एक्स्प्रेशन त्रुटि: अनपेक्षित उद्गार चिन्ह "२"।

मन -न्याय दर्शन

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
  • न्याय दर्शन में छठा प्रमेय मनस है। जीव के सुख तथा दु:ख आदि के मानस-प्रत्यक्ष का कारण अन्तरिन्द्रिय मनस है। मनस के अस्तित्व साधक अनेक हेतुओं के रहने पर भी महर्षि गौतम ने अपने एक विशेष हेतु को प्रदर्शित किया है- ‘युग्पज् ज्ञानानुपपत्तिर्मनसो लिङ्गम्‘ 1/1/16 । एक समय में अनेक इन्द्रियों से अनेक विषयों के प्रत्यक्ष का नहीं होना मनस को सिद्ध करता है। जिस काल में किसी विषय के साथ किसी इन्द्रिय का सन्निकर्ष रहने पर भी एक समय में अनेक विषयों का प्रत्यक्ष नहीं होता है। किन्तु समय के विलम्ब से ही अपर प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है अत: अनुमान होता है। जीव के शरीर में इस तरह का पदार्थ अवश्य है, जिसका संयोग यदि इन्द्रिय से नहीं है, तो उस इन्द्रिय से प्रत्यक्ष नहीं होता है।
  • वह पदार्थ परमाणु की तरह अतिसूक्ष्म है। अतएव एक समय में अनेक इन्द्रियों से उसका संयोग नहीं हो पाता है। इन्द्रिय के साथ जिसका संयोग होने पर उस इन्द्रिय से ग्राह्य विषय का प्रत्यक्ष होता है। और जिसके संयोग के अभाव में अन्य कारणों के रहने पर भी प्रत्यक्ष नहीं होता है, वही अतिसूक्ष्म द्रव्य मनस है। जीव के देह में वह एक ही मनस रहता है। शरीर में एक से अधिक मनस की सत्ता यदि मान ली जाये तो एक काल में विभिन्न इन्द्रियों के साथ अनेक मनस का संयोग संभव हो जायेगा, जो अनेक विषयों का प्रत्यक्ष एक काल में करा देगा। उस एक ही मनस को यदि शरीरव्यापी मान लिया जाय तो एक समय में सभी इन्द्रियों के साथ उसका संयोग होना संभव हो जायेगा, जिससे अनेक विषयों का प्रत्यक्ष अनेक इन्द्रियों से एक समय में होने लगेगा।[1] मनस की परीक्षा प्रकरण में उसके विभुत्व का खण्डन किया गया है। ‘न गत्यभावात्’ 3/2/8 मनस विभु (सर्वव्यापी) नहीं है। विभुद्रव्य में गति-क्रिया नहीं रहती है और मनस का व्यापार चलता रहता है। मृत्यु के समय में मनस शरीर से बाहर चला जाता है। वह विभु नहीं हो सकता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न्यायसूत्र 3.2.56-59

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख