजभाषा हिन्दी के प्रयोग में शैथिल्य भी स्वाभावतः आ गया है। नई पीढ़ी के लोगों के मन में भी (जहां तक अहिन्दी प्रदेशों का संदर्भ है) एक प्रकार की अनासक्ति के चिह्न दिखाई पड़ते हैं। ऐसे लोगों का कहना है कि अंग्रेजी से जब काम चल सकता है तो हिन्दी की क्या ज़रूरत है? संघ की राजभाषा हमारे देश की ही भाषा होनी चाहिए, यह पुराना तर्क हे, अंग्रेजी को ही तदर्थ रूप में चालू रख सकते हैं। आज दिन अंग्रजी भी तो हमारे देश की ही भाषा है, परायी नहीं। शिक्षा के क्षेत्र में तथा सरकार की भाषा नीति में जब तक अपेक्षित कुछ परिवर्तन नहीं होते तब तक ऐसी विचारधारा को भी रोक नहीं सकते।

वर्तमान परिस्थिति में हिन्दी, अंग्रेजी और प्रादेशिक भाषाएँ समानान्तर रेखाओं के एक त्रिकोण के समान हैं। यत्र तत्र उन रेखाओं की लंबाई में अंतर भी दृष्टिगोचर हो तो कोई आश्चर्य नहीं। संघ की राजभाषा हिन्दी और अंग्रेजी के विचार के साथ साथ राज्यों की राजभाषाओं के विषय में थोड़ा साविचार कर लेना इस कारण उपयुक्त ही है।

राज्यों की राजभाषाएँ

हमारे संविधान के अनुच्छेद 345, 346 और 347 में इस संबंध में बताया गया है - एक राज्य और दूसरे राज्य अथवा राज्य और संघ के बीच में संचार के लिए राजभाषा तथा राज्य के किसी जनसमुदाय की किसी भाषा को मान्यता प्रदान करने के संबंध में अनुच्छेद 346 और 347 में उपबंध किए गए हैं जब कि अनुच्छेद 345 में यह बताया गया है कि अनुच्देद 346 और 347 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य का विधान मंडल, विधि द्वारा उस राज्य के राजकीय प्रयोजनों में से सब या किसी के लिए प्रयोग के अर्थ उस राज्य में प्रयुक्त होने वाली भाषाओं में से किसी एक या अनेक को या हिन्दी को अंगीकार कर सकेगा। परंतु जब तक राज्य का विधान मंडल विधि द्वारा इससे अन्यथ उपबंधन करें तब तक राज्य के भीतर उन राजकीय प्रयोजना के लिए अंग्रेजी भाषा प्रयोग की जाती रहेगी जिनके लिए इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग की जाती थी।

राज्यों की राजभाषाओं के आसन पर अब तक तत् तत् प्रदेश की प्रादेशिक भाषाएँ प्रतिष्ठित हो जाती ओर उन भाषाओं के द्वारा राज्य की सभी कामकाज सभी स्तरों पर चलते तो भाषा संबंध कुछ समस्याएँ, जो आज दिखाई पड़ रही है, संभवतः अपने आप हल हो जाती। इस बात के लिए अब संतोष कर लेना पड़ेगा कि धीरे धीरे प्रदेशिक भाषाओं को यथोचित स्थान देने के विषय में विचार हो रहा है। संघ लोक सेवा आयोग द्वारा संचालित परीक्षा योजना में संघ की राजभाषा हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं का यथोचित स्थान और सम्मान देने का प्रयत्न किया गया है, यह सर्वथा श्लाघनीय है। तथापि उम्मीदवारों की जो संख्या है, उसके तुलनात्मक परिशीलन से यह बात विदित हो जाए कि भारतीय भाषाओं की वर्तमान प्रगति स्थिति कोई आकर्षक नहीं है और प्रतिशत की दृष्टि से इन भाषाओं में परीक्षा लिखने वालों की संख्या अत्यल्प है। हम सुदृढ़ प्रगति के चिहन तब देख सकते हैं जबकि केंद्रीय सरकार तथा राज्य सरकारें शिक्षा क्षेत्र में तदर्थ रूप में वांछित प्रबंध और उपबंध करें।

संसद में प्रयोग होने वाली भाषा

संविधान के अनुच्छेद 120 (1) के अनुसार संसद में हिन्दी तथा अंग्रेजी में कार्य सम्पन्न किया जाएगा। उसके परंतुक में बताया गया है कि ‘राज्यसभा का सभापति या लोकसभा का अध्यक्ष या ऐसे रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो हिन्दी या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता, अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा।’ उसी अनुच्छेद के खंड (2) में पंद्रह वर्ष की कालावधि के पश्चात् या अंग्रेजी में ये शब्द लुप्त करने की जो बात थी, वह तो राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 3 के अधीन 26 जनवरी 1965 के बाद लुप्त भी न करने की स्थिति में रह गई। अर्थात अंग्रेजी का प्रयोग पूर्ववत् जारी है। दूसरे शब्दों में अंग्रेजी की धाक वैसे ही जमी हुई है। इस संदर्भ में श्री शंकर दयाल सिंह की इन पंक्तियों का उद्धृत करना समीचीन होगा - ‘संविधान द्वारा स्वीकृत 15 भाषओं में भी संसद में बोलने का अधिकार किसी भी सदस्य को है और उसके भाषण के हिन्दी तथा अंग्रजी में अनुवाद की व्यवस्था भी साथ-साथ ‘इयरफोन’ द्वारा उपलब्ध है। इस भांति संसद पटन पर किसी प्रकार की कोई रिपोर्ट, बिल कागज, टिप्पणी रखी जाएगी, तो यह आवश्यक है कि अंग्रेजी के साथ साथ हिन्दी में भी उसकी प्रतियाँ रखनी होगी अन्यथा संसदीय कार्यसंहिता के प्रतिकूल माना जाएगा। अमूमन यही होता है। लेकिन यह सारी की सारी बातें एक श्रृंगार-साधन मात्र अथवा आँसू पोंछने के समान है। सिद्धांत और व्यवहार में वही फर्क होता है, जो किसी देहाती मेले-ठेले और दिल्ली में विशाल प्रगति मैदान में आयोजित मेले की बीच में अंतर होता है।’ सारांश यह है कि राजभाषा हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति शुद्ध और निष्ठा वांछित या अपेक्षित रूप में नहीं है।

कानून बनाने के लिए तथा उच्चतम और उच्च न्यायालयों आदि की भाषा

संविधान के अनुच्छेन 348 (1) में यह बताया गया है कि जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करें तब तक उच्चतक न्यायालय और उच्च न्यायालयों की कार्यवाहियाँ अंग्रेजी में हों तथा अधिनियमों नियमों आदेशों, विधेयकों आदि का प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी में हों। उस अनुच्छेद के खंड (2) में यह उपबंध किया गया है कि राष्ट्रपति की पूर्व सम्मति से किसी राज्य का राज्यपाल हिन्दी या अन्य भाषा का प्रयोग उच्च न्यायालयों में कार्यवाहियों के लिए प्राधिकृत कर सकेगा। उसी अनुच्छेद के खंड (3) के अधीन किसी भी राज्य का विधान मंडल राज्यपाल द्वारा प्रख्यापित अध्यादेश या किसी आदेश, नियम, अधिनियम आदि के प्रयोग के लिए अंग्रजी से किसी अन्य भाषा का प्रयोग विहित कर सकता है और उस राज्य के राजपत्र में प्रकाशित किया जाने वाला तत्संबधी अंग्रेजी अनुवाद ही उसका प्राधिकृत पाठ माना जाएगा। लेकिन राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 6 के अनुसार उस राज्य का राज्यपाल प्राधिकार से, राजपत्र में प्रकाशित हिन्दी अनुवाद को हिन्दी भाषा में उसका प्राधिकृत पाठ माना जाएगा। उसी अधिनियम की धारा 7 के अनुसार उच्च न्यायालयों के निर्णयों आदि में हिन्दी या अन्य राजभाषा के वैकल्पिक प्रयोग को, अंग्रेजी अनुवाद के साथ स्वीकार किया गया है।

आचरण पक्ष

उपर्युक्त उपबंधों के अतिरिक्त कपितय सरकारी संकल्प भी ऐसे हैं जिनसे सरकार की भाषा संबंधी नीति का स्पष्टीकरण होता है। हर बात में सिद्धांत पक्ष और आचरण पक्ष ये दो पक्ष होते हैं। सरकार के जो उपबंध और संकल्प हैं, वे यदि सिद्धांत पक्ष के अंतर्गत तो उनका कार्यान्वयन आवारण पक्ष के अंतर्गत है। केद्रीय सरकार ने विविध कार्यक्रमों के अनुष्ठान के द्वारा सिद्धांत पक्ष को आचरित करने का सही मार्ग अपनाया है। राजभाषा हिन्दी के विकास और प्रचार प्रसार वृद्धि के लिए उसने प्रथम बार अखिल भारतीय स्तर पर सन् 1978 में राजभाषा सम्मेलन आयोजित किया था। सरकारी कामकाज तथा सरकारी उपक्रमों में ही नहीं, लोक सेवाओं और विधि के क्षेत्र में भारतीय भाषाओं के प्रयोग के संबंध में उक्त सम्मेलन में की गई सिफारिशों को कार्य रूप देने की सरकार की प्रवृत्ति हर्षदायक है। सरकार ने अनेक स्तरों पर भिन्न भिन्न सलाहकार समितियों तथा कार्यान्वयन समितियों का गठन किया है और राजभाषा हिन्दी के प्रगमी प्रयोग के लिए वह प्रयत्नशील है। उसने यांत्रिक सुविधाएँ जेसै टाइपराइटर, टेलिप्रिंटर कंम्प्यूटर आदि उपलब्ध कराने के लिए कदम उठाए हैं। हाल ही में पिलानी के बिड़ला इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलाजी एंड साइंस के वैज्ञानिक ने ‘सिद्धार्थ देव संगणक’ नाम से देवनागरी कम्प्यूटर तैयार किया है। हिन्दी प्रशिक्षण संबंधी कई योजनाऐं भी सरकार कार्यान्वित कर रही है और पुरस्कार आदि से कर्मचारियों को प्रोत्साहन भी दिया जा रहा है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत राजभाषा विभाग तथा अनुवाद ब्यूरो के द्वारा विशेष प्रगति के लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं। स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं को, अहिन्दी प्रदेशों के हिन्दी लेखकों को क्रमशः अनुदान तथा पुरस्कार आदि देकर यथोचित प्रोत्साहन दिया जा रहा है। यह ध्यान देने की बात है कि स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं में साधन सीमित होते हुए भी विशेष गति से कार्य संपन्न होते हैं। सरकार की कुछ योजनाएँ उनके द्वारा जल्दी पूर्ण हो सकती हैं। आंध्र, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में हिन्दी अकादमी की संस्थापना से हिन्दी के प्रचार-प्रसार में गतिशीलता आई हैं। अन्य अहिन्दी राज्यों में भी हिन्दी अकादमी की स्थापना होनी चाहिए।

राजभाषा हिन्दी के प्रगामी प्रयोग के लिए जहाँ बाहय साधन सुविधाएँ वांछित हैं, वहाँ यह भी आवश्यक है कि आंतरिक अर्थात् मानसिक संसिद्धि का उचित मार्ग भी प्राप्त कर लिया जाए। इसके लिए सब प्रकार के संदेहों और भ्रमों का निवारण होना चाहिए। हिन्दी के राजभाषा पद पर पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित हो जाने से हिन्दी न जानने वालों अर्थात अहिन्दी भाषाभाषियों को विशेष रूप से कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा तथा सरकार की सेवाओं में उनको समुचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा, यह संदेह कई लोगों के मन में है। यह स्वाभाविक भी है। इस प्रकार के संदेहों को निवृत्ति के लिए आवश्यक है कि लोकसभा, विधानसभा के लिए जिस प्रकार सदस्यों की संख्या राज्यों के अनुरूप निर्धारित की गई है और प्रत्येक राज्य का प्रतिनिधित्व हो रहा है, उसी प्रकार सरकार को सेवाओं के लिए उम्मीदवारों को चुनते समय प्रत्येक राज्य को तदनुरूप प्रतिनिधित्व दिया जाए और तत्संबंधी नियम आदि का निर्धारण किया जाए। इससे प्रत्येक राज्य आवश्यवस्त हो सकता है और हिन्दी की प्रतिष्ठा में सबका योगदान राज्य आश्वस्त हो सकता है और हिन्दी की प्रतिष्ठा में सबका योगदान संतोषजनक रीति से प्राप्त हो सकता है।

हिन्दी का सामासिक संस्कृतिक रूप

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 के अनुसार भारत की सामासिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हिन्दी हो। यह सच है कि विगत तीन दशकों से हिन्दी में विधि प्रकार के साहित्य का प्रकाश न हो रहा है। सामासिक संस्कृति के विचार से कुछ अच्छे साहित्य का प्रकाशन भी हुआ। फिर भी यह कहना पड़ेगा कि व्यवस्थिति रूप से अथवा निश्चित योजना के अनुरूप कार्य भी बहुत शेष हैं। केंद्र तथा राज्य की साहित्य अकादमियों, हिन्दी संस्थाओं आदि द्वारा अब तक संपन्न हुए कार्यों को एवं भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा किए गए कार्यों को ध्यान में रखते हुए यह बात कही जा सकती है कि हिन्दी में अनुवाद साहित्य का प्रकाशन बहुत हुआ और हो रहा है, तथापित संतोष नहीं है। कई अनुवाद अधिक आकर्षक या प्रमाणिक भी नहीं कहे जा सकते। अनुवादों के अतिरिक्त अच्छे सृजनात्मक साहित्य के निर्माण की प्रवृत्ति अभी विकसित होनी चाहिए। तथाकथित हिन्दी लेखकों का दायित्व है कि विशाल मनोभावना अपनाकर भारत की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति में हिन्दी को और भी सशक्त करें। अहिन्दी प्रदेश के हिन्दी लेखकों को इसमें विशेष रुचित हो सकती है, इससे ही काम सिद्ध नहीं हो जता। इस रुचि को यथोचित रूप में मान्यता भी प्रापत होनी चाहिए। अहिन्दी भाषी लेखकों के साहित्य का प्रचार प्रसार उचित रीति से समादर के साथ न हो, तो सामासिक संस्कृतिक के सब तत्वों की अभिव्यक्ति के सुदर मार्ग भी केसे प्रशस्त हो सकते हें हिन्दी ने अब तक अन्य भाषाओं के मुहावरो, कहावतों आदि को कम आत्सात किया है। इस संदर्भ में यह कहना अनुचित न होगा कि राजभाषा हिन्दी का स्वरूप समग्र भारत का स्वरूप होना चाहिए और इसलिए केंद्रीय राजभाषा हिन्दी तथा राज्यों की प्रादेशिक हिन्दी अर्थात् हिन्दी प्रदेश की हिन्दी में यदि थोड़ा बहुत अंतर हो, तो अनौचित्य नहीं है। वास्तव में राजभाषा या संपर्क भाषा से साहित्यक भाषा का स्वरूप (और बोलचाल की भाषा का भी) थोड़ा भिन्न ही होता है। राजभाषा या संपर्क भाषा का प्रयोग करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को तो साहित्यकार नहीं बनना है और न साहित्यकार कहलाना है।
कभी कभी हमें यह सोचने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि हिन्दी के प्रचार प्रसार की गति में, जहाँ तक हम अहिन्दी राज्यों की स्थितियों पर दृष्टिपात कर रहे हैं, अवरोधन उत्पन्न होने के कारणों में से कुछ कारण हिन्दी के पठन पाठन संबंध हैं। हिन्दी का प्रचार दक्षिण में जब से शुरू हुआ है, तब से आज तक हिन्दी को हिन्दी प्रदेशों की भाषा मानकर हुआ है, यद्यपि यह भी स्वीकार किया गयाहै कि वह संघ की राजभाषा है। इसलिए हिन्दी के पाठ्यक्रमों में यहाँ की आवश्यकता को दृष्टि में रखते हुए भी, पुराना विधान ही अपनाया गया है। आज भी उस विधान में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है यह बात भूलने की नहीं है कि दक्षिण के लोग अथवा अहिन्दी प्रदेश के लोग हिन्दी का अध्ययन करते हैं तो इस मुख्य दृष्टि से कि हिन्दी हमारी राजभाषा है वह हमारे राष्ट्र की एकता का प्रतीक है और वह इस देश के लोगों को एक सूत्र में बांध सकती है यह वह परस्पर संपर्क के लिए उपादेय है। अतः हिन्दी के पठन पाठन में यथोचित परिवर्तन होना चाहिए। राजभाषा को समझने और भली भांति उसका उपयोग करने की क्षमता उसे सीखने वालों में होनी चाहिए। व्यवहार में तथा सरकारी काम काज में भाषा के जिस रूप का प्रयोग होता है, उसकी प्रचार प्रसार वृद्धि होनी चाहिए और शिक्षण में उसी का महत्व होना चाहिए। इस दृष्टि से अहिन्दी भाषाभाषियों को हिन्दी सिखाते समय डिंगल, ब्रजभाषा और अवधी के कवियों की ओर प्रवृत करना आवश्यकत है। हिन्दी सािहत्य में रुचि रखने वाले व्यक्ति चाहे तो साहित्यक रसास्वाद पाने के लिए तथाकथित कवियों का अध्ययन करे, तो करें। लेकिन सब के लिए यह आवश्यक नहीं है। प्रारंभिक ज्ञान प्रापत करने वालों के लिए तो आवश्यक है ही नहीं। उच्च शिक्षा में भी परंपरा को बनाए रखने की दृष्टि से तथाकथित कवियों की पढ़ाई को थोड़ा बहुत स्थान दिया जा सकता है। वस्तुतः प्रादेशिक भाषाओं से अनूदित होकर हिन्दी में जो साहित्य आ रहा है, उसका सही रूप में उपयोग होना चाहिए अर्थात् कर्नाटक में हिन्दी सीखने वाले छात्रों की तमिल या गुजराती आदि भाषाओं से हिन्दी में आगत साहित्य पढ़ाया जाए, आंध्र के छात्र मराठी, मलयालम आदि कोई साहित्य पढ़े इत्यादि। इसमें भावात्मक एकता की वृद्धि होगी और ‘हिन्दी की सामासिक संस्कृति’ - ये शब्द सार्थक होंगें। हिन्दी प्रदेश के शिक्षण में भी, राजभाषा हिदी के विचार से, ऐसा ही विधान होना चाहिए। विशुद्ध हिन्दी साहित्य के अध्ययन के लिए हिन्दी प्रदेश में पर्याप्त अवसर भी दिया जाना चाहिए। अहिन्दी राज्यों के हिन्दी लेखकों की कृतियों को, जो मूलतः हिन्दी में ही लिखी कई हैं, पाठ्यक्रम में समादर का स्थान मिलना चाहिए। परस्पर को समझने के द्वारा ही हिन्दी की सामासिक संस्कृति का रूप स्थिर हो सकता है। वह दिन आना चाहिए जब लोक यह कहें कि राजभाषा हिन्दी का रूप उत्तर प्रदेश, या मध्य प्रदेश या किसी दूसरे प्रदेश की भाषा का रूप नहीं हे, पर संपूर्ण भारतीयों के आचार विचार, रीति नीति और साहित्य संस्कृतिक को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली भाषा का रूप है। तब साधना से इसकी सिद्धि दुर्लभ नहीं है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
क्रमांक लेख का नाम लेखक
हिन्दी और सामासिक संस्कृति
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2. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति प्रो. केसरीकुमार
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4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
5. राजभाषा: कार्याचरण और सामासिक संस्कृति डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति
6. हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास प्रो. दिनेश्वर प्रसाद
7. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति डॉ. मुंशीराम शर्मा
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10. सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया और हिन्दी साहित्य श्री राजेश्वर गंगवार
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विदेशी संदर्भ
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57. जर्मनी संघीय गणराज्य में हिन्दी डॉ. लोठार लुत्से
58. सूरीनाम देश और हिन्दी श्री सूर्यप्रसाद बीरे
59. हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य श्री बच्चूप्रसाद सिंह
स्वैच्छिक संस्था संदर्भ
60. हिन्दी की स्वैच्छिक संस्थाएँ श्री शंकरराव लोंढे
61. राष्ट्रीय प्रचार समिति, वर्धा श्री शंकरराव लोंढे
सम्मेलन संदर्भ
62. प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ श्री मधुकरराव चौधरी
स्मृति-श्रद्धांजलि
63. स्वर्गीय भारतीय साहित्यकारों को स्मृति-श्रद्धांजलि डॉ. प्रभाकर माचवे