भारतकोश सम्पादकीय 17 मार्च 2016

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हिन्दी के ई-संसार का संचार -आदित्य चौधरी


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इस बार प्रस्तुत है विश्व हिन्दी सचिवालय, मॉरीशस द्वारा 'विश्व हिन्दी पत्रिका 2015' में प्रकाशित मेरा लेख...

          एक सर्वेक्षण के अनुसार प्रत्येक महीने एक बोली या भाषा पृथ्वी से हमेशा के लिए समाप्त हो रही है। इसके कारण क्या हैं… और कहीं हिन्दी के साथ भी तो यह नहीं हो जाएगा…
          आज के समय में किसी भाषा या बोली के जीवित रहने के लिए मात्र साहित्य की नहीं बल्कि उसे व्यवसाय, विज्ञान और रोज़गार की भाषा बनाने की भी ज़रूरत होती है। जो भाषा सामान्य मनुष्य को रोज़गार नहीं दे पाती वह धीरे-धीरे एक संकुचित दायरे में सिमटती चली जाती है। अंग्रेज़ी के अंतरराष्ट्रीय भाषा होने का सबसे बड़ा कारण व्यवसाय है। शौक़िया किसी भाषा को सीखने वाले बहुत ही कम लोग होते हैं, अधिकतर लोग किसी न किसी व्यावसायिक कारण से ही किसी अन्य भाषा को सीखते हैं।

          साइबर दुनिया में हिन्दी कितनी और कैसी है यह किसी से छुपा नहीं है। इंटरनेट के सर्च इंजन स्थानीय भाषा को कितनी वरीयता दे रहे हैं और कितनी देनी चाहिए यह जानना आवश्यक है। इंटरनेट पर सर्च इंजनों की अपनी सीमाएँ हैं जिन्हें अधिक विकसित करना होगा। जैसे कि सामान्यत: लोग हिन्दी की सामग्री खोजने में भी रोमन याने अंग्रेज़ी की लिपि का प्रयोग करते हैं। ऐसा करने से अंग्रेज़ी की वेबसाइटें ही परिणाम में दिखाई देती हैं। जबकि होना यह चाहिए कि हिन्दी या भारत से संबंधित शब्द या वाक्य को खोजने पर सर्च इंजनों को परिणाम देने के साथ-साथ यह भी विकल्प दिखाना चाहिए कि प्रयोक्ता को किस भाषा में परिणाम चाहिए और इससे अच्छा यह रहेगा कि सभी भाषाओं का विकल्प भी दिया जाए। सर्च इंजन के रोबॉट की क्राउलिंग में वरीयता, व्यवसाय को दी जाती है न कि विद्यार्थी अथवा शोधार्थी को। हमें सर्च इंजनों पर यह दबाव बनाना चाहिए कि रोमन लिपि में खोजे गए शब्दों के परिणाम मात्र अंग्रेज़ी में ही देने की प्रथा को समाप्त करें।
          उदाहरण के लिए मान लीजिए आपने खोजा ‘Bharat’… तो सर्च इंजन को परिणाम के साथ यह भी दिखाना चाहिए कि ‘कहीं आप किसी अन्य भाषा की वेब-खोज तो नहीं कर रहे?’ साथ ही अन्य भाषाओं का विकल्प प्रस्तुत करना चाहिए।
          इंटरनेट पर अनेक भाषाओं से संबंधित सामग्री है लेकिन हिन्दी-देवनागरी में खोजने पर गिनी चुनी वेबसाइटें ही खुलती थीं इसी को ध्यान में रखते हुए हमने भारतकोश (www.bharatkosh.org) का निर्माण किया। आज 15 लाख क्लिक प्रतिमाह हो रहे हैं। डेढ़ लाख के क़रीब वेब पेज, 34 हज़ार से अधिक लेख और 17 करोड़ से अधिक पाठक हैं। इसके लिए कहीं से कोई आर्थिक सहायता अभी तक प्राप्त नहीं है। भारतकोश के पाठक 70% से अधिक छात्र हैं जो 18-28 वर्ष की उम्र के हैं। सामान्य ज्ञान पहेली के कारण भारतकोश, छात्रों और रोज़गार देने वाली प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले प्रतियोगियों में सर्वाधिक लोकप्रिय है।

आख़िर बनाया ही क्यों भारतकोश…

          कभी-कभी ऐसा होता है कि खोजने हम कुछ और निकलते हैं और खोज कुछ और लेते हैं। जैसे मनुष्य ने 'अमृत' खोजना चाहा। ‘अमृत’ एक ऐसा पेय पदार्थ जिसे कोई पी ले तो अमर हो जाये और इसकी खोज में मनुष्य ने बेहिसाब दिमाग़ लगाया, अथाह समय लगाया। अमृत तो नहीं मिला, लेकिन पूरा चिकित्सा विज्ञान खोज लिया गया। वो चाहे आयुर्वेद हो, होम्योपैथी हो या ऐलोपैथी हो, कोई भी चिकित्सा पद्धति हो। अमृत की खोज की और मिल गया चिकित्सा विज्ञान। ज्यों का त्यों अमृत तो नहीं मिला लेकिन मनुष्य ने अपनी औसत आयु बीसों साल बढ़ा ली और धीरे-धीरे बढ़ती ही चली जा रही है। इसी तरह से मनुष्य की चाहत थी ‘पारस पत्थर’ खोजने की। ‘पारस पत्थर’ एक ऐसा पत्थर जिससे लोहे को छू लें तो लोहा सोना बन जाय। ऐसा पारस पत्थर बहुत खोजा गया, उसे बनाने की बहुत कोशिश हुई। पारस पत्थर तो नहीं मिला और मिलने की कोई सम्भावना भी नहीं है, लेकिन पूरा रसायन विज्ञान इसी खोज का परिणाम है। मनुष्य ने चिड़ियों को उड़ते देखा तो उसने उड़ना चाहा। इस उड़ने की खोज में तमाम तरह के उसने प्रयास किये और उसने सारा भौतिक विज्ञान और गणित खोज लिया। मनुष्य अगर खुद नहीं उड़ पाया तो उसने एक हवाई ज़हाज़ और रॉकेट ऐसा बना दिया जिसमें उसने उड़ना शुरू कर दिया और अंतरिक्ष में चन्द्रमा तक जा पहुँचा। हम खोजना तो कुछ और चाहते हैं और पहुँच कहीं और जाते हैं।
 
          इसी तरह हमने भी भारत संबंधी जानकारी की तलाश इंटरनेट पर 'हिन्दी भाषा' में की। अंग्रेज़ी में तमाम सामग्री मिली। विभिन्न देशों की इतनी सामग्री, कि आपको साधारण रूप से कोई किताब टटोलने की या किसी पुस्तकालय को खंगालने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। हमने खोजना चाहा कि क्या हमारे भारत की जानकारी भी इसी तरह ही इंटरनेट पर उपलब्ध होगी? हमें वो सामग्री काफ़ी हद तक अंग्रेज़ी में ही मिली, हिन्दी में नहीं मिली। हिन्दी में जो भी मिली वो बड़े ख़स्ता हाल, टूटी-फूटी जानकारियाँ, संदिग्ध जानकारियाँ और बिखरी हुई थीं। कहीं किसी बेवसाइट पर, कहीं किसी ब्लॉग पर, कहीं किसी 'इंटरनेट पर उपलब्ध पुस्तक' में मिली।
          एक बार वृन्दावन में इसी विषय पर चर्चा करते हुए कुछ अंग्रेज़ भी इसमें शामिल हो गये जैसा कि सभी जानते हैं, वृन्दावन में अंग्रेज़ और विदेशी बहुत आते हैं। एक अंग्रेज़ ने ताना देते हुए कहा कि भारत का इतिहास तो अंग्रेज़ों ने लिखा है और इंटरनेट पर हिन्दी भाषा में भी अंग्रेज़ ही उपलब्ध कराएँगे। बस यही बात मुझे चुभ गई और बिना किसी साधन-सुविधा के युद्ध स्तर पर काम प्रारम्भ कर दिया (ये बात सन् 2006 की है)।
          सबसे पहले www.brajdiscovery.org बनाई जो ‘ब्रज का समग्र ज्ञानकोश’ है। इसके बाद मेरी जीवन संगिनी आशा चौधरी ने मुझे आत्मविश्वास के कई पाठ पढ़ाए और एक शाम को साथ-साथ टहलते हुए यह घोषणा कर दी कि भारतकोश हर हाल में बनाया जाएगा चाहे हमारी क्षमता हो या न हो। साथ ही यह भी निश्वित किया कि आशा भी मेरे साथ भारतकोश बनाने में बराबर की भागीदार रहेंगी। उन्होंने अपने शयनकक्ष को ही भारतकोश कार्यालय में बदल डाला जो आज भी है… फिर तो बस जैसे हिम्मत आ गई www.bharatkosh.org बनाने की।
          मेरी बेटियाँ, दामाद और पुत्र ने भी अपना समय देकर हमारे काम को और भी आसान कर दिया। श्रीमती चंद्रकान्ता चौधरी (मेरी मां) ने अपनी स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन से आधी रक़म देना शुरू कर दिया, जो आज भी जारी है। धीरे-धीरे 14-15 छात्रों की एक टीम बन गई, जिन्होंने कम पारिश्रमिक में भी बेहतर नतीजे दिए। हमने 12 से 14 घन्टे रोज़ाना काम करके 3 वर्षों में भारतकोश को एक ‘पहचान’ वाली स्थिति में पहुँचा दिया। अनेकों बार तो मुझे सुबह पाँच बजे से रात बारह बजे तक काम करना पड़ता था। इस बीच मेरे कसरती शरीर ने मुझे लगातार बैठे रहने के दंड स्वरूप दो हर्निया के ऑपरेशन दे दिए।

कैसे चलता है भारतकोश का कार्यालय…

          कुछ वर्ष पहले श्रीमती मिश्री देवी को भारत सरकार ने ‘सर्वोत्तम मां’ के सम्मान से सम्मानित किया। मिश्री देवी ने अद्भुत करिश्मा कर दिखाया है। इनके दस बच्चे हैं, पाँच बेटियाँ और पाँच बेटे। इन्होंने बच्चों को पाला और पढ़ाया और यहाँ तक पढ़ाया कि एक बेटे को आई.ए.एस. अधिकारी बना दिया। इतने बच्चे? ख़ुद अपाहिज और गुज़ारे का साधन कोई नहीं… ज़रा सोचिए इनके भरण-पोषण का साधन क्या था! खेतों की कटाई के बाद बचे अनाज को चुनना और बाज़ार में बेचना। इन्होंने कोई सरकारी सहायता नहीं ली, किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया, बस जो करना था वो कर दिया। हमारी भी लगभग यही परिस्थिति है। भारतकोश को कहीं से कोई वित्तीय सहायता प्राप्त नहीं है।

न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवा: ऋग्वेद (4.33.11)

(देवता उसी के सखा बनते हैं जो परिश्रम करता है।)

          आज भारतकोश पर भारत का इतिहास, भूगोल, साहित्य, दर्शन, धर्म, संस्कृति, जीवनी, समाज, रहन सहन, खान-पान, त्योहार आदि की जानकारी उपलब्ध है। भारतकोश को, भारत सरकार, विश्वविद्यालयों, अन्य शिक्षण संस्थानों, हिन्दी विद्वानों, समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं छात्राओं-छात्रों द्वारा पढ़ा और सराहा जा रहा है। प्रवासी भारतीयों के बच्चों के लिए तो भारतकोश जैसे वरदान के रूप में साबित हुआ है। भारतकोश पर उपलब्ध जानकारी हिन्दी में है। हिन्दी के प्रति उनका रुझान बढ़ता जा रहा है।
          भारत कोश की गुणवत्ता का मुख्य कारण है, भारत कोश पर काम करने वालों की नेक नीयत। हमारी नीयत साफ़ और अच्छी है, इसलिए हम यह काम कर पा रहे हैं। हमारी योग्यताओं पर, हमारी कार्यक्षमताओं पर, हमारे भाषा ज्ञान पर, हमारी विद्वत्ता पर अनेक प्रश्न चिह्न लगाये जा सकते हैं, लेकिन हमारी निष्ठा, हमारे श्रम और हमारी नीयत पर कोई प्रश्न चिह्न लगा पाना सम्भव नहीं है। इसलिए हमारे काम की गुणवत्ता दिन ब दिन अच्छी होती जा रही है।
          यह ठीक ऐसी ही स्थिति है जैसे प्रत्येक माँ अपने बच्चे को पालती है। बच्चे पालने की शिक्षा के लिए कहीं कोई कॉलेज या विश्वविद्यालय नहीं है लेकिन हर माँ अपना बच्चा पालती है। सभी माएँ अपने बच्चे को एक स्वभाविक रूप से अच्छी तरह से पालन पोषण कर उन्हें योग्य बनाने का पूरा प्रयास करती हैं, और बना भी देती हैं। कारण होता है बच्चे के प्रति वात्सल्य, उसकी निष्ठा, उसकी नीयत, वो हर क़ीमत पर हर परिस्थिति में अपने बच्चे के साथ पूरा न्याय करने की कोशिश करती है और बच्चे को अच्छी तरह से पाल लेती है। भारतकोश के लिए हमारी भावना वही है जो संतान के लिए होती है।

पाठक कैसे दें योगदान, कैसे करें सम्पादन…

          हमने भारतकोश पर संपादन सुविधा भी दी है। पिछले कुछ वर्षों में कुछ प्रयोक्ताओं ने सामग्री योगदान दिया, नए पन्ने बनाए, चित्र भी अपलोड किए। धीरे-धीरे ऐसे लोगों की मात्रा बढ़ गई जो मात्र अपना, अपनी वेबसाइट का, अपने उत्पाद का आदि प्रचार, भारतकोश के माध्यम से करने लगे, याने व्यर्थ के पन्ने बनाने लगे। अब हमने यह नियम बना दिया है कि जो भी पाठक, भारतकोश पर गम्भीरता से संपादन करना चाहें वे हमें [email protected] पर हिन्दी में ई-मेल करें। हम ऐसे पाठकों को भारतकोश-सदस्य बना कर संपादन करने की स्वीकृति दे देते हैं।

साइबर हिन्दी का स्वरूप…

          हिन्दी को इंटरनेट पर लाने का अर्थ मात्र हिन्दी साहित्य को हिन्दी में ला देना नहीं है। हिन्दी को विभिन्न जानकारियाँ उपलब्ध कराने का माध्यम बनाने की आवश्यकता है। हिन्दी के खेल, पहेलियाँ, रोज़गार प्रतियोगिता, मनोरंजन, सामान्य विज्ञान, बेसिक स्वास्थ्य शिक्षा, ई-बुक, ज्ञानकोश, बी-टू-बी पोर्टल, सरकारी जानकारियाँ, कॉमिक, कला-शिक्षा, कृषि-शिक्षा आदि-आदि को हिन्दी में उपलब्ध कराना ही हिन्दी को इंटरनेट के द्वारा, अंतरराष्ट्रीय प्रचार-प्रसार देगा।
          आज ई-शॉपिंग के सारे कामकाज का माध्यम अंग्रेज़ी है। शायद ही कोई पोर्टल ऐसा हो जिस पर हिन्दी में भी ख़रीदारी हो सकती हो। जब भारतीय ग्राहक दुकानों पर जाकर हिन्दी में ही अपने ख़रीदारी करता है तो फिर नेट पर क्यों नहीं।
          कंप्यूटर और इंटरनेट पर क्या-क्या हिन्दी में उपलब्ध हो, यह शोध का विषय होना चाहिए। गहन शोध और विचार विमर्श के बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि हमको हिन्दी में क्या उपलब्ध कराना है और क्या नहीं। बहुत से ऐसे विषय और शब्द हैं जिनको हिन्दी में उपलब्ध कराने से हम प्रगति और विकास के बजाय संकीर्णता को बढ़ावा दे देंगे। यह प्रयास कुछ देशों में हुआ और संस्कृति और भाषा के संरक्षण की बजाय इसका असर भूमंडलीकरण के दौर में पूर्णत: विपरीत हुआ। जैसे विज्ञान की शिक्षा में अंग्रेज़ी के बजाय किसी और भाषा में करने का प्रयास। विज्ञान कभी भी राष्ट्रीय विषय नहीं रहा। विज्ञान तो प्रारम्भ से ही अंतरराष्ट्रीय विषय है। विज्ञान की खोजों की शब्दावली का निर्माण जिस देश की भाषा में हुआ वही मानक होना चाहिए। उसका स्थानीय भाषा में अनुवाद कर इंटरनेट पर उपलब्ध कराने की कोई व्यावहारिक सार्थकता नहीं है।
          देवनागरी लिपि के मानकीकरण को लेकर वर्षों से शोध और गोष्ठियाँ हो रही हैं जिनका कोई एक सर्वमान्य हल नहीं निकला है। किसी लिपि के मानकीकरण का अर्थ तो तब होगा जब लिपि को जीवित रखने का प्रयास वरीयता क्रम में सर्वोपरि हो। मुद्दा मानकीकरण का नहीं बल्कि सरलीकरण है। यहाँ प्रश्न है उन कारणों को समझने का जिनके चलते आम जन देवनागरी लिपि के प्रयोग से बचते हैं। देवनागरी को इंटरनेट के माध्यम से पूरी तरह शुद्धता के स्तर पर पहुँचाया जा सकता है। इंटरनेट पर हिन्दी सामग्री के लिए स्पेलिंग चेकर द्वारा शब्दों को परखा जा सकता है। सच बात तो यह है कि आज आधुनिक तकनीक के ज़माने में किसी भाषा के मानकीकरण की बात मात्र इतिहास ही है। यदि कोई लिपि यूनीकोड में उपलब्ध है तो मानकीकरण करने का काम पूरा क्राउलिंग रोबॉट से करवाया जा सकता है।
          भूमंडलीकरण के प्रारम्भ में भारत में व्यापार करने कुछ यूरोपीय कंपनी आईं। जिन्होंने एक संयुक्त सर्वेक्षण करवाया जिससे पता चल सके कि भारत में व्यापार की भाषा कौन सी है। इस सर्वे का परिणाम था कि भारत की सम्पर्क भाषा अंग्रेज़ी है। इसका मुख्य कारण था उत्पादों के नाम अंग्रेज़ी में लिखा जाना। सिनेमाघर और फ़िल्मों के नाम अंग्रेज़ी लिपि में लिखा होना। मोटरगाड़ियों पर नम्बर से लेकर दवाइयों के नाम सभी अंग्रेज़ी में पाये गए। नतीजा ये हुआ कि इन कंपनियों ने अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान बना कर सभी अंग्रेज़ी बोलने वालों को नियुक्त कर दिया। इससे बात नहीं बनी क्योंकि ग्राहक सभी हिन्दी बोलना और सुनना पसंद कर रहे थे। इन यूरोपीय कंपनियों ने दोबारा से हिन्दी बोलने और समझने वाले कर्मचारी नियुक्त किए जिससे सब कुछ आसान हो गया।
          असल में हुआ यह था कि फ़िल्म का नाम तो रोमन लिपि में था लेकिन पूरी फ़िल्म हिन्दी में थी, गाने हिन्दी में थे। टीवी धारावाहिक भी सब हिन्दी के देखे जाते हैं। अंग्रेज़ी फ़िल्में हिन्दी में डब करके प्रदर्शित होती हैं। 90% भारतीय जन सॉरी और थॅन्क्स कहने के बाद अपनी मात्र भाषा या हिन्दी में बोलना प्रारम्भ कर देते हैं।
          उक्त उदाहरण मात्र इसलिए दिया गया है कि जिससे यह स्पष्ट हो सके कि यदि हम इंटरनेट पर हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध नहीं करा सके तो इंटरनेट पर भी भारत संबंधी विषयों का माध्यम अंग्रेज़ी ही हो जाएगा। सन् 2006 से brajdiscovery.org और 2008 से bharatkosh.org बना कर हमने यही प्रयास किया है।
          हिन्दी के ई-प्रचार-प्रसार के लिए हमारा लक्ष्य, शिक्षार्थियों के साथ-साथ एक सामान्य मज़दूर भी होना चाहिए। हमारा लक्ष्य, इंटरनेट पर लुहार, बढ़ई, माली, रिक्शाचालक, राज-मज़दूर आदि के लिए भी उनके पेशे से संबंधी जानकारी हिन्दी में उपलब्ध कराने का होना चाहिए। इसके लिए मैंने विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी में ‘बोलती सहायता’ का प्रस्ताव रखा था। जिससे लैपटॉप स्लेट कंप्यूटर (टैबलेट) और स्मार्ट फ़ोन हिन्दी में बोलकर प्रयोक्ता की सहायता कर सकें। आम जन के पास स्मार्टफ़ोन होने की संभावना पहले से कई गुना बढ़ गई है किंतु इसका उपयोग मात्र फ़ोन पर बात करने, गाने सुनने, फ़ोटो या वीडियो देखने आदि में हो रहा है। जिसे हमको आम जन के लिए, शिक्षा और रोज़गार परक बनाना है।
          इंटरनेट आज के समाज का पाँचवा स्तम्भ है। गुज़रे ज़माने में समाज पर असर डालने वाले माध्यमों में समाचार पत्रों, पुस्तकों और फ़िल्मों को ज़िम्मेदार समझा जाता रहा है लेकिन आज के समाज को प्रभावित करने में इंटरनेट की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण हो गई है। मोबाइल ‘नेटवर्क’ के लिए गली-मुहल्ले-देहात की भाषा में ‘नटवर’ शब्द लोकप्रिय है। हमारे घर में खाना बनाने वाली के पास दो स्मार्टफ़ोन हैं लेकिन उसका स्मार्टफ़ोन उसके नौकरी में उसका सहायक नहीं है। जिसका कारण है कि स्मार्टफ़ोन को मनोरंजन को वरीयता देकर बनाया गया है। होना यह चाहिए कि कंप्यूटर और स्मार्टफ़ोन प्रयोक्ता की ज़रूरत के हिसाब से बनाया जाए जिसमें कि वरीयता उसकी नौकरी या कामकाज हो।
          ऐसे हालात में हम सभी की ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है। तो आइए अब हिन्दी के बारे में बातें करना छोड़कर इंटरनेट की दुनिया में सबकुछ हिन्दी में उपलब्ध कराने में लग जाएँ।


इस बार इतना ही... अगली बार कुछ और...
-आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक