मेरा जीवन ए-वन -काका हाथरसी

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
मेरा जीवन ए-वन -काका हाथरसी
'मेरा जीवन ए-वन' का आवरण पृष्ठ
कवि काका हाथरसी
मूल शीर्षक 'मेरा जीवन ए-वन'
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स
ISBN 81-288-1015-4
देश भारत
पृष्ठ: 200
भाषा हिन्दी
शैली हास्य
विशेष काका हाथरसी की इस आत्मकथा में उन्होंने अपने जीवन की कई महत्त्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया है।

मेरा जीवन ए-वन हिन्दी के पसिद्ध हास्य कवियों में गिने जाने वाले काका हाथरसी की आत्मकथा है। 'प्रभुदयाल गर्ग' हिन्दी साहित्य जगत् में "काका हाथरसी" के नाम से प्रसिद्ध हैं। 'अग्रसेन जयन्ती' पर हाथरस, उत्तर प्रदेश में 'नवयुवक अग्रवाल मण्डल' की तरफ़ से आयोजित होने वाले एक प्रहसन में प्रभुदयाल गर्ग ने प्रहसन के नायक 'काका चौधरी' की भूमिका को इतने प्रभावशाली ढंग से अभिनीत किया कि वह काका के नाम से ही नगर में पुकारे जाने लगे। आगे चलकर एक कवि के रूप में उनका नाम "काका हाथरसी" के रूप में ही सात समन्दर पार तक प्रसारित हुआ। अपनी आत्मकथा "मेरा जीवन ए-वन" में उन्होंने अपने नगर का बड़े स्नेह से स्मरण किया है- "भारत में ऐसे शहर केवल दो ही हैं, जो रस से रससिक्त हैं- हाथरस और बनारस।"

पुस्तक अंश

आज हिन्दी साहित्य में काका हाथरसी को कौन नहीं जानता। काका का बचपन कष्टमय ज़रूर था, पर इन्होंने किसी को महसूस होने नहीं दिया। बाद में चलकर इनकी हास्य एवं मार्मिक कविताएँ सामान्य-जन तक प्रचलित हुईं। आज इनके हजारों शिष्य हिन्दी के उच्च साहित्यकार हैं। जगह-जगह साहित्यिक मंचों से इनकी कविताएँ बड़ी रोचकता से पढ़ी व सुनी जाती हैं। काका कहने मात्र से आज इन्हीं का बोध होता है।[1]

दिन अट्ठारह सितंबर, अग्रवाल परिवार।
उन्निस सौ छ: में लिया, काका ने अवतार।

जन्म

मैं प्रभूदयाल गर्ग उर्फ़ काका हांथरसी अपने जीवन के 88वें वर्ष में प्रवेश कर रहा हूँ। जो कुछ कहूँगा, सच-सच कहूँगा। सच के अतिरिक्त कुछ नहीं कहूँगा। अपनी प्रसिद्धि छलांग लगाते-लगाते भगवान तक पहुँच गई है, इसलिए उधर से भी कवि सम्मेलन का आमंत्रण आने वाला है। न मालूम कब, प्रभु जी अपने प्रभूदयाल को हँसने-हँसाने के लिए अपने दरबार में बुला लें। किन्तु जाने से पूर्व भगवान् से अपना पारिश्रमिक ज़रूर तय करेंगे, तब स्वीकृति देंगे। हाथरस की रसीली हास्यमयी धरती पर हमारा अवतरण शुभ मिती आश्विन कृष्णा 15 संवत 1963 दिनांक 18 सितम्बर, 1906 ई. की मध्यरात्रि को हुआ। यदि 12 बजे से पूर्व हुआ होता तो 18 तारीख और 12 बजकर एक सेकेंड पर हुआ होता तो 19 सितम्बर। ग़रीबी के कारण घर में घड़ी तो थी नहीं। हमारे पड़ोसी पंडित दिवाकर जी शास्त्री ने 18 तारीख की शुभघड़ी कायम करके हमारी जन्मकुंडली इस प्रकार बना डाली। इसे प्रसिद्ध ज्योतिर्विद श्री नारायणदत्त श्रीमाली ने अपनी पुस्तक में भी प्रकाशित किया गया है।

उन दिनों जन्म-मरण की सूचना नगरपालिका में घर की महतरानी दिया करती थी। अत: 19 सितंबर, 1906 को ही नगरपालिका में यह शब्द अंकित हुए। ‘शिब्बो के लड़का हुआ है।’ मेरे पिताजी का नाम शिवपाल था, जिनको कुछ लोग शिब्बो जी कहा करते थे। जन्मदात्री माताजी का नाम बर्फीदेवी। इतनी मीठी मैया की कोख से जन्म लेने वाला बालक मधुरस या हास्यरस से ओतप्रोत हुआ तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? हल्ला हो गया मोहल्ला में कि शिवलाल के जो लल्ला हुआ है, वह पैदा होते ही हँस रहा है। किन्तु बाद में जब इस मामले की जाँच पड़ताल हुई तो असलियत यही सामने आई कि शिशु की मुद्रा-क्षण-क्षण में न कुछ ऐसी बनती थी कि रोने या हँसने का निर्णय करना कठिन हो जाता था। यह रहस्य हमारे बड़े होने पर कुछ बड़ी-बूढ़ियों ने हमें बताया था।[1]

घर परिवार

मेरे प्रपितामह गोकुल-महावन से आकर हाथरस में बस गए थे। यहाँ बर्तन-विक्रय का व्यापार किया। बर्तन के व्यापारी को उन दिनों 'कसेरे' कहा जाता था। पितामह (बाबा) सीताराम कसेरे ने अपने पिता के व्यवसाय को चालू रखा। उसके बाद बँटवारा होने पर बर्तन की दुकान परिवार की दूसरी शाखा पर चली गईं। परिणामत: मेरे पिताश्री को बर्तनों की एक दुकान पर मुनीमगीरी करनी पड़ी। फर्म का नाम था- 'धूमीमल कसेरे'।

प्लेग की महामारी

परिवार में 1906 में मेरा जन्म ऐसे समय में हुआ, जब प्लेग की भयंकर बीमारी ने हज़ारों घरों को उज़ाड़ दिया था। यह बीमारी देश के जिस भाग में फैलती, उसके गाँवों और शहरों को वीरान बनाती चली जाती थी। शहर से गाँवों और गाँवों से नगरों की ओर व्याकुलता से भागती हुई भीड़ हृदय को कंपित कर देती थी। कितने ही घर उजड़ गए, बच्चे अनाथ हो गए, महिलाएँ विधवा हो गईं। किसी-किसी घर में तो नन्हें-मुन्नों को पालने वाला तक न बचा। तब हमारे परिवार पर भी जैसे बिजली गिर गईं। हम अभी केवल 15 दिन के ही शिशु थे, कि हमारे पिताजी को प्लेग चाट गई। 20 वर्षीय माता बर्फीदेवी, जिन्होंने अभी संसारी जीवन जानने-समझने का प्रयत्न ही किया था, इस वज्रपात से व्याकुल हो उठीं। मानों सारा विश्व उनके लिए सूना और अंधकारमय हो गया। उन दिनों घर मे माताजी, हमारे बड़े भाई भजनलाल और एक बड़ी बहिन किरन देवी और हम, इस प्रकार कुल चार प्राणी साधन-विहीन रह गए।[1]

बहन का प्यार

हमारी बहन किरनदेवी हम पर बहुत लाड़-प्यार करती थी। एक दिन वह हमको गोद में खिलाते-खिलाते बाज़ार ले गईं। लौटकर वापस आईं तो एक भयंकर दुर्घटना हो गई। माताजी ने उसी समय रोटी बनाकर गरम तवा ज़मीन पर रखा था। बहिन को मालूम नहीं था कि तवा गरम है। गोद से हमको उतारकर कहने लगी- "हमारो भैया गाड़ी में बैठोगो"। इन शब्दों के साथ बहिन ने हमको जलते हुए तवे पर रखा दिया। चिल्लाने-चीखने पर सारे घर में कुहराम मच गया। हमारे बाएँ पैर का कुछ हिस्सा और एक नितम्ब बुरी तरह जल गए थे। हमको तो अब कुछ भी याद नहीं है, क्योंकि उन दिनों हम एक वर्ष के बालक थे। माताजी बताया करती थीं- "बेटा तू छ: महीने तक औंधा पड़ा रहा था। डाक्टरों का इलाज कराने लायक़ पैसा नहीं था, अत: देशी दवाइयों का लेप करके ठीक किया था।" अभी तक जलने के निशान हमारे अंगों से दूर नहीं। प्लास्टिक सर्जरी-द्वारा हम अन्य जगह से चमड़ी कटवाकर उन स्थलों पर लगवाने की मूर्खता भी नहीं करेंगे। एक आफ़त के बाद दूसरी मुसीबत क्यों मोल लें?


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 मेरा जीवन ए-वन (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 20 जून, 2013।

संबंधित लेख