फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल

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फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल
फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल
पूरा नाम फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल
जन्म 12 मई, 1820
जन्म भूमि फ्लोरेंस, ग्रैंड डची ऑफ टस्कैनी
मृत्यु 13 अगस्त, 1910
मृत्यु स्थान पार्क लेन, लंदन, संयुक्त राजशाही
प्रसिद्धि आधुनिक नर्सिंग
नागरिकता ब्रिटिश
संबंधित लेख अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस
विशेष प्रेम, दया व सेवा-भावना की प्रतिमूर्ति फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल "द लेडी विद द लैंप" (दीपक वाली महिला) के नाम से प्रसिद्ध हैं।
अन्य जानकारी हर वर्ष 12 मई को फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल की जयंती पर अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस का आयोजन किया जाता है। यह आयोजन ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा जैसे कई देशों में पूरे एक सप्ताह तक मनाया जाता है।
अद्यतन‎

फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल (अंग्रेज़ी: Florence Nightingale, जन्म- 12 मई, 1820; मृत्यु- 13 अगस्त, 1910) 'आधुनिक नर्सिग आन्दोलन की जन्मदाता' मानी जाती हैं। प्रेम, दया व सेवा-भावना की प्रतिमूर्ति फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल "द लेडी विद द लैंप" (दीपक वाली महिला) के नाम से प्रसिद्ध हैं। हर वर्ष 12 मई को फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल की जयंती पर अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस का आयोजन किया जाता है। यह आयोजन ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा जैसे कई देशों में पूरे एक सप्ताह तक मनाया जाता है। एक उच्च, समृद्ध ब्रिटिश परिवार में जन्म लेने के बाद भी फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल ने लोगों की सेवा का मार्ग चुना था। सन 1845 में परिवार के तमाम विरोधों व क्रोध के पश्चात् भी फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल ने अभावग्रस्त लोगों की सेवा का व्रत ग्रहण कर लिया और अंत तक अपने इस निर्णय से बिल्कुल भी नहीं डिगीं।

परिचय

फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल का जन्म 12 मई सन 1820 को फ्लोरेंस, ग्रैंड डची ऑफ टस्कैनी में हुआ था। वे एक अच्छे परिवार में पैदा हुई थीं। उनका नाम इटली के एक शहर के नाम पर रखा गया था, जहाँ पर वह पैदा हुई थीं। फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल इंग्लैंड में जवान हुईं। घर पर ही उनके पिता ने उन्हें पढ़ाना शुरू हुआ। उन्होंने अंग्रेज़ी, इटैलियन, लैटिन, जर्मनी, फ़्रेन्च, इतिहास और दर्शन सीखा। फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल ने अपनी बहन और माता-पिता के साथ अनेक देशों की यात्रा की। उस युग के ब्रिटिश वैभवपूर्ण जीवन के प्रति उनमें कोई आकर्षण नही था। इसके विपरीत दु:खी मानवता के लिए फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल के हृदय में अपार संवेदना थी।

नर्सिंग प्रशिक्षण

सन 1840 में इंग्लैंड में भयंकर अकाल पड़ा और अकाल पीड़ितों की दयनीय स्थिति देखकर फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल बैचैन हो गयीं। अपने एक पारिवारिक मित्र डॉ. फोउलेर से उन्होंने नर्स बनने की इच्छा प्रकट की। उनका यह निर्णय सुनकर उनके परिजनों और मित्रों में खलबली मच गयी। उनकी माँ को यह आशंका थी कि उनकी पुत्री किसी डॉक्टर के साथ भाग जायेगी। ऐसा इन दिनों शायद आम था। इतने प्रबल विरोध के बावजूद फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल ने अपना इरादा नहीं बदला। विभिन्न देशों में अस्पतालों की स्थिति के बारे में उन्होंने जानकारी जुटाई और शयन कक्ष में मोमबत्ती जलाकर उसका अध्ययन किया। उनके दृढ़ संकल्प को देखकर उनके माता-पिता को झुकना पड़ा और उन्हें कैन्सवर्थ संस्थान में नर्सिंग के प्रशिक्षण के लिए जाने की अनुमति देनी पड़ी।

द लेडी विद द लैम्प

सन 1854 में क्रीमियम युद्ध में फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल को "द लेडी विद द लैम्प" का उपनाम टाइम्स समाचार पत्र में छपी इस खबर के आधार पर मिल गया-

"वह तो साक्षात देवदूत है। दुर्गन्ध और चीख-पुकार से भरे इन अस्थायी अस्पतालों में वह एक दालान से दूसरे दालान में जाती है और हर एक मरीज़ की भावमुद्रा उनके प्रति आभार और स्नेह के कारण द्रवित हो जाती है। रात में जब सभी चिकित्सक और कर्मचारी अपने-अपने कमरों में सो रहे होते हैं, तब वह अपने हाथों में लैंप लेकर हर बिस्तर तक जाती है और मरीज़ों की ज़रुरतों का ध्यान रखती है।"

पुस्तक रचना व सम्मान

सन 1859 में फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल ने सेंट थॉमस अस्पताल में नर्सिंग प्रशिक्षण की स्थापना की। अक्टूबर, 1854 में उन्होंने 38 स्त्रियों के एक दल को घायलों की सेवा के लिए तुर्की भेजा। उन्होंने 'नोट्स ऑफ़ नर्सिंग' (Notes of Nursing नामक पुस्तक लिखी थी। जीवन का बाकी समय उन्होंने नर्सिंग को बढ़ावा देने और इसे आधुनिक रूप देने में बिताया। सन 1861 में उन्हें महारानी विक्टोरिया ने 'रॉयल रेड क्रॉस मेडल' देकर सम्मानित किया था।

यूरोप यात्रा

उन्नीसवीं सदी की परंपरा के अनुसार नाइटिंगेल का परिवार वर्ष 1837 में यूरोप की यात्रा करने निकल गया था। उस समय यह दौरा बच्चों की शिक्षा के लिए बेहद जरूरी माना जाता था। फ्लोरेंस को अंकों के साथ खेलना बहुत शौक था। इसलिए वे पूरे सफर के दौरान हर देश और शहर की आबादी, अस्पताल और दान-कल्याण की संस्थानों की संख्या को अपनी डायरी में लिखा करती थीं। गणित में नाइटिंगेल की रूचि को मद्देनजर देखते हुए, उन्हें गणित की बेहतर तालीम के लिए ट्यूशन भेज दिया गया। फ्लोरेंस की मां इसके सख्त खिलाफ थीं। यूरोप के सफर के दौरान उन्होंने एक अजीब बात कही, जिसकी वजह से उनके मां-बाप बेहद परेशान हो गए। उन्होंने कहा, "ईश्वर ने मुझे मानवता की सेवा का आदेश दिया है। किंतु उन्होंने मुझे इस बात की जानकारी नहीं दी कि मैं मानवता की सेवा कैसे कर सकती हूं"।

लोगों की सेवा करने के लिए 1844 में फ्लोरेंस ने नर्स बनने की ठानी। उन्होंने सैलिसबरी में जाकर नर्सिंग की ट्रेनिंग लेने की जिद की। लेकिन उनके मां-बाप ने उन्हें इस बात की इजाजत नहीं दी। मां-बाप के खिलाफ जाकर फ्लोरेंस रोम, लंदन और पेरिस के अस्पतालों का दौरा किया करती थी। तमाम कोशिशों के बाद भी 1850 तक नाइटिंगेल शादी के लिए नहीं मानी। उनका कहना था कि ईश्वर ने उन्हें किसी और काम के लिए चुना है।

क्रीमिया का युद्ध

सालों की मेहनत के बाद 1853 में फ्लोरेंस को लंदन के हार्ले स्ट्रीट अस्पताल में नर्सिंग की प्रमुख बनने का अवसर मिला। इसी वर्ष क्रीमिया का युद्ध भी शुरू हो गया था। ब्रिटिश सैनिक अस्पतालों की दुर्दशा की खबरें सामने आने लगीं। ब्रिटेन के तत्कालीन युद्ध मंत्री सिडनी हर्बर्ट, नाइटिंगेल को जानते थे। इसलिए उन्होंने नाइटिंगेल को 38 नर्सों के साथ तुर्की के स्कुतरी स्थित मिलिट्री अस्पताल जाने को कहा। ब्रिटेन में पहली बार महिलाओं को सेना में शामिल किया गया था। मिलिट्री अस्पताल पहुंचते ही फ्लोरेंस ने अपनी साथी नर्स को काम पर लगा दिया। उन्होंने सैनिकों के खान-पान और कपड़ों का इंतजाम किया। ब्रिटेन के इतिहास में यह पहला मौका था जब सैनिकों को इतने सम्मान के साथ रखा जा रहा था। फ्लोरेंस की तमाम कोशिशों के बाद भी सैनिकों की मौत का आंकड़ा बढ़ते जा रहा था।

सन 1855 की बसंत ऋतु में ब्रिटिश सरकार ने अस्पताल का जायजा लेने के लिए एक सैनिटरी कमीशन बनाकर भेजा। जांच में पाया गया कि बराक अस्पताल का निर्माण सीवर के ऊपर किया गया था। जिसकी वजह से सैनिकों के पास पीने के लिए गंदा पानी आ रहा था। नतीजतन सभी अस्पतालों की सफाई करवाई गई और मौतों का आंकड़ा कम होने लगा। इस दौरान अखबारों में फ्लोरेंस हाथ में मशाल लिए तस्वीर छपने के बाद उसके हजारों फैन बन गए। इस तस्वीर की वजह से वह ‘द लेडी विद द लैम्प’ के नाम से मशहूर हो गई।

भारत में योगदान

फ्लोरेंस के मिशन की वजह से ब्रिटेन ने नेशनल हेल्थ सर्विस की दिशा में काम करना शुरू किया। फ्लोरेंस नाइटिंगेल भारत में भी ब्रिटिश सैनिकों की सेहत को बेहतर करने की मुहिम से जुड़ी हुई थी। इस दौरान उन्होंने भारत में साफ पानी की सप्लाई पर जोर दिया। उस वक्त भारत में अकाल के हालात ठीक तुर्की के स्कुतारी के जैसे थे। फ्लोरेंस को भारत के हालात के बारे में 1906 तक रिपोर्ट भेजी जाती रही और वे भारत के हालातों में सुधार करती रही। भारत भी फ्लोरेंस नाइटिंगेल का कर्जदार है।

मृत्यु

फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल का 90 वर्ष की आयु में 13 अगस्त, 1910 निधन हो गया। वर्तमान युग में अस्पतालों के प्रबन्धन और रोगियों के स्वास्थ्य लाभों में नर्सों का विशेष महत्व है। एक नर्स को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, लेकिन 19वीं शताब्दी के मध्य तक की स्थिति इसके सर्वथा विपरीत थी। नर्स का कार्य बहुत घटिया समझा जाता था। निम्न वर्ग की महिलायें ही इस पेशे में आती थीं। उनमें से अधिकांश अनपढ़ और चरित्रहीन होती थीं और नशा करती थीं। उन्हें अपने कार्य के लिए कोई व्यवस्थित प्रशिक्षण भी नहीं मिलता था। इस पेशे को सम्मान दिलाने का श्रेय सिर्फ़ फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल को जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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