भगवान महावीर एवं जैन दर्शन (पुस्तक)

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भगवान महावीर एवं जैन दर्शन शीर्षक ग्रंथ में प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने भगवान महावीर की धार्मिक क्रांति को विस्तार के साथ विवेचित किया है। भगवान महावीर जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं। वे प्रवर्तमान काल के चौबीसवें तीर्थंकर हैं। आपने आत्मजय की साधना को अपने ही पुरुषार्थ एवं चारित्र्य से सिद्ध करने की विचारणा को लोकोन्मुख बनाकर, भारतीय साधना परम्परा में कीर्तिमान स्थापित किया। अपने युग के संशयग्रस्त मानव-समाज को धर्म-आचरण की नवीन दिशा एवं ज्योति प्रदान की। आपने धर्म के क्षेत्र में मंगल क्रान्ति सम्पन्न की। आपने उद्‍घोष किया कि आँख मूँदकर किसी का अनुकरण या अनुसरण मत करो। प्रस्तुत पुस्तक पाँच अध्यायों में विभक्त है:

  1. भगवान महावीर पूर्व जैन धर्म की परम्परा
  2. भगवान महावीर: जीवन वृत्त
  3. जैन दर्शन एवं जैन धर्म
  4. जैन धर्म एवं दर्शन : प्रत्येक प्राणी के कल्याण का मार्ग तथा सामाजिक प्रासंगिकता
  5. जैन धर्म एवं दर्शन की वर्तमान युगीन प्रासंगिकता

पहला अध्याय

पहले अध्याय में श्रमण परम्परा, आर्हत् धर्म, निग्र्रन्थ धर्म तथा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव अथवा आदिनाथ, बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ तथा तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के ऐतिहासिक संदर्भों की विवेचना प्रस्तुत है। बहुत से इतिहासकारों ने भगवान महावीर को जैन धर्म का संस्थापक माना है। इस अध्याय में इस मान्यता का निराकरण करते हुए प्रतिपादित है कि जैन धर्म की भगवान महावीर के पूर्व जो परम्परा प्राप्त है, उसके वाचक निगंठ धम्म (निग्रंथ धर्म), आर्हत् धर्म एवं श्रमण परम्परा रहे हैं। पार्श्वनाथ के समय तक ‘चातुर्याम धर्म’ था। भगवान महावीर ने छेदोपस्थानीय चारित्र (पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ) की व्यवस्था की।

दूसरा अध्याय

भगवान महावीर का जीवनवृत्त प्रस्तुत करता है। वर्तमान में जैन भजनों में भगवान महावीर को ‘अवतारी’ वर्णित किया जा रहा है। इस अध्याय में स्पष्ट किया गया है कि भगवान महावीर का जन्म किसी अवतार का पृथ्वी पर शरीर धारण करना नहीं है। उनका जन्म नारायण का नर शरीर धारण करना नहीं है, नर का ही नारायण हो जाना है। परमात्म शक्ति का आकाश से पृथ्वी पर अवतरण नहीं है। साधना की सिद्धि परमशक्ति का अवतार बनकर जन्म लेने में अथवा साधना के बाद परमात्मा में विलीन हो जाने में नहीं है, बहिरात्मा के अन्तरात्मा की प्रक्रिया से गुजरकर स्वयं परमात्मा हो जाने में है।
भगवान महावीर के जन्मस्थान के सम्बन्ध में लेखक परम्परागत मान्यताओं को स्वीकार नहीं कर सका है। लेखक ने इतिहासज्ञ विद्वानों की इस मान्यता को स्वीकार किया है कि वैशाली ज़िले में स्थित ‘‘वासु कुंड’’ (प्राचीन नाम-कुंडपुर) भगवान महावीर का जन्म स्थान है। अनुमोदन के लिए इतिहाससम्मत प्रमाणों, इतिहासज्ञ जैन विद्वानों एवं शोधकों के उद्धरणों तथा प्रमाणिक जैन ग्रन्थों के संदर्भित प्रसंगों का उल्लेख किया गया है। भगवान महावीर के जीवन चरित में अनेक प्रकार की चमत्कारिक एवं अलौकिक घटनाओं के उल्लेख मिलते हैं। लेखक की मान्यता है कि इन घटनाओं की प्रामाणिकता, सत्यता, इतिहास-सम्मतता पर तर्क-वितर्क करने की अपेक्षा उनकी जीवन दृष्टि को जीवन में उतारने की आवश्यकता है। उनके जीवन-चरित की प्रासंगिकता प्रज्ञा, ध्यान, संयम एवं तप द्वारा आत्मस्थ होने में है। उनके जीवन-चरित की चरितार्थता अहिंसा आधारित जीवन दर्शन के अनुरूप जीवन यापन करने में है। इसी कारण लेखक ने उनकी साधना का विवरण प्रस्तुत करते समय इस दृष्टि से विचार किया है कि ‘वर्धमान’ ने किस प्रकार तप एवं साधना के आयामों को नया विस्तार दिया।
इस अध्याय में कुछ परम्परागत मान्यताओं पर पुनर्विचार की संस्तुति की गई है। उदाहरण के लिए जैन विद्वानों में यह मान्यता है कि भगवान महावीर दक्षिण भारत के किसी भू-भाग में नहीं गए। लेखक ने इस प्रसंग में विद्वानों से तमिलनाडु, केरल तथा कर्नाटक में प्राप्त होने वाले शिलालेखों, प्राप्त जैन मूर्तियों, इन राज्यों की पहाड़ियों में स्थित जैन बस्तियों के गहन अध्ययन एवं शोध करने तथा भगवान महावीर के साधना काल के पाँचवे वर्ष में मलय देश के प्रवास के संदर्भ को रेखांकित करते हुए उनके दक्षिण भारत के प्रवास की सम्भावनाओं को तलाशने का आह्वान किया है।
भगवान महावीर के जीवन चरित के कुछ बिन्दुओं पर भिन्न मत मिलते हैं। इन भिन्न मतों की विवेचना प्रायः आम्नाय भेद/पंथ भेद/दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद रूप में की जाती है जिससे भेद- दृष्टि उत्पन्न होती है तथा अपने अपने मत एवं मान्यता के प्रति आग्रह मूलक दृष्टि का विकास होता है। लेखक ने जहाँ आवश्यक हुआ है वहीं इनकी ओर संकेत किया है। इनकी विवेचना के समय यह प्रयत्न रहा है कि कहीं दुराग्रह एवं मतवाद का भाव उत्पन्न न हो। इसी अध्याय में तीर्थंकर महावीर ने केवलीचर्या के लगभग 30 वर्षों में जिन देशों/राज्यों/ जनपदों के ग्राम-नगरों में भ्रमण कर धर्मोपदेश दिया, उनका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है। जैन आचार्यों ने उपतंत्रकर्ता एवं अनुतंत्रकर्ता के रूप में जैन दर्शन एवं भगवान महावीर की वाणी को जिन प्रमुख ग्रन्थों के रूप में निबद्ध किया है - उसका संक्षिप्त विवरण भी इस अध्याय में प्रस्तुत है।

तीसरा अध्याय

तीसरे अध्याय के अन्तर्गत जैन दर्शन एवं जैन धर्म सम्बन्धी तत्व चिंतन तथा तत्वप्राप्ति के साधनों का सैद्धान्तिक अध्ययन प्रस्तुत है। यह अध्ययन सूत्रात्मक, सारगर्भित एवं विश्लेषणात्मक शैली में नियोजित है। आत्मा का परमात्म स्वरूप, ज्ञानमीमांसा, अनेकांतवाद, स्यादवाद, तत्व मीमांसा (सत्ता/पदार्थ/द्रव्य), कर्म सिद्धान्त, आचार मीमांसा (संवर, निर्जरा, मोक्ष) आदि उपभागों के अंतर्गत जैन दर्शन एवं जैन धर्म का प्रतिपादन इस अपेक्षा से प्रस्तुत है जिससे इस अध्याय के अध्ययन के बाद पाठक के मन में मूल शास्त्रों एवं ग्रन्थों को पढ़ने की रुचि उत्पन्न हो सके तथा उन ग्रन्थों में अभिव्यक्त प्रबुद्ध, गहन गम्भीर, गूढ़, विशद, विशाल, विराट, विचारणीय एवं मननशील सामग्री को आत्मसात करने की दशा एवं दिशा प्राप्त हो सके। इस अध्याय में जैन धर्म एवं दर्शन के सम्बन्ध में व्याप्त कुछ भ्रामक धारणाओं का निराकरण भी किया गया है । यथा:

  1. कुछ विद्वानों ने जैन धर्म को नास्तिक माना है। लेखक ने जैन दर्शन एवं धर्म की आस्तिकता को सिद्ध किया है।
  2. इसी प्रकार अनेकांतवाद एवं स्याद्वाद की सम्यग् अवधारणा को स्पष्ट किया गया है। लेखक ने सिद्ध किया है कि अनेकांत एकांगी एवं आग्रह के विपरीत समग्रबोध एवं अनाग्रह का द्योतक है।
  3. इसी प्रकार लेखक ने स्पष्ट किया है कि ‘स्याद्वाद’ का ‘स्यात्’ निपात शायद, सम्भावना, संशय अथवा कदाचित् आदि अर्थों का वाचक नहीं है। स्याद्वाद का अर्थ है - अपेक्षा से कथन करने की विधि या पद्धति। अनेक गुण-धर्म वाली वस्तु के प्रत्येक गुण-धर्म को अपेक्षा से कथन करने की पद्धति। विभिन्न शास्त्रों एवं ग्रन्थों का पारायण करते समय जिन बिन्दुओं पर व्यतिरेक/विरोधाभास प्रतीत होता है, उन्हें भी इस अध्याय में स्पष्ट किया गया है। शास्त्रों में जिन विवेच्य बिन्दुओं के प्रतिपादन की भिन्न शैलियाँ मिलती हैं उन्हें भी यथासम्भव व्यक्त किया गया है।

चौथा अध्याय

चौथे अध्याय में यह स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार जैन धर्म एवं दर्शन विश्व के प्रत्येक प्राणी के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। सामाजिक जीवन भयमुक्त एवं आतंकमुक्त हो सके, सुखी हो सके, शान्ति, सद्भाव, मैत्री भाव एवं अपनत्व भाव का संचारण एवं विकास हो सके- इन लक्ष्यों की प्राप्ति की दृष्टि से जैन धर्म एवं दर्शन की सामाजिक प्रासंगिकता की विवेचना इस अध्याय का विवेच्य विषय है। इस अध्याय के उपविभाग हैं:

  1. आत्मा का परमात्मा होना
  2. जैन: सम्प्रदायातीत दृष्टि
  3. समभाव एवं समदृष्टि
  4. सामाजिक समता एवं एकता
  5. आत्मतुल्यता एवं लोकमंगल की आचरणमूलक भूमिका
  6. अहिंसा: जीवन का सकारात्मक मूल्य
  7. अहिंसा से अनुप्राणित अर्थतंत्र: अपरिग्रह
  8. वैचारिक अहिंसाः अनेकांतवाद
  9. प्राणीमात्र के कल्याण तथा सामाजिक सद्भाव एवं सामरस्य की दृष्टि से दशलक्षण धर्म।

पाँचवाँ अध्याय

‘जैन धर्म एवं दर्शन की वर्तमान युगीन प्रासंगिकता’

इस अध्याय का प्रतिपाद्य है कि अनेकांतवादी दृष्टि, परिग्रह-परिमाण-व्रत का अनुपालन तथा अहिंसामूलक जीवन मूल्यों के आचरण से विश्व की वर्तमान युगीन समस्याओं का समाधान किस प्रकार सम्भव है तथा आगामी विष्व -मानस जैन धर्म एवं दर्शन से धर्माचरण की प्रेरणा किस प्रकार प्राप्त कर सकता है। इस अध्याय में लेखक ने यह अवधारणा व्यक्त की है कि आज के मनुष्य केा वही धर्म-दर्शन प्रेरणा दे सकता है तथा मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं के समाधान में प्रेरक हो सकता है जो निम्न कसौटियों पर खरा उतरता होः

  1. वैज्ञानिक अवधारणाओं का परिपूरक हो
  2. लोकतंत्र के आधारभूत जीवन मूल्यों का पोषक हो
  3. सर्वधर्म समभाव की स्थापना में सहायक हो,
  4. अन्योन्याश्रित विश्व व्यवस्था एवं सार्वभौमिकता की दृष्टि का प्रदाता हो
  5. विश्व शान्ति एवं अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का प्रेरक हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन : भगवान महावीर एवं जैन दर्शन - लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद
  • भगवान महावीर -प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन
  • प्राणी मात्र के कल्याण -महावीर का संदेश:- प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन
  • भगवान महावीर एवं जैन दर्शन: -प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन

बाहरी कड़ियाँ

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