प्रथम और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन: उद्देश्य एवं उपलब्धियाँ -मधुकरराव चौधरी

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लेखक- मधुकरराव चौधरी

तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के महान् अवसर पर इससे पूर्व आयोजित उद्देश्य और उपलब्धियों के बारे में विचार करने में हमें गौरव का अनुभव हो रहा है। हिन्दी को विश्वभाषा बनाने की प्रक्रिया को बल देना इन सम्मेलनों का मुख्य उद्देश्य रहा है। इसी दृष्टि से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजन का दायित्व लिया था। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वह संस्था है, जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिन्दीतर प्रदेशों में हिन्दी प्रचार करने के निमित्त 1936 में स्थापित किया था। यह समिति अपने को धन्य मानती है कि इसकी पहली समिति में पूज्य बापू के अतिरिक्त देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पं. जवाहरलाल नेहरू, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, आचार्य नरेन्द्र देव, काका कालेलकर, शंकरराव देव, माखनलाल चतुर्वेदी, वियोगी हरि, सेठ जमनालाल बजाज जैसे प्रमुख राष्ट्र नेता, हिन्दी-विद्वान् और हिन्दी-सेवी थे। यह समिति हिन्दी प्रचार के साथ-साथ राष्ट्रीय भावनाओं को उद्बुद्ध करने और समस्त भारतीयों के हृदय में एकता का भाव अंकुरित करने के उद्देश्य से स्थापित की गई थी। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर ‘एक हृदय हो भारत जननी’ को इससे अपना उद्घोष वाक्य बनाया। आज यह समिति न केवल भारत में हिन्दी का प्रचार करने में लगी है, बल्कि भारत से बाहर भी विभिन्न देशों में हिन्दी प्रचार और प्रसार में पूरा योगदान दे रही है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी ने अनेक बाधाओं के होते हुए भी विभिन्न कार्यक्षेत्रों में काफ़ी प्रगति की है। राजभाषा के रूप में तथा विभिन्न विषयों की शिक्षा के माध्यम के रूप में चाहे सीमित रूप में ही सही किन्तु उत्तरोत्तर प्रयोग के कारण हिन्दी के शब्द भंडार में संवर्धन होने लगा और उसमें समस्त ज्ञान-विज्ञान को आत्मसात् करने की क्षमता विकसित होने लगी। इसके साथ ही विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा होने के कारण हिन्दी के प्रति अनेक देशों की रुचि बढ़ी और विशेषकर जिन देशों में भारतीय मूल के समुदाय काफ़ी संख्या में रहते हैं, उनमें सामाजिक अस्मिता, ऐतिहासिक पहचान और सांस्कृतिक कड़ी के रूप में यह अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का स्थान ग्रहण करने लगी। इसी कारण विश्व के अन्य देशों में लगभग एक सौ विश्वविद्यालयों में हिन्दी का अध्ययन-अध्यापन और शोध-कार्य शुरू हो गया। इन्ही सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति ने यह महसूस किया कि अब समय आ गया है जबकि विश्व के हिन्दी विद्वानों, हिन्दी सेवियों एवं हिन्दी प्रेमियों का एक मंच स्थापित किया जाए जहाँ राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संदर्भ में हिन्दी की उपलब्धियों एवं संभावनाओं पर विचार-विमर्श हो सके और यह प्रेक्षण किया जाए कि वह आज की स्थिति में मानव-सेवा का उपयोगी साधन कैसे बन सकती है। इसके साथ ही यह भी सोचा गया कि इस मंच के द्वारा हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ एवं अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिलाया जाए तथा अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में समस्त मानव जाति की सेवा की ओर अग्रसर किया जा सके।

इसी लक्ष्य को लेकर प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में संपन्न हुआ था। इस ऐतिहासिक समारोह का उद्घाटन करते हुए भारत की प्रधान मंत्री, श्रीमती इन्दिरा गांधी ने कहा था कि हिन्दी विश्व की महान् भाषाओं में से है। यह करोड़ों की मातृभाषा है और करोड़ों लोग ऐसे हैं जो इसे दूसरी भाषा के रूप में पढ़ते हैं। भारत की समस्त भाषाओं के महत्व को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा था कि सभी भाषाएँ भारत की सांस्कृतिक पंरपरा की समान उत्तराधिकारी हैं। इस अभूतपूर्व समारोह की अध्यक्षता करते हुए मारिशस के तत्कालीन प्रधान मंत्री, सर शिवसागर रामगुलाम ने कहा था कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा तो है लेकिन हमारे लिए महत्व इस बात का है कि यह अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। मारिशस, सूरीनाम, गुयाना, फीजी और अफ्रीका के कई देश यह मानते हैं कि भारत की राष्ट्रभाषा को अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनाने में उनका हाथ रहा है।

प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन के भव्य समारोह में भारत के कोने-कोने से तीन हजार प्रतिनिधि और पर्यवेक्षक पधारे थे। इनके अतिरिक्त 30 अन्य देशों के लगभग 122 प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में भाग लेकर और इसमें सक्रीय योगदान देकर इसे गौरव प्रदान किया था। इस सम्मेलन में भारतीय भाषाओं के प्रतिष्ठित हिन्दी साहित्यकारों का भी सम्मान और अभिनंदन किया गया था जिसका उद्देश्य यह था कि हिन्दी सभी भारतीय भाषाओं की भगिनी है और वह उन्हीं के सहयोग एवं स्नेह से आगे बढ़ सकती है। इसके अतिरिक्त हिन्दी के अंतर्राष्ट्रीय महत्व को ध्यान में रखते हुए हिन्दी के विदेशी विद्वानों का भी अभिनंदन किया गया था।

हिन्दी की कुछ मूलभूत और व्यापक समस्याओं पर वैचारिक आदान-प्रदान का मंच प्रस्तुत करने हेतु सम्मेलन की 7 विचार-गोष्ठियां को निम्नलिखित तीन विषयों के अंतर्गत विभाजित किया गया था।

  1. हिन्दी की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति:
  2. विश्व मानव की चेतना, भारत और हिन्दी: तथा
  3. आधुनिक युग और हिन्दी: आवश्यकताएँ और उपलब्धियाँ
  • इन गोष्ठियों में वैचारिक आदान-प्रदान के पश्चातृ इस सम्मेलन में तीन प्रमुख निर्णय लिए गए:-
  1. संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिन्दी को भी आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए:
  2. वर्धा में विश्व हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना हो: और
  3. विश्व हिन्दी सम्मेलन की उपलब्धियों को स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से कोई ठोस योजना बनाई जाए।


प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में मारिशस देश से आए प्रतिनिधि-मंडल को बल मिला, प्रेरणा मिली और दृष्टि मिली। उनके सामने यह बात फिर से उभर कर आई कि इसी अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा में तो उनके पूर्वजों ने अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था क्योंकि उनका विचार था कि यदि भाषा बनी रही तो संस्कृति बनी रहेगी और संस्कृति बनी रही तो हमारा अस्तित्व भी बना रहेगा। भाषा तो सामाजिक अस्मिता का प्रतीक है, इसलिए इसको संजोए रखना चाहिए। अत: मारीशस के हिन्दी-प्रमियों में यह लालसा उत्पन्न हुई कि अपने छोटे से देश किंतु सुसंस्कृत देश में इस प्रकार के सम्मेलन का आयोजन किया जाए जिसमें वे विश्व के हिन्दी विद्वानों एवं हिन्दी सेवियों का दर्शन अपने देश में एक साथ कर सकें। उनके सपने द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के रूप में साकार हुए जिसका आयोजन 28 अगस्त, 1976 को मारिशस में महात्मा गांधी संस्थान में हुआ था।

इस सम्मेलन का उद्घाटन मारिशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री, सर शिवसागार रामगुलाम ने किया था और भारत के तत्कालीन स्वास्थ्य एवं परिवार नियोजन मंत्री, डॉ. कर्णसिंह ने इसकी अध्यक्षता की थी। इस सम्मेलन में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन के बोधवाक्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को स्वीकार किया गया था जिसके अनुसार ‘विश्व एक – परिवार एक’ की संकल्पना को बल मिला। वास्तव में हिन्दी के इतिहास में यह पहला अवसर था जब भारत से बाहर विदेश में हिन्दी के कवियों, लेखकों, मनीषियों, साहित्यकारों, पत्रकारों ने एक साथ मिल-बैठकर विचार-विमर्श किया। इसमें भारत के लगभग 500 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था जिनमें पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, उपेन्द्रनाथ, अश्क, विमल मित्र, अनंतगोपाल शेबड़े जैसे हिन्दी विद्वान् एवं साहित्यकार और हिन्दी सेवी भी थे। इसके अतिरिक्त जापान, फ्रांस, चेकोस्लोवाकिया, इटली, इंगलैंड, अमरीकी, जर्मनी आदि 20 अन्य देशों के प्रतिनिधियों ने भी इस सम्मेलन में सक्रिय रूप में भाग लिया था। इस सम्मेलन के अवसर पर भारत तथा अन्य देशों से आए हुए प्रतिनिधियों के लिए आतिथ्य सत्कार की जो व्यवस्था की गई थी, उसकी समवेत-स्वर में मुक्तकंठ से प्रशंसा हुई थी।

  • इस सम्मेलन में चार विचार-सत्रों का आयोजन किया गया था जिनमें निम्नलिखित चार प्रमुख विषयों पर चर्चा हुई:-
  1. हिन्दी की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति, शैली और स्वरूप;
  2. जन-संचार के साधन और हिन्दी;
  3. स्वैच्छिक संस्थाओं की भूमिका और
  4. विश्व में हिन्दी के पठन-पाठन की समस्याएँ।


इस सम्मेलन में यह सुझाव दिया गया कि (1) मारिशस में एक विश्व हिन्दी केंद्र की स्थापना की जाए जो सारे विश्व में हिन्दी की गतिविधियों का समन्वय कर सके। इसके अतिरिक्त (2) एक अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रिका का प्रकाशन किया जाए जो भाषा के माध्यम से ऐसे समुचित वातावरण का निर्माण कर सके जिसमें मानव विश्व का नागरिक बना रहे और विज्ञान तथा अध्यात्म की महान् शक्ति एक नए समन्वित सामंजस्य का रूप धारण कर सके।

इन दोनों सम्मेलनों के फलस्वरूप हिन्दी की राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संदर्भों की भूमिका न केवल स्पष्ट हुई वरन् आज के परिवेश में भाषा वैमनस्य के कटुतापूर्ण वातावरण में भाषायी मैत्री के लिए विश्व हिन्दी सम्मेलन की भूमिका और अधिक प्रबलता से उभर कर सामने आई। द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के समय अपनी शुभकामनाएँ भेजते प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी का यह कथन इस अवसर पर और भी महत्वपूर्ण हो जाता है ‘‘यह बहुत अच्छी बात है कि विश्व के हिन्दी प्रेमी ऐसे सम्मेलनों में मिलते हैं, जिससे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना बढ़ती है। लेकिन हिन्दी को किसी अन्य भाषा का अहित करके आगे नहीं बढ़ना है, बल्कि उन्हें साथ लेकर चलना है, जैसे कि एक परिवार छोटे बड़े सभी सदस्यों के सहयोग से चलता है।’’

इस प्रकार इन दोनों त्रिदिवसीय सम्मेलनों से भारत तथा अन्य देशों के मैत्रीपूर्ण संबंध ही दृढ़ नहीं हुए वरन् राष्ट्रभाषा हिन्दी को राष्ट्रीय स्तर से अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक ले जाने की ऐतिहासिक प्रक्रिया को भी बल मिला है। अत: तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन की प्रस्तावना योजना का लक्ष्य इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को गति देते हुए हिन्दी के राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय रूप को पुष्ट करना है। यह सम्मेलन पहले दोनों सम्मेलनों की भाँति एक ओर तो हिन्दी के माध्यम से भारत तथा अन्य देशों के मैत्रीपूर्ण संबंधों को दृढ़ बनाने में सहायक होगा और साथ ही जाति, धर्म, वर्ण और राष्ट्रीयता की संकुचित सीमाओं से परे, हिन्दी के प्रेम, सेवा और शांति की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयास करेगा।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन 1983
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4. हिन्दी की सामासिक एवं सांस्कृतिक एकता डॉ. जगदीश गुप्त
5. राजभाषा: कार्याचरण और सामासिक संस्कृति डॉ. एन.एस. दक्षिणामूर्ति
6. हिन्दी की अखिल भारतीयता का इतिहास प्रो. दिनेश्वर प्रसाद
7. हिन्दी साहित्य में सामासिक संस्कृति डॉ. मुंशीराम शर्मा
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