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मध्यकाल में लोकविश्वास

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लोकविश्वास लोक और विश्वास दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है-लोकमान्य विश्वास। वे विश्वास जो लोक द्वारा स्वीकृत और लोक में प्रचलित होते हैं, लोकविश्वास कहलाते हैं। वैसे विश्वास किसी प्रस्थापना या मान्यता की व्यक्तिपरक स्वीकृति है, लेकिन जब उसे लोक की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, तब वह लोक का होकर लोकविश्वास बन जाता है।

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मध्यकाल में या तो बुंदेलों कार शासन रहा है या गोंड़ों का। इस कारण गोंड़ों में प्रचलित लोकविश्वासों का प्रभाव इस अंचल पर अधिक रहा है। गोंड़ चंदेलों के समय और उनके पूर्व भी रहे हैं। गोड़ों की गढियाँ पूरे अंचल में फैली हुई हैं, उनके अवशेष आज तक वर्तमान हैं। फिर गढ़-मंडला के गोंड़ सत्ता में रहे हैं। इसलिए उनके विश्वास इस अंचल के विश्वासों के साथ हिल-मिलकर आगे बढ़े हैं। गोंड़ों में रजस्वला स्री पाँच दिन तक घर के बाहर ही रखी जाती है। उसकी छाया पड़ना ही खराब माना जाता है। छुआछूत की यह मान्यता हमारे परिवारों में कुछ परिवर्तन के साथ आज तक जीवित है। भूत-प्रेतों पर गोंड़ों का विश्वास दृढ़ है, क्योंकि उनके कुपित होने पर मनुष्यों पर आपत्तियाँ आती हैं-आज भी लोक में यह विश्वास प्रचलित है। मूर्तिपूजा की कल्पना इस अंचल में गोंड़ों से आई थी, जो आज हिंदुओं के धार्मिक लोकविश्वासों की धुरी है।

चंदेल युग

चंदेल-काल बुंदेलखंड का स्वर्णयुग रहा है। इसी समय उसकी राजनीतिक इकाई का जन्म हुआ और इसी समय उसकी सांस्कृतिक इकाई की पहचान बनी। युग की परिस्थितियों के अनुसार उसके लोकमूल्य और लोकविश्वास आ खड़े हुए। बाहरी आक्रमणों का सामना करने के लिए चंदेलों ने केवल सैनिक और शस्र ही नहीं तैयार किए, वरन् भीतरी ऊर्जा को कायम रखने के लिए लोक के संकल्पों और विश्वासों के दुर्ग खड़े कर दिए। इन दुर्गों की नींव ऐसे लोकविश्वासों के कंधों पर थी, जो व्यक्ति और लोक को वज्र की तरह सूदृढ़ बना देते हैं। आल्हाखण्ड की हर गाथा में उनका स्पष्ट सेकेत है-

  1. मानुस देइया जा दुरलभ है आहै समै न बारंबार।
  2. मरद बनाये मर जैबै कों खटिया परकें मरै बलाय।

जे मर जैहें रनखेतन मा साखौ चलो अँगारुँ जाय।।
मानव शरीर एक दुर्लभ वस्तु है। मानव योनि बार-बार नहीं मिलती। अतएव लोकविश्वास है कि जीवन में जो करना है, इसी कीमती समय में कर लेना चाहिए। मर्द वह है, जो मृत्यु का वरण करे। जो युद्धक्षेत्र में प्राण देते हैं, उनका यश अमर रहता है। पुरुष के जूझने के समानांतर नारी के सतीत्व पर लोगों को गहन आस्था थी। आल्हा में सिरसा के महावीर मलखान की मृत्यु पर रानी गजमोतिन के सती होने का वर्णन है। इतिहासकार अलबेरूनी ने लिखा है कि 'विधवाएँ या तो अपने पतिदेव की चिता पर अपने को झोंक देती हैं या तपस्विनी का जीवन व्यतीत करती हैं।' वत्सराज के 'रूपकषटकम्' में सती का स्पष्ट प्रमाण मिलता है।[1] इन दोनों के विपरीत आत्महत्या करने को पाप माना जाता था। देश-जाति के प्रति लोगों का विश्वास था कि 'यदि कोई देश है तो उनका, जाति है तो उनकी, यदि शासक हैं तो उनके।'[2] लोक का यह आत्मविश्वास उस समय बहुत ज़रूरी था।
महोबा में तांडव नृत्य करते शंकर, चारों दिशाओं में प्रतिष्ठित चंडिका देवी का मूर्तियाँ और गोखागिरि के कालभैरव इस तथ्य के साक्षी हैं कि लोक ने समय को देखते हुए संहारकारी देवी-देवता को चुना था। इनके अलावा किसी देव या देवी पर विश्वास की रुढि वर्तमान थी। समाज में दान का महत्त्व सबसे अधिक था। लोगों का विश्वास था कि दान करने से दाता और उसके पूर्वज पुण्य के भागी होते हैं। चंदेलकालीन शिलालेखों में दान के अनेक उल्लेख हैं। तीर्थयात्रा करना, व्रत रखना, तालाब खुदवाना और मंदिर बनवाना धार्मिक लोकविश्वासों के प्रमुख अंग थे। बुंदेलखंड में तालाबों की भरमार है ही, चंदेलकालीन मंदिर भी अगणित हैं। गाय और गंगा पापों का नाश करने वाली मानी जाती थीं। कर्म और भाग्य-संबंधी विश्वास प्रबल थे। 'प्रबोधचंद्रोदय' में स्पष्ट है कि 'वीधाता ही वाम है, तो क्या नहीं घट सकता'।[3] भाग्य पर अधिक निर्भर होने के बावजूद कर्म उपेक्षित न था। लोक का विश्वास था कि भले कर्म दूसरे जन्म में सहायक होते हैं।[4] पुनर्जन्म होता है और उससे छुटकारा तभी मिलता है, जब व्यक्ति के पुण्य अधिक हों। पुण्य का अर्थ शुभकर्म ही है, अतएव यह सही नहीं है कि कर्म पर लोगों का विश्वास नहीं था या कम हो गया था। प्रकृति-संबंधी लोकविश्वास आदिकाल से प्रचलित रहे हैं, किंतु इस काल में शिव-पार्वती की लोकप्रियता के कारण बेलपत्र को अधिक महत्त्व मिला था। नारियों का विश्वास था कि पार्वती की पूजा से अभीष्ट वह की प्राप्ति होती है।[5] इसी से संबद्ध बेलपत्र भी लोकमान्य हो गया। कृषि-संबंधी विश्वास कुछ परम्परित थे और कुछ नये। खेती करने के पहले हल-बैल की पूजा, अमावस्या को हल-बैल न चलाना, खेती के ओले, पाला आदि से बचाने के लिए पूजा करना आदि लोकविश्वास प्रचलित थे। नाग-संबंधी विश्वास इस समय तक बहुत लोकप्रिय हो चुके थे। दसवीं-ग्यारहवीं शती में निर्मित मंदिरों से जूड़ी नागसंबंधी किंवदंतियों में इन विश्वासों की भूमिका स्पष्ट है। आक्र्येल्याजिकल सर्वे रिपोट्र्स में उद्धृत इन किंवदंतियों से यह लोकविश्वास भी विशिष्ट बन जाता है कि मंदिर के निर्माण से व्यक्ति रोग-शोक से मुक्त हो जाता है।
कभी-कभी कोई लोकविश्वास स्थानीय इतीहास से जुड़ जाता है। महोबा में यह लोकप्रचलित है कि वहाँ कोई नगाड़ा (यद्ध का) नहीं बजाता। अगर बजाता है, तो मृत्यु को प्राप्त होता है। इसी तरह चंदेलों के किलों के संबंध में यह लोकविश्वास है कि उनमें धन गड़ा हुआ है। अजयगढ़ दुर्ग के द्वार पर एक बीजक खुदा हुआ है। हर स्थान या नगर में कोई-न-कोई वृक्ष, सरोवर, भवन, वापी, मढिया आदि होता है, जिसमें भूत-प्रेत का निवास बताया जाता है। जादू-टोने, भूत-प्रेत और तंत्र-मंत्र-संबंधी विश्वास इस समय हर वर्ग में थे।[6] मंत्रों के बल से अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।[7] आँखों में अंजन विशेष लगाने और आपत्तियों से बचने के लिए तंत्र-मंत्र और ज्योतिष का उल्लेख हुआ है। दिबारी, देवीगीत, राछरों जैसे आदिकालीन लोकगीतों और 'आल्हा' लोकगाथाओं में लोकविश्वासों को काफ़ी महत्त्व मिला है। दुष्कर्म करने से मनुष्य अपने आप मर जाता है। इस संसार में कोई बचता नहीं हे, सभी नश्वर हैं। 'बाहें और नैन फड़कने से शुभ होता है।', 'धान बोने से बहन धनी होती है और दूध सींचने से ननद पुत्रवती होती है।', 'तथा शकुनापशकुन अपना फल अवश्य देते हैं।'[8]

तोमर काल

तोमरनरेशों के समय इस अंचल पर आक्रमणों की दृष्टि लगी हुई थी, अतएव ऐसे लोकविश्वासों का सतत् जागरण ज़रूरी था, जो लोक और लोकसंस्कृति को शक्तिसंपन्न बनाते। तत्कालीन काव्य-ग्रंथों और ऐतिहासिक प्रमाणों तथा लोकगीतों से पता चलता है कि उस समय लोक में शौर्य, कर्म, सतीत्व और प्रेम-संबंधी लोकविश्वास प्रमुख थे। विदेशी संस्कृति की तलवार से बचने के लिए दो मार्ग ही थे-एक युद्ध और दूसरा प्रेम। कविवर विष्णुदास के महाभारत से स्पष्ट है कि लोगों का विश्वास क्षात्र धर्म का पालन था। अगर क्षत्रिय शत्रुओं को देखकर भागता है, तो सात पीढ़ीयों केर पूर्वज लज्जित होते हैं। पृथ्वी पर उसे न तो नाम मिलता है और न गति।[9] मोक्ष पाने के लिए क्षत्रिय (सैनिक या वीर) रणक्षेत्र में जूझता है, राजा दान देने में कृपणता नहीं दिखाता और विप्र अपने मन में जीवों पर दया रखता है।[10] कवि ने सीता से कहलाया है-

       ध्रिगु रे ध्रिगु मानुस कौ जन्म। ध्रिगु जु बंस जिहि होत अकम्र्म।।
       ध्रिगु जीवन जो परबस रहै। दुक्ख बियापै सीता कहै।।

उस जीवन को धिक्कार है, जो परतंत्र होता है। सिद्ध है कि कवि लोकविश्वास को कथा के माध्यम से व्यक्त करता है और तत्कालीन लोकचेतना का प्रतिबिम्बन करता है। सारी परिस्थिति के ध्यान में रखकर ही उसने कथाकाव्य चुना है और कथा का फल बताते हुए कथा सुनने की अनिवार्यता प्रमाणित की है। कथा सुनने से पाप नष्ट होता है, मन और बुद्धि स्थिर होते हैं, युद्ध में पराजय नहीं होती और तीर्थ-स्नान का फल मिलता है। 'सत्त' और 'पत' उस समय के लोकजीवन के केन्द्रीय मंत्र थे। 'सत्त' और 'पत' से संबंधित अनेक लोकविश्वास हैं। देवता और देवी में सत्त होता है। पुरुष सत्त पर टिका रहता है। नारी में सत्त होता है, तभी वह सती होती है। नारी अपनी पत की रक्षा सबकुछ देकर करती है। कुल की पत, राज की पत, देस की पत की रक्षा करना सबका धर्म है। लोगों को विश्वास था कि कर्म भगवान् भी नहीं मिटा सकता। जो होना है, वह होकर रहेगा। विधना ने सुख और दु:ख मस्तक पर लिख दिये हैं।[11] इस रूप में कर्मफल और भाग्य पर विश्वास की परम्परा अमर रही है असल में, कर्म और भाग्य लोकसंस्कृति के खाते में पूरक रहे हैं। कीर्ति भी हर युग में प्यारी रही है। इस युग में भी कीर्ति के बिना जीवन कीर व्यर्थता सिद्ध की गयी है। लोगों का विश्वास था कि युद्ध और दान के बिना कीर्ति नहीं मिलती।[12] ज्योतिष और शकुनापशकुन पर विश्वास भी प्रबल था। स्वर्ग और नरक के माप भी निश्चित थे। पुत्र के बिना नरक से उद्धार नहीं होता और पूर्वज मोक्ष नहीं पाते।[13] धरती के संबंध में लोकमान्यता थी कि नाग (शेषनाग) के सिर (फन) पर धरती टिकी हुई है।[14] मंत्र और टोना-टोटका पर लोक का विश्वास अभी तक बना था।[15] वर्जनाएँ भी लोकविश्वास की संपुष्टि करती हैं। विष्णुदास कृत महाभारत में पूरे घत्ते की चौपाई वर्जनाओं से भरी हैं। उनमें कुछ ऐसी हैं जो नीतिपरक हैं, परंतु कुछ रूढियों के प्रति विद्रोही भूमिका अदा करती हुई स्वच्छंद हैं जैसे-

               बिनसै धर्म कियें पाखंड
               बिनसै बैदु सुरा-रस भीनें।
               बिनसै कला कुठाकुर सेवा।

इन तीनों अर्द्धालियों में जिन लोकविश्वासों का उल्लेख किया गया है, वे क्रांतिकारी हैं। पाखंड करने से धर्म नष्ट होता है और शराब में भीगने से वेद या वेदों का ज्ञान नष्ट होता है। ये दोनों धर्म के क्षेत्र में क्रांतिस्त्रष्टा विश्वास हैं जबकि 'कुस्वामी या बुरे आश्रयदाता की सेवा करने से कला नष्ट होती है' जैसा लोकविश्वास कला की दिशा में सार्थक पहल करता हुआ नया द्वार खोलता है।

बुंदेल काल

भक्ति आंदोलन की लहर इस अंचल के लोकविश्वासों में एक नया परिवर्तन अंकित करती है। भक्तिपरक लोकविश्वास तो बहुत पहले से मौजूद थे, लेकिन सीताराम और राधेश्याम की लीलाओं ने उनकी भावना को अधिक व्यापक और गहरा बना दिया था। लोकगीतों में राम-कृष्ण और सीता-राधा का नायकत्व लोकमय होकर लोक से इतना जूड़ चुका था कि हर पुरुष राम-कृष्ण और हर स्त्री सीता-राधा हो गयी थी। इस तरह लोकसंस्कृति की रक्षा के लिए एक नया आत्मविश्वास और नयी ऊर्जा का द्वार खुल गया। अंतर केवल इतना था कि लोकभक्ति संप्रदायमुक्त और निरपेक्ष थी। वह संपूर्ण लोक की थी, इसलिए लोक की शक्ति बनी। दूसरे, उससे हिंदू-मुस्लिम और नीची जातियों की भेद-भावविहीन एकता का सूत्रपात हुआ। तोमरकालीन ग्रंथ 'छिताई चरित' में कथाकार ने इस एकता के भाव का स्पष्ट संकेत किया था, और उसी परंपरा में लोकभक्ति से संबंद्ध लोकविश्वास ढल गये। जात-पाँत पूँछे न कोई, हरि को भजै सो हरि को होई (जाति-पाँति कोई नहीं पूछता, जो भगवान् को भजता है, वह उसी का हो जाता है), राम भरोसें खेती (सब राम का भरोसा है), राम भरोसे जे रहें परबत पै हरयायँ (जो राम के भरोसे रहते हैं, वे पर्वत पर भी हरे रहते हैं यानी कि विषम परिस्थिति में भी सुखी रहते हैं), राम राखे कोऊ न चाखे (राम रखवाला है, तो कोई क्या बिगाड़ सकता है) आदि विश्वास कहावतों के रूप में इसलिए प्रचलित हुए कि वे लोक द्वारा लोकजीवन के प्रमुख सूत्र बन चुके थे।
तोमरों के पतन के बाद इस अंचल की ऐतिहासिक घटना थी आजादी की लड़ाई, जो चंपतराय और छत्रसाल द्वारा लड़ी गयी। असल में, मुग़लों के आक्रमण निरंतर होते रहने के कारण बुंदेलखंड की कुछ रियासतें आत्म-समपंण कर चुकी थीं और कुछ अधीन हो चुकी थीं। ऐसी परिस्थिति में संघर्ष ज़रूरी था। अतएव शौर्यपरक लोकविश्वास भी 'परबत पर हरयाते' रहे इनके परिकर में क्षात्र-धर्म के पालन करने युद्ध में जूझने से स्वर्ग मिलता है, काल-गति जानी नहीं जाती, उद्यम का फल अवश्य मिलता है, भगवान जैसा करना चाहता है, वैसी ही बुद्धि कर देता है, रण के प्रयाण में ज्योतिष और शकुनों पर विश्वास, विपरीत स्थिति में अपशकुन, हर स्थिति में भाग्य या कर्म का फल आदि लोकविश्वास आते हैं, जो तत्कालीन ऐतिहासिक काव्यों में उल्लिखित हैं। आश्चर्य है कि मध्ययुग के सभी प्रमुख कवियों ने कुल, राज और हिंदुवाने की 'पत' (लाज या प्रतिष्ठा) रखने के लिए रण में जूझने और क्षात्रधर्म के पालन करने को प्रधानता दी है।
महोबा कौ रायसौ (1526 ई. के लगभग) में स्पष्ट है कि 'छत्रिय कौ यह धरम है, रन तिरथ तजि प्रान'। साथ ही सामुद्रिक (ज्योतिष) संबंधी लोकविश्वास यानी कि शुभ घड़ी में काम करना, शकुन और अपशकुन की मान्यता भी प्रमुख है।[16] तुलसी तो लोकविश्वासों के कोष थे। उन्होंने लोकविश्वासों की नींव पर अपनी मान्यताएँ खड़ी की हैं। दोहावली के दोहे लोकविश्वासों की शिलाओं पर कविता के ईंटगारे से बने स्तंभ हैं। संसार में काल किसको नहीं खाता अर्थात् संसार की हर वस्तु नश्वर है, इस लोकविश्वास को तुलसी ने लोकशैली से काव्यात्मक बना दिया है-

    काह न पावक जारि सक, का न समुद्र समाइ।
    का न करे अबला प्रबल, केहि जग काल न खाइ।।

यह दोहा लोककाव्य में भी आ गया है, पर इसके सभी प्रश्नों के उत्तरों के लिए एक दूसरा दोहा रच दिया गया है। तुलसी के दोहे लोकविश्वासों की तरह कहे जाते हैं- 'भलो भलाई पै लहै, लहै निचाई नीच', 'जड़-चेतन गुन-दोष मय वि कीन्ह करतार', 'तुलसी जसि भवितव्यता, तैसी मिलै सहाय। आपु न आवै ताहि पै, ताहि तहाँ लै जाय।।' और 'मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान को एक। पालै-पोषै सकल अँग तुलसी सहित विवेक।।'
तुलसी भक्त कवि थे, इसलिए उन्होंने लोकविश्वास से लाभ लेकर भक्ति करने को कहा था। लोकविश्वास है कि मानव का शरीर मिलना दुर्लभ है, अतएव तुलसी ने उसे कारण बनाकर अपने कार्य की पुष्टि कर दी है-"दुर्लभ देह पाइ हरीपद भज करम वचन अरु ही ते।" रामचरितमानस में जहाँ सामान्य लोकविश्वासों का वर्णन है, जैसे 'होईहै वही, जो राम रचि राखा', 'जे न मित्र-दु:ख होहिं दुखारी, तिनहिं बिलोकत पातक भारी ।।' आदि, वहाँ कुछ विशिष्ट लोकविश्वासों का भी, जैसे 'भानु पी', सेइय उर आगी' (धूप को पिछे से और आग को आगे से सेवन करना लाभप्रद है) और 'श्रीखंड समपावक प्रबेस कियो, सुमिरि प्रभु, मैथिली।' (अग्नि-परीक्षा)। अग्नि-परीक्षा तो एक अभीप्राय है, एक कथानक-रुढि है, लेकिन तुलसी ने उसे अग्नि में प्रवेश करते हुए बताया है। ऐसा लोकविश्वास था कि अग्नि-परीक्षा में अग्नि जलाकर उसमें प्रवेश कर अक्षत निकल आना ही सफलता है और तुलसी ने बिल्कुल वैसा ही प्रसंग लंकाकांड में बुन दिया है। शकुनापशकुन, भूत-प्रेत, जादू-मंत्र, टोना-टोटके जैसे विश्वास भी तुलसी के परिचित थे। दोहावली में तो कवि ज्योतिषी हो जाता है। कौन-से नक्षत्र शुभ हैं, कौन-सी तिथियाँ अशुभ हैं, कौन-सा चंद्र घातक है और सिन वस्तुओं का दर्शन शुभ है।[17] रामचरितमानस में उस जादू के अंजन का उल्लेख है, जिसे आँखों में लगाने से धरती के नीचे गड़ा धन देख लेते हैं।[18]
केशव जैसे रीतिकवि ने उस समय की परिस्थितियाँ तौलकर यह लिखा था कि रण में जूझने वाले संसार-समुद्र से पार होकर सूरज-मंडल भेदकर स्वर्ग पहुँचते हैं। उनके पग-पग पर यज्ञों का फल होता है और उनकी कथा सुनकर लोक शुद्ध होता है।[19] केशव ने तुलसी की तरह लोक का प्रयोग अनेक बार किया है। 'जनपद' शब्द भी आया है, इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने लोक और लोकजीवन को करीब से देखा था। रतन-बावनी में 'पत' (पति पाठ सही नहीं है)-संबंधी विश्वास पर अच्छी चर्चा है। 'जहाँगीर जस-चंद्रिका' में भग्य और कर्म-संबंधी प्रचलित लोकविश्वास को वाणी दी है-'करम फलै उद्दिम करें उद्दिम करमहिं पाइ' (कर्म करने से भाग्य फलता है और भाग्य से कर्म)।[20]
प्रेमाख्यानकों में लोकसंस्कृति की धरोहर को सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति अधिक बलवती होती है। हरिसेवक मिश्र (1698-1735 ई.) की रचना 'कामरूप की कथा' एव बोधा के 'विरहवारीश' (1755 ई.) में लोकविश्वासों की परम्परा का विकास मिलता है। उनमें प्रेम-संबंधी लोकविश्वासों की प्रमुखता है। प्रेम का पथ कराल है, तलवार की धार पर दौड़ने की तरह। चकोर सुधाधर के प्रम में अंगार खा लेती है। कमल और सूर्य, मृग और राग, मछली और जल, स्वाँति और चातक, चुंबक और लोहा तथा हारिल और लकड़ी के प्रेम के विश्वास[21] कब से प्रचलित हुए, खोज का विषय है। दूसरे परम्परित लोकविश्वास हैं-कर्म का फल भोगना पड़ता है; संसार में भावी प्रबल है, भाल में सब लिख दिया जाता है, वही होता है; पारस के स्पर्श से सोना होना; धरा शेषनाग के सीस पर स्थित है; भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, मूठ, शकुन-अपशकुन आदि।[22] 'छत्रप्रकास' और 'जगतराज की दिग्विजय' की रचना 18वीं शती के प्रथम चरण में हुई थी और दोनों बुंदेलखंड के इतिहास-ग्रंथ हैं। दूसरे, छत्रसाल और जगतराज के पत्र हैं, जो प्रामाणिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। धामी संप्रदाय का पवित्र ग्रंथ कुलजमस्वरूप भी तत्कालीन विश्वासों में उद्वेलन पैदा करता है। इन प्रमाणों के आधार पर लोकविश्वासों का एक चित्र बनता है, जिससे उस समय की संस्कृति का पता चलता है। पौराणिक प्रतीकों के माध्यम से 'छत्रप्रकास' का कवि राष्ट्रीय और अराष्ट्रीय तत्त्वों की शत्रुता के विश्वास को स्पष्ट करता है। सुर और असुर के बैर[23] और संघर्ष का लोकविश्वास परम्परित है और मध्ययुग के अनेक ग्रंथों में इसी के प्रतीक द्वारा राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति हुई है। इस संघर्षी वीरता के पीछे छत्रसाल की परमात्मा पर आस्था थी। उनका विश्वास था कि हर बात भगवान् की इच्छा से ही होती है। परमेश्वर ने जो बना दी, उसे कोई नहीं मिटा सकता। लोकिन 'उद्यम' (कर्म) का फल सबको मिलता है। इस लोकविश्वास का पुष्ट रूप छत्रप्रकास की इन पंक्तियों में मिलता है-

"जो जैसो उद्यम करै, सो तैसो फल लेइ।"
"उद्यम करै संग सब लागै। उद्यम तें जग में जस जागै।।
समुद उतर उद्यम में जइये। उद्यम तें परमेसुर पइये।।"

कर्म से कीर्ति मिलती है। समुद्र भी कर्म से पार किया जा सकता है और यहाँ तक कि परमेश्वर की प्राप्ति कर्म से ही होती है। 'कुलजमस्वरूप' में भी यह लोकविश्वास प्रधान है। लेकिन उसमें हिंदुओं और मुसलमानों के अंधविश्वासों की आलोचना है। मूर्तिपूजा भी अंधविश्वास है। छत्रसाल और तत्कालीन लोक ने इसे मान्यता नहीं दी। 'पन्ना' में सुरक्षित पत्रों से ज्ञात होता है कि छत्रसाल का विश्वास जादू-टोना पर था। उन्हों स्वप्नों में देवी-देवता के दर्शन होते थे और उन्हें प्रसन्न करने के लिए वे बलि भी चढ़ाते थे।[24] 'छत्रप्रकाश' में 'निधि अंजन' के प्रयोग से स्पष्ट है कि उस समय लोगों का विश्वास था कि सिद्ध अंजन लगाने से भूमि में गड़ी संपत्ति दिखाई देने लगती है।[25] इनके साथ-साथ परस्वार्थ और लोकहित को पुण्य और निजी स्वार्थ को पाप समझा जाता था, जिससे उस समय के लोक की मानसिकता प्रकट होती है- 'निज स्वारथ सो पाप नहिं, परस्वारथ सो पुन्न।' और 'काऊ की लटी न चाहै और न लटी करै।' (लटीउबुराई)। 'जगातराज-दिग्विजय' में तीन विचित्र लोकविश्वासों का वर्णन है। पहला यह है, कि राजा जो करता है, वह न्याय है-'राजा करहि सुन्याय है पाँसौ परहि सुदाँव।' बुंदेली कहावत है-'पंडित पढ़ै सो ब्याव, राजा कबै सो न्याय।' पंड़ित मंत्रों के रूप में कुछ भी पढ़े, वह विवाह माना जाता है। इसी प्रकार राजा जो भी निर्णय करे वही न्याय है। दूसरा एक स्वप्न है जिसमें दलेल शरीर में तेल लगाये, लाल फूलों की माला पहने हुए अन्न खा रहा है और प्रेतों की बरात साथ है। लोगों का विश्वास है कि इस स्वप्न से प्राणहानि होती है। तीसरा यह है कि विप्र का क्रोध एक क्षण, क्षत्रिय का तीन दिन, वैश्य का एक माह और शूद्र का हमेशा रहता है।[26]

       विप्र क्रोध क्षण एक बखानौ। क्षत्रिय क्रोध तीन दिन जानौ।।
       वैश्य क्रोध इक मास प्रजंता। शूद्र क्रोध कौ आदि न अंता।।

19वीं शती में भी होनहार की प्रबलता, कर्मफल की अनिवार्यता, लोकयश की ममता, सतीत्व की महत्ता, शकुनापशकुन और टोना-टोटका की व्याप्ति जैसे लोकविश्वास परम्परा से चले आये हैं।[27] 1842 ई. के पारीछत और अंग्रेजों के युद्ध के बाद कई कटककाव्य लिखे गए, जिनमें छोटे-छोटे युद्धों के वर्णन लोकछदों और लोकशैली में हैं। उनमें छात्रधर्म और कर्म तथा सत और पत-संबंधी लोकविश्वासों की महत्ता इसलिए मिली है कि वे आजादी की पहली लड़ाई की तैयारी में लोक को जाग्रत करें।
1857 ई. के स्वतंत्रता-संग्राम में मिली असफलता के फलस्वरूप लोकविश्वासों में गिरावट-सी दिखाई पड़ती है। फागसम्राद् ईसुरी निराशा-भरे स्वर में कह उठता है-'बखरी रैयत हैं भारे की, दई पिया प्यारे की।' उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण में लोककाव्य का पुनरुत्थान हुआ था, इस कारण लोकविश्वासों का भी सहज सम्मान हुआ। ईसुरी की फागों में व्यक्त लोकविश्वास हैं-धर्म के बिना कर्म नहीं खुलता, योग से व्यक्ति विमान पर चढ़कर स्वर्ग जाते है, ब्रह्मा ने उन्हीं के लिए बैकुंठ की रचना की है, गंगा स्नान से मोक्ष मिलता है, इस तन का भरोसा नहीं है और एक दिन सभी को मरना है, यह संसार ओस की बूँद है, जो हवा के चलने से ढुलक जाती है, मानव बड़े भाग्य से होता है, जो विधाता ने लिख दिया है वही होता है, धर्मराज पाप-पुण्य का खाता रखता है, होतव्यता पर किसी का वश नहीं है, समरभूमि में लड़ते हुए प्राण देने पर मनुष्य का यश गंगाजी के यश की तरह होता है, न लगना, टोटका-टोना, राई-नौन उतारने से उपचार, गुनियाँ और नावते द्वारा जंत्र-मंत्र से झाड़-फूँक करना। इनसे स्पष्ट है कि 19वीं शती के अंतिम चरण में भी लोगों का विश्वास धर्म और तंत्र-मंत्र पर केंद्रित था। मध्ययुगीन लोककथाओं में भी 'इस देह का कोई ठिकाना नहीं है, करनी का फल मिलता है, भाग्य बलवान है, पूर्वजन्म के संचित कर्म फलित होते हैं, पुनर्जन्म होता है, परकाय-प्रवेश होता है, बलि से तालाब में जल भर जाता है, मंदिर और तालाब बनवाना पुण्य का काम है, पर्वस्थान का फल मिलता है, पेट ही सब करवाता है, पसीने की कमाई उत्तम होती है, नारी का हाथ पकड़ने से पती हो जाता है, नौलखा हार की रखवाली नागिन करती है, जन्मपत्री मिलाना और ज्योतिष से शुभ-अशुभ की जाँच, खाना खाने के पहले आगे देना अशुभ है' आदि लोकविश्वास अपने आप आ गए हैं। उनसे मध्ययुग की नाड़ी का निदान संभव है।
मध्ययुगीन लोकगाथाएँ वीररसपरक, प्रेमपरक और नीति या धर्मपरक रही हैं। वीर-रसपरक गाथाओं में मनोगूजरी, मथुरावली, लक्ष्मीबाई, लोहागढ़, धनसिंह आदि की गाथाएँ हैं, जिनमें क्षात्र धर्म और शकुनापशकुन-संबंधी लोकविश्वास प्रयुक्त हुए हैं। 'पत' रखने और 'सत्त' के लिए प्राण देने का लोकविश्वास मुख्य था, पर शकुनापशकुन की पंक्तियाँ फल या परिणाम को पहले से ही कह देती हैं। उदाहरण के लिए, 'छींकत घुड़ला (या बछेड़ा) पलाने अमन जू (या अन्य के साथ जू) बरजत भये असवार' से असफलता का संकेत मिल जाता है। राछरों में भी ये लोकविश्वास मिलते हैं। राछरों में क्षणभंगुरता की द्योतक दो पंक्तियाँ या साखी का प्रयोग अधिकतर हुआ है-'सदा तुरइया रे ना फूलै, सदा न सावन होय। सदा न राजा रन चढ़ै, सदा न जोबन होय।।' प्रेमपरक गाथाओं जैसे, सारंगा-सदाबृज, ढोला-मारु आदि में प्रेम, भाग्य, कर्म, ज्योतिष, जादू-मंत्र-संबंधी विश्वासों की भरमार है, जबकि धर्म-नीतिपरक गाथाओं में अवतार, सत्त, नीति, स्वर्ग-नरक, मानवयोनि, दया-प्रेम आदि संबंधी लोकविश्वास संग्रथित हैं। लोकगीतों में भी अनेक लोकविश्वासों की योजना हुई है। सुदिन, सुघरी और सगुन तो सुनिश्चित ही हैं। लमटेरा गीतों में एक-एक पंक्ति होती है, पर लोकविश्वास से जड़ित होकर वह कितनी सुंदर बन जाती है। इसका एक उदाहरण है-'मिलन खों बैयाँ फरकें रे, बैयाँ फरकें रे, दरस खों तरस रये दोऊ नैन रे...।' बाँहें और नैन के जोड़े से पंक्ति में संतुलन का सौंदर्य आ गया है। प्रथम अर्द्धपंक्ति में बाँहों का फड़कने का शकुन है और सात्त्विक कम्प भी। यह देह दुर्लभ है, भजन के बिना देह सूनी है, ईश्वर ही रचता है और मिटाता है, करम का लिखा कोई नहीं टाल सकता, हंस मोती चुगता है, प्रेम से ही प्रभु मिलते हैं, दान देने से स्वर्ग मिलता है, कोदों को दान में देने से नन्हें पति मिलते हैं, भौजी (भाभी) का हृदय कठोर होता है, बाँस आच्छादन करने से वंश बढ़ता है, पीपल में बरमदेव का वास है, हरदौल को निमंत्रण देने से विवाह में बाधा नहीं पड़ती, शुक संदेशवाहक है, मंत्र से रोग का उपचार होता है...आदि न जाने कितने लोकविश्वास लोकगीतों के भावों, विचारों और काव्यत्व को बल देते हैं। राई का उदाहरण देखें-

गोरी, हारै न जाव, गोरी हारै न जाव पीपर के पत्तन में देवता।
मोरी चुनरी के छोर, मोरी चुनरी के छोर, राजा करोंदन में बीद गये।

लोकविश्वास हे कि पीपल में देवता का वास है। पति कहता है कि जंगल न जाओ, वहाँ पीपल में देवता रहते हैं। अर्थात् घर पर रहो, ताकि वह प्रेम-क्रीड़ा कर सके। पत्नी भी चतुर है। अपनी चुनरी करोंदा में उलझी बताकर उसे पास बुलाना चाहती है। लोकविश्वास का उपयोग इस प्रकार करने से राई में काव्यत्व आ गया है। पुनर्जन्म में मनुष्य होंगे या नहीं, इस जन्म में मनुष्य की योनि बड़े भाग्य से मिली है, इस लोकविश्वास का सहारा लेकर ईसुरी कहता है-'मानुस होनें कै ना होनें, रजऊ बोल देव नौनें।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रूपकषटकम् (समुद्र.), पृ. 183 एवं गढ़ा सती अभिलेख सं. 1342
  2. अलबेरूनी का उद्धरण, चंदेल और उनका राजत्वकाल, केशवचंद्र मिश्र, पृ. 187
  3. प्रबोधचंद्रोदय, पृ. 97
  4. प्रबोधचंद्रोदय, पृ. 141
  5. रूपकषटकम् (समुद्र.), पृ. 157
  6. रूपकषटकम् (रुक्मि.) पृ. 42 (त्रिपुर.) पृ. 103
  7. रूपकषटकम् (हास्य.) पृ. 136, 132
  8. ' बे नर आपऊ सें मर जात हैं कर कर खोटे काम रे ।' , ' दोई पाटन के बीच में साबत बचो न कोय रे ।', ' मिलन खाँ तो बहियाँ फरकें हों, बहियाँ फरकें हों, दरसन खों फरक रये दोउ नैन ।' , धान बओ, बीरन धान बओ बहन धनबंती होय, दूध सींचो भौजी दूध सींचो ननद पुतबंती होय ।' आदि ।
  9. महाभारत, पृ. 134 एवं 165
  10. रामायण-कथा, पृ. 68, छंद 30
  11. छिताईतरित, पृ. 37, छंद 250-51
  12. रामायण-कथा, पृ. 107, छंद 250-51
  13. रामायण-कथा, पृ. 49, छंद 85
  14. रामायण-कथा, पृ. 135, छंद 36
  15. महाभारत, पृ. 19, छंद 83-84, पृ. 104, छंद 48, पृ. 173
  16. परमाल रासो (महोबा कौ रायसौ), पृ. 285, छंद 15, पृ. 350, छंद 120 पृ. 181, छंद 483
  17. दोहावली, छंद 456, 457, 458, 459, 460
  18. बालकांड, दोहा संख्या 1
  19. केशव ग्रंथावली, खंड 3, वीर चरित्र, 31/16-18
  20. केशव ग्रंथावली, जहाँगीर-जस चंद्रिका, छंद 177-179
  21. विरहवारीश, बोधा, 1/30, 19/31-33
  22. कामरूप कथा, 5/31, 7/23, 15/78, 15/101, 5/79 एवं 91. 15/66 तथा विरहवारीश, 11/11, 19/6, 20/43, 20/53-54
  23. छत्रप्रकास (काशी सं.) 11/3
  24. डॉ. भगवान दास गुप्त की पुस्तक महाराज छत्रसाल बुंदेला, पृ. 142 में उद्धृत पन्ना, पत्र सं. 40, 61, 72, 75
  25. छत्रप्रकास, 11/15
  26. जगतराज की दिग्विजय, छंद 219, 261, 153
  27. सत्रजीत रायसौ, छंद 146; पारीछत कौ रायसौ, छंद 10; कृष्णचंद्रिका, पृ. 275; पारिछत कौ रायसौ, छंद 352-53; बाघाइट कौ राइसौ, छंद 97; लक्ष्मीबाई रायसौ 2/8, 24-25; कृष्णचंद्रिका 5/42-43

बाहरी कड़ियाँ

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