भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-30

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11. बद्ध-मुक्त-मुमुक्षु-साधक

5. देहस्योऽपि न देहस्यो विद्वान् स्वप्नाद् यथोत्थितः।
अदेहस्योऽपि देहस्यः कुमतिः स्वप्नदृग् यथा।।
अर्थः
बाह्य दृष्टि से देह में स्थित रहकर भी विद्वान् मनुष्य देहस्थ नहीं होता, जैसे स्वप्न से जगा हुआ। उलटे दुर्बुद्धि वस्तुतः देहस्थ न होते हुए भी देहस्थत रहता है, जैसे स्वप्नद्रष्टा।
 
6. इंद्रियैरिंद्रियार्थेषु गुणैरपि गुणेषु च।
गृह्यमाणेष्वहं कुर्यात् न विद्वान् यस्त्वविक्रियः।।
अर्थः
इंद्रियों द्वारा विषयों का और गुणों द्वारा गुणों का ग्रहण किया जाता है। तब ज्ञाता पुरुष निर्विकार रहकर उनके विषय में अहंकार रखता नहीं।
 
7. दैवाधीने शरीरेऽस्मिन् गुणभाव्येन कर्मणा।
वर्तमानोऽबुधस् तत्र कर्तास्मीति निबध्यते।।
अर्थः
दैवाधीन इस देह में रहने वाला अज्ञानी जीव इंद्रियों द्वारा कर्म होते हैं तब ‘मैं ही वह कर्म करने वाला हूँ’ ऐसा मानकर बद्ध हो जाता है।

8. ऐचं विरक्तः शयन आसनाटनमज्जने।
दर्शन-स्पर्शन-घ्राण-भोजन-श्रवणादिषु।।
अर्थः
इस तरह सोना, बैठना, घूमना, स्नान करना, देखना,क स्पर्श करना, गंध सूँघना, खाना, सुनना आदि व्यापारों से विरक्त-


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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