भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-39

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14 भक्ति-पावनत्व

1. मय्यर्पितात्मनः सभ्य ! निरपेक्षस्य सर्वतः।
मयाऽऽत्मना सुखं यत्तत् कुतः स्याद् विषयात्मनाम्।।
अर्थः
हे साधो उद्धव ! सर्वथा निष्काम बने और मुझे आत्मसमर्पण कर मुझसे आत्मस्वरूप हुए पुरुषों को जो सुख मिलता है, वह विषयों में डूबे मनुष्यों को कहाँ मिल सकेगा?
 
2. अकिंचनस्य दांतस्य शांतस्य समचेतसः।
मया संतुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशः।।
अर्थः
पूर्ण अपरिग्रही, इंद्रियजयी, शांत, समदर्शी और मेरी प्राप्ति से संतुष्ट-चित्त मेरे भक्त के लिए दसों दिशाएँ सुखमय होती हैं।
 
3. न पारमेष्ठयं न महेंद्र-धिष्णयं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योग-सिद्धीर् अपुनर्भवं वा
मय्यर्पितात्मेच्छिति मदुविनान्यत्।।
अर्थः
मुझे आत्मसमर्पण करने वाला मेरा अनन्य भक्त मुझे छोड़कर ब्रह्मलोक, महेंद्रपद, सार्वभौमत्व, पाताल का आधिपत्य, अनेक योग सिद्धियाँ या मोक्ष तक- किसी की भी अभिलाषा नहीं रखता।
 
4. निरपेक्षं मुनि शांतं निर्वैरं समदर्शनम्।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रि-रेणभिः।।
अर्थः
निष्काम, शांत, निर्वैर और समदृष्टि मुनि की चरण-धूलि से मैं पवित्र होऊँ, इसलिए ( उनके कदम पर कदम रखते हुए ) सदैव उनके पीछे-पीछे चलता रहता हूँ।


« पीछे आगे »

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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