मेवाड़ की व्यवसायी जातियाँ

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मेवाड़ में जो जातिगत व्यवस्था थी, वह परम्परागत रूप से ऊँच-नीच, पद-प्रतिष्ठा तथा वंशोत्पन्न जातियों के आधार पर संगठित थी। सामाजिक संगठन में प्रत्येक जाति का महत्व उस जाति की वंशोत्पत्ति तथा उसके द्वारा अंगीकृत व्यवसाय पर निर्भर था। सामान्यत: राज्य जाति पंचायतों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता था। मेवाड़ के महाराणाओं ने भी परम्परागत सामाजिक ढाँचे को बनाये रखनें में काफ़ी योगदान दिया था। जाति-व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने तथा उसके अस्तित्व को अक्षुण बनाये रखने में जाति पंचायतों की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी।

कृषि करने वाली जातियाँ

मेवाड़ में कुछ जातियाँ ऐसी थीं, जो पूर्णत: कृषि-कर्मी मानी जाती थीं, जैसे- जाट माली, डाँगी धाकड़ और जणवा। मेवाड़ की जनसंख्या में इनका प्रतिनिधित्व 17 प्रतिशत था। यद्यपि ये सभी जातियाँ अपने स्वजाति नियमों से आबद्ध थीं, फिर भी इनमें ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं था। सामाजिक, आर्थिक पद-स्तर पर सभी किसान अपने को 'करसा' कहलाने में गर्व का अनुभव करते थे। विवाह स्वजाति में ही होता था, किंतु विवाह के नियम कठोर नहीं थे। विधवा विवाह, पुनर्विवाह तथा विवाह विच्छेद सुगमतापूर्वक 'रित' और 'नाता' की परम्परानुसार हो जाते थे। इसीलिए समाज में उन्हें 'नातायती' जातियाँ कहा जाता था।

कृषक समूह से सम्बंधित होने के कारण इन जातियों से पटेलों का निर्वाचन किया जाता था। यह निर्वाचन शासक और जागीरदार की इच्छा पर निर्भर था, अन्यथा मनोनीत भी कर लिया जाता था। बाद के समय में यह पद पैतृक तथा परम्परागत हो गया। पटेलों का प्रमुख कार्य भूमि कर की वसूली करना, राज्यादेश का जन-प्रचार करना, बटाई या मुकाते में राज्य का अंश नियत करना आदि होता था। इसके बदले में पटेलों को कर-मुक्त भूमि और राज वसूली का 1/40 हिस्सा दिया जाता था।[1]

पशुपालक जातियाँ

मेवाड़ की मुख्य पशु पालने वाली जातियों में प्रमुख थीं-

  1. अहीर
  2. गुर्जर
  3. गायरी
  4. रेबारी

इनमें गुर्जर प्राय: गाय और भैंस पालते थे। गायरी भेड़-बकरी पालक जाति थी। वहीं रेवाड़ी ऊँट का पालन करते थे। राज्य की जनसंख्या में इन जातियों का जन प्रतिनिधित्व छ: प्रतिशत था। ये मूलत: कृषक थे और कृषि के साथ-साथ दूध, दही, धृत, पशु क्रय-विक्रय तथा पशुओं के ऊन से बने वस्त्रों का व्यापार भी करते थे। गायरी जाति के लोग गाँव के पशुओं के गोचर का कार्य भी करते थे, जिसके बदले फ़सल कटाई पर प्रति पशु उन्हें नेग दिया जाता था। पशुपालक जातियों का सामाजिक-आर्थिक स्तर मूल कृषक जातियों से बहुत अच्छा था।

धाबाई

गुर्जर जाति के कई परिवार राज घरानों तथा ठिकानों से सम्बंधित रहे थे। गुर्जर स्त्रियों के द्वारा राजपूत के बच्चों को दूध पिलाने के रिवाज ने समाज में इनका महत्व बढ़ा दिया था। इन्हें प्राय: 'धाय माँ' और पुत्र को 'धाय भाई' कहकर पुकारा जाता था। इन्हीं से बाद में धीरे-धीरे धाय भाई गुर्जरों का एक अलग वर्ग 'धाबाई जाति' के रूप में प्रतिस्थापित हो गया। धाबाई जाति के सदस्य राजपूतों से सम्बंधित होने के कारण सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पूरे समाज में प्रतिष्ठित और सम्मानित रहे थे। राज्य द्वारा इन्हें जागीर भूमि, प्रशासनिक तथा सैनिक पद प्रदान किये जाते थे। 19वीं शताब्दी में धाबाई जाति के सदस्य राज्य की अधीनस्थ सेवा में नियुक्त किये जाने लगे। इन सेवाओं में प्रमुख रूप से शिकार विभाग से जुड़ी सेवाएँ व यात्राओं की सुरक्षा शामिल थी।

शिल्प तथा दस्तकार

शिल्पियों तथा दस्तकारों के इस वर्ग की जातियों में चतारा, सुनार, छीपा, सिकलीगर, पटवा, उस्ता, खेरादी, महीदोज, कसारा, जड़िया, मोची, गाँधी, लुहार, कुम्हार एवं बलाई मुख्य जातियाँ थीं। इन सभी का सामाजिक सम्बन्ध तथा व्यवहार जाति के अन्दर ही रहा था। विवाह सम्बन्ध में कठोरता नहीं थी। भोजन-व्यवहार में जाति दूरी का भेद सभी जातियाँ मे व्याप्त था। चतारा, सुनार, कसारा, पटवा, सिकलीगर आदि का शिल्पी जातियों की अन्तश्रेणी में प्रथम स्तर था। यह जातियाँ अभिजात एवं सम्पन्न वर्ग से सम्बंधित थीं। जाति समाज की श्रेणीबद्धता में यह सभी जातियाँ 'कारु' कहलाती थीं। कारु अर्थाए 'कारीगर' जातियों का सामाजिक स्तरण द्विज जातियों से निम्न तथा शूद्र जातियों से उच्च था। लुहार, सुथार छीपा, गाँधी और कुम्हार जातियों का स्तर अन्तश्रेणी जाति में द्वितीय तथा मोची, बलाई आदि तृतीय स्तर पर थीं। उस्ता नामक शिल्पी मुस्लिम समुदाय से जुड़ा था। द्वितीय तथा तृतीय वर्ग स्तर की शिल्पी जातियाँ जनसाधारण से अभिजात वर्ग तक के लोगों से सम्बंधित थीं।

ग्राम के शिल्पी ग्राम्य जनों की न्यून आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। इसके अलावा कई शिल्पी राज्य सेवा में भी दैनिक, माहवारी अथवा वंशानुगत कार्य करते थे। ऐसे शिल्पियों को राज्य की ओर से कपड़ा, अन्न की राशि अथवा ज़मीन-जायदाद प्रदान की जाती थी। इन शिल्पी जातियाँ के उपवर्ग व्यवसाय के आधार पर भी बंटे थे। राज सेवा करने वाले राजा 'भोई' थे, तो वहीं 'बलाई' नामक जाति रेजा[2] बुनने का कार्य करते थी। इसके साथ-साथ ये दूसरों के खेतों में मज़दूरी भी करते थे। ग्रामीण राज्य सेवा के पद पर इसी जाति के लोगों से गाँव-बलाई की नियुक्ति और निर्वाचन किया जाता था, जो बाद के समय में पटेलों की तरह ही वंशानुगत कर दिया गया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सामन्तवादी व्यवस्था में कृषि-कर्मी वर्ग का सामाजिक-आर्थिक स्तर बहुत ही निम्न था, लेकिन वर्ष 1922 ई. के 'बिजोलिया आन्दोलन' ने पूरे कृषि-कर्मी वर्ग में एक नयी चेतना का संचार कर दिया।
  2. कपड़ा

बाहरी कड़ियाँ

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