न्याय दर्शन के प्रतिपाद्य

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न्याय दर्शन विषय सूची

न्याय दर्शन संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ है- "व्युत्पत्ति के आधार पर मार्गदर्शन करने वाला"। जिस पदार्थ में लौकिक तथा परीक्षक दोनों की बुद्धि का साम्य हो, वैषम्य (विरोध) नहीं रहे, उस पदार्थ को दृष्टान्त कहते हैं।[1] स्वाभाविक रूप से तथा शास्त्रों के अनुशीलन से होने वाले बुद्धि के प्रकर्ष का लाभ जिसने नहीं किया है, वह लौकिक पद से यहाँ अभिप्रेत है और जिसने शास्त्रों के अनुशीलन से बुद्धि का प्रकर्ष प्राप्त किया है तथा लौकिक को भी तत्त्व समझाने की सामर्थ्य रखता है वह परीक्षक है। यहाँ न्याय दर्शन के प्रतिपाद्य उपर्युक्त सोलह पदार्थों का यथाक्रम संक्षेप में परिचय प्रस्तुत है-

प्रमाण

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प्रपूर्वक मा धातु से करण अर्थ में ल्युट् प्रत्यय करके ल्युट् के अन आदेश होने पर प्रमाण पद निष्पन्न होता है। जिससे विषय का यथार्थ अनुभव हो उसे उस विषय में प्रमाण कहा जाता है, जो इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है। प्रमा अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञान का करण प्रमाण है। ज्ञान की उत्कृष्टता उसके यथार्थ होने से होती है। यद्यपि यथार्थ ज्ञान अनुभव और स्मरण के भेद से दो प्रकार के होते हैं तथापि स्मरण का असाधारण कारण रूप करण अनुभव ही होता है अत: अनुभव ही प्रमुख रूप से 'प्रमा' कहलाता है। स्मरण तो अनुभूत विषय का ही होता है, अत: स्मरण स्थल में अनुभव ही प्रमाण होता है। फलत: अनुभव रूप प्रधान प्रमा का असाधारण कारण प्रमाण होता है। अनुभव के चार प्रकार कहे गये हैं-

  1. प्रत्यक्ष,
  2. अनुमिति,
  3. उपमिति
  4. शब्दबोध।

अतएव प्रमाण भी चार प्रकार के माने गये हैं-

  1. प्रत्यक्ष,
  2. अनुमान,
  3. उपमान
  4. शब्द।[2]

प्रमेय

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न्याय दर्शन में प्रमाण के वाद प्रमेय का उल्लेख हुआ है। प्रथम सूत्र में उल्लिखित तत्त्वज्ञान से प्रमिति अभिप्रेत है, जिसकी उत्पत्ति में इसके विषय अपेक्षित होते जो प्रमेय कहलाते हैं। मुमुक्षुओं के लिए इस प्रमेय पदार्थ का ज्ञान आवश्यक है। प्रकृष्ट - सर्वश्रेष्ठ, मेय-ज्ञेय= प्रमेय बारह प्रकार के यहाँ हे गये हैं- आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मनस्, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दु:ख और अपवर्ग[3]। वस्तुमात्र, जो प्रमाण से सिद्ध किया जाता है, प्रमेय होता है अतएव महर्षि गौतम ने अवसर पर प्रमाण को भी प्रमेय कहा है- ‘प्रमेया च तुला प्रामाण्यवत्‘ (2/1/16)। जैसे सुवर्ण आदि द्रव्य के गुरुत्व विशेष का निर्धारण तराजू (तुला) से होता है, उस समय तराजू (तुला) गुरुत्व निर्धारक होने से प्रमाण माना जाता है। किन्तु उस तराजू (तुला) में ही यदि किसी का सन्देह हो तो दूसरे तराजू पर उसे रखकर उसके प्रामाण्य की परीक्षा की जाती है, तब वह प्रमेय हो जाता है। इसी तरह प्रमेय के साधक प्रत्यक्ष आदि प्रमाण हैं, किन्तु उनमें यदि प्रामाण्य सन्दिग्ध हो जाए तो प्रमाणान्तर से उसकी प्रामाण्यसिद्धि के समय वह प्रमाण भी प्रमेय हो जाता है।

संशय

अज्ञात और निश्चित पदार्थों में न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है, अपितु सन्दिग्ध पदार्थ में उसकी प्रवृत्ति देखी जाती है अत: न्याय के पूर्वाग के रूप में यहाँ संशय को माना गया हैं। अभिप्राय यह है कि जिज्ञासा ज्ञान की जननी है, जो संशय के बिना नहीं होती। किसी एक धर्मी में नाना विरुद्ध धर्मों का ज्ञान ही संशय पदार्थ है। जैसे अन्धकार में खड़े हुए लम्बायमान वस्तु में शाखापत्र रहित वृक्ष (ठूँठ) तथा पुरुष के होने का सन्देह होता है। न्यायसूत्रकार तथा भाष्यकार ने इसके पाँच प्रकार कहे हैं-[4]

  1. साधारण धर्म विशिष्ट धर्मी के ज्ञान से
  2. असाधारण धर्म विशिष्ट धर्मी के ज्ञान से
  3. एक आधार में दो विरुद्ध पदार्थों को कहने वाले विप्रतिपत्ति वाक्य से
  4. उपलब्धि की अव्यवस्था अर्थात् अनियम से
  5. अनुपलब्धि की अव्यवस्था से संशय होता है।

यहाँ विशेषज्ञान की इच्छा रहती है किन्तु विशेष धर्म की उपलब्धि नहीं रहती है। हाँ. उसकी स्मृति अवश्य रहती है। यहाँ संशय के प्रकार में भाष्यकार से न्यायवार्त्तिककार का मतभेद है। वार्त्तिककार की दृष्टि में उपलब्धि तथा अनुपलब्धि की अव्यवस्था से क्रमश: साधक प्रमाण एवं बाधक प्रमाण का अभाव विवक्षित है। ये दोनों ही संशय मात्र सामान्य कारण है, किसी ख़ास प्रकार के संशय के कारण नहीं हैं। फलत: इनके मत में संशय तीन ही प्रकार के होते हैं। परवर्ती नैयायिकों ने यहाँ वार्त्तिककार का ही अनुसरण किया है। यहाँ यह अवधेय है कि वादी और प्रतिवादी को अपने सिद्धान्तों में संशय नहीं रहता है, किन्तु मध्यस्थ के सन्देह निराकरण के लिए वे (वादी और प्रतिवादी) परस्पर प्रतिज्ञा आदि पञ्चावयव वाक्यों के प्रयोग के द्वारा अपने पक्ष का स्थापन और परपक्ष के खण्डन का प्रयास करते हैं।

प्रयोजन

संशय की तरह प्रयोजन भी न्याय का पूर्वांग है। प्रयोजन के बिना जब मन्द (मूर्ख) भी कहीं प्रवृत्त नहीं होता।[5] तो न्याय की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है। जिस पदार्थ को हेय या उपादेय समझकर उसे छोड़ने या पाने के लिए व्यक्ति उपाय करता है, उसे प्रयोजन कहते हैं। मुख्य तथा गौण के भेद से इसके दो प्रकार माने गये हैं। सुख की उपलब्धि तथा दु:ख की निवृत्ति में जीव की स्वत: इच्छा होती है, अतएव उसे मुख्य या स्वत: सिद्ध प्रयोजन कहते हैं। और सुख तथा दु:ख की निवृत्ति के उपायों को गौण या परम्परा प्रयोजन कहते हैं।[6]

दृष्टान्त

जिस पदार्थ में लौकिक तथा परीक्षक दोनों की बुद्धि का साम्य हो, वैषम्य (विरोध) नहीं रहे, उस पदार्थ को दृष्टान्त कहते हैं।[7] स्वाभाविक रूप से तथा शास्त्रों के अनुशीलन से होने वाले बुद्धि के प्रकर्ष का लाभ जिसने नहीं किया है वह लौकिक पद से यहाँ अभिप्रेत है और जिसने शास्त्रों के अनुशीलन से बुद्धि का प्रकर्ष प्राप्त किया है तथा लौकिक को भी तत्त्व समझाने की सामर्थ्य रखता है वह परीक्षक है। यहाँ अवधेय है कि दृष्टान्त अंशत: ही समान होता है, सर्वांशत: नहीं। अतएव किस सन्दर्भ में किस भाव में तथा किस अंश में दृष्टान्त का उल्लेख हुआ है- इसका प्रणिधान आवश्यक है। इस दृष्टान्त के बिना प्रतिपक्षी को कुछ समझाना संभव नहीं है। स्वपक्ष-समर्थन तथा परपक्ष-खण्डन का यह एक उपकरण है। इसमें लोक एवं प्रमाण दोनों से सिद्ध पदार्थ ही प्रयुक्त होता है। इसके दो प्रकार माने गये हैं- साधर्म्य दृष्टान्त और वैधर्म्य दृष्टान्त। यह भी न्याय का पूर्वांग है।

सिद्धान्त

किसी सिद्धान्त की स्थापना के लिए ही दृष्टान्तमूलक न्यायवाक्य का प्रयोग होता है। अतएव उक्त न्याय के आश्रय के रूप में इसका परिग्रह हुआ है। स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि सिद्धान्त क्या है तथा इसके कितने प्रभेद हैं। शास्त्रसिद्ध पदार्थ का निश्चय ही सिद्धान्त है। न्यायसूत्र कहता है कि ‘तन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थिति: सिद्धान्त:’ 1/1/26 । यहाँ तन्त्र पद शास्त्र का वाचक है। अत: वह (शास्त्र) जिसका आधार हो उसका स्वीकारात्मक निश्चय ही सिद्धान्त है। इसके चार प्रभेद यहाँ निर्दिष्ट हैं-

  1. सर्वतन्त्र - जो सभी शास्त्रों के अविरोधी हो और किसी एक शास्त्र में कहा गया हो, वह सर्वतन्त्र सिद्धान्त है।
  2. प्रतितन्त्र - जिस सम्प्रदाय का जो सिद्धान्त अपने शास्त्र में सिद्ध है और अन्य शास्त्रों में मान्य नहीं है, वह प्रतितन्त्र सिद्धान्त है।
  3. अधिकरण - जिस पदार्थ के सिद्ध होने से अन्य पदार्थ की सिद्धि होती है, वह अधिकरण सिद्धान्त है। अर्थात् जिस पदार्थ की सिद्धि के बिना जो अन्य पदार्थ अन्य प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता है वही पदार्थ अधिकरण सिद्धान्त है।
  4. अभ्युपगम - जिस स्थल में प्रतिवादी किसी पदार्थ में अपरीक्षित धर्म को स्वीकार कर लेता है, उस पदार्थ में उसके (वादी के) असम्मत अन्य विशेष धर्म की परीक्षा करता है, उस स्थल में प्रतिवादी का स्वीकृत अपर सिद्धान्त अभ्युपगम सिद्धान्त कहलाता है।[8]

अवयव

न्याय की प्रक्रिया से सिद्धान्त के निश्चय हेतु अवयव पदार्थों का तत्त्वज्ञान आवश्यक है। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन- इन पाँच खण्ड वाक्यों को अवयव कहते हैं[9] इसे न्याय का स्वरूप कहा गया है। वाचस्पति मिश्र ने कहा है कि जैसे सावयव द्रव्य के सभी अवयव मिलकर उस द्रव्य के स्वरूप को धारण करते हैं, इसी तरह यथाक्रम प्रतिज्ञा आदि पाँचों वाक्य मिलकर न्याय नामक महावाक्य का रूप धारण करते हैं। यह महावाक्य वक्ता के विशिष्ट अर्थ के प्रतिपादन में समर्थ होता है। फलत: यथाक्रम उच्चरित प्रतिज्ञा आदि पञ्चावयव रूप वाक्य समष्टि ही न्याय है। प्रतिज्ञा आदि खण्डवाक्य इसके अवयव कहलाते हैं। अवयव का यहाँ गौण प्रयोग हुआ है, मुख्य प्रयोग तो इसका अवयवी के (द्रव्य के) अंग रूप में प्रसिद्ध है।

प्रतिज्ञा

प्रतिज्ञा से साध्य का निर्देश अभिप्रेत है।[10] यहाँ साध्य पद के दो अर्थ होते हैं- धर्म तथा धर्मी। किसी धर्मी में धर्म के अनुमान करने के उद्देश्य से यदि न्याय का व्यवहार होता है, तो वह अनुमेय धर्म साध्य होता है और यदि उसी धर्म से युक्त धर्मी साध्य होता हा, तो वह (धर्मी का साध्य होना) उसका दूसरा प्रकार है। फलत: साधनीय धर्मविशिष्ट धर्मी के बोधक वाक्य को प्रतिज्ञा कहते हैं।

हेतु

अनुमेय धर्म के लिंग को अथवा हेतुत्व बोधक वाक्य को हेतु-शब्द से लिया जाता है। वाक्यात्मक इस हेतु के दो प्रकार होते हैं- साधर्म्य हेतु और वैधर्म्य हेतु।[11] यहाँ साधर्म्य और वैधर्म्य से साध्यधर्मी और उदाहृत पदार्थ (दृष्टान्त) का समान या असमान धर्म यथाक्रम विवक्षित है, जहाँ हेतु के साथ साध्य अर्थात् अनुमेय धर्म की व्याप्ति का निश्चय होता है। इस हेतु का पञ्चरूपत्व- पक्षसत्व, सपक्षसत्व, विपक्षासत्व, असत्प्रतिपक्षत्व तथा अबाधितत्त्व अपेक्षित है। अन्यथा इनमें से किसी एक के नहीं कहने पर हेतु हेतु नहीं रहकर हेत्वाभास हो जाता है। उदाहरण- जिस वाक्य से हेतु और साध्य में व्याप्यव्यापकभाव संबन्ध ज्ञात होता है उसे उदाहरण वाक्य कहते हैं। इसके दो प्रकार हैं- साधर्म्योंदाहरण तथा वैधर्म्योदाहरण। साध्य धर्मी के समान धर्म की स्थिति के कारण, जिस पदार्थ में साध्य धर्म भी रहता है, उस पदार्थ को साधर्म्य दृष्टान्त कहते हैं। अन्वय दृष्टान्त भी इसका नामान्तर है। इस दृष्टान्त वाचक वाक्य को साधर्म्योदाहरण कहा गया हैं इसी तरह वैधर्म्यबोधक या व्यतिरेक दृष्टान्त का वाचक वाक्य वैधर्म्योदाहरण पद से अभिहित होता है।[12]

उपनय

उदाहरण वाक्य के दो प्रकार होने से उपनय वाक्य के भी दो प्रकार होना स्वाभाविक है। उदाहरणाक्य के अनुसार साध्य धर्मी के साथ ‘तथा‘ अथवा ‘न तथा’ जोड़कर उपसंहार वाक्य का कथन उपनय पद से अभिप्रेत है।[13] साधर्म्योपनय तथा वैधर्म्योपनय में ‘तथा’ एवं ‘न तथा’ यथाक्रम वाक्य में जोड़ा जाता है।

निगमन

प्रतिज्ञावाक्य के बाद जो हेतुवाक्य कहा जाता है, उसका उल्लेख करते हुए प्रतिज्ञावाक्य का पुन: कथन ‘निगमन’ है।[14] यह एक रूप ही होता है। इसके प्रकारान्तर नहीं होते। आचार्य भासर्वज्ञ ने अपने न्यायसार में निगमन के भी दो प्रकारों को कहा है किन्तु वह न तो प्रचलित है और न सम्प्रदायस्वीकृत ही। भाष्यकार की दृष्टि से इन अवयवों में न्यायसम्मत चारों प्रमाणों का संकलन हुआ है। प्रतिज्ञा में शब्द, हेतु में अनुमान, उदाहरण में प्रत्यक्ष और उपनय में उपमान प्रमाण अनुलग्न है। लोहे के छड़ की तरह स्वतन्त्र रूप में विद्यमान इन चारों प्रमाणों का एकत्र संग्रह निगमन वाक्य में होता है। न्यायदर्शन यद्यपि प्रमाण- संप्लव- एक विषय की सिद्धि में अनेक प्रमाणों का उपयोग और प्रमाण-व्यवस्था- एक प्रमाण से एक विषय की सिद्धि दोनों को मानता है, तथापि यहाँ प्रमाण-सम्प्लव पर ही बल दिया गया प्रतीत होता है। फलत: न्यायवाक्य में एक ही विषय में सभी प्रमाणों की सामर्थ्य का प्रदर्शन होता है। यद्यपि प्राचीनतम काल में दश अवयवों की मान्यता रही है। इन उपर्युक्त पाँच अवयवों के साथ जिज्ञासा, संशय, शक्यप्राप्ति, प्रयोजन और संशयव्युदास को यहाँ अवयव के रूप में परिग्रह किया गया है, तथापि न्यायभाष्यकार ने इनकी उपेक्षा कर पाँच अवयववाद की स्थापना की है।

अभिप्राय यह है कि जिज्ञासा आदि परप्रतिपादक नहीं होते हैं। अतएव न्याय के अवयव नहीं हो सकते। दूसरी बात यह है कि निश्चित वचन ही साधक होते हैं। जिज्ञासा और संशय स्वरूपत: निश्चित नहीं हैं। प्रयोजन तो साधन के पश्चात् अवगत होते हैं। संशयव्युदास और शक्यप्राप्ति की भी यही स्थिति है। अतएव ये न्याय के अवयव नहीं हो सकते हैं। भाष्यकार ने यहाँ कहा है कि कथा के उत्थापन में यद्यपि संशय आदि समर्थ हैं, अवधारणीय अर्थ के उपकारक हैं, किन्तु तत्त्वार्थ की साधकता इनमें नहीं अपितु प्रतिज्ञादि में ही है। जिस दर्शन में दो या तीन अवयव माना गया है, वहाँ भी इन स्वीकृत पाँच अवयवों में ही कम किया है अर्थात् उसका भी आधार यह पंचावयव ही है। अवयवों में ह्रास या वृद्धि का आधार इसी पंचावयव को माना गया है। फलत: इस पंचावयव की प्राचीनता और प्रामाणिकता नि:सन्दिग्ध है।

  • अतएव विष्णुधर्मोत्तरपुराण में इन पाँच अवयवों का उल्लेख मिलता है-

प्रतिज्ञा हेतुदृष्टान्तावुपसंहार एव च ।
तथा निगमनं चैव पञ्चावयवमिष्यते॥[15]

  • महाभारत के सभापर्व में नारद का पंचावयव वाक्य के गुण-दोषों के जानकार के रूप में उल्लेख मिलता है- पंचावयव वाक्यस्य गुणदोषवित्।
  • चरक संहिता के विमान स्थान में इस पंचावयव न्याय वाक्य का अक्षरश: वर्णन किया गया है। अतएव इस सिद्धान्त की रूढमूलता एवं परम्परा सिद्ध होती है।

तर्क

जिस पदार्थ के तत्त्व का निश्चय नहीं होता है, उसके तत्त्वनिर्णय के लिए उसमें कारण रूप प्रमाण की उत्पत्ति से जो ऊह किया जाता है वही तर्क है।[16] दो धर्मों के सन्देह होने पर एकतरफा पक्ष में प्रमाण की उपलब्धि का ऊह (मानसज्ञान) करना तर्क है। यह ऊह न तो प्रमाण है और न तो प्रमाण का फल तत्त्व निश्चय ही। अपि तु प्रमाण का सहकारी ज्ञानविशेष रूप है। उदयनाचार्य ने तात्पर्य परिशुद्धि में अनिष्ट पदार्थ के प्रसंग अर्थात् आपत्ति को तर्क कहा है। वरदराज ने तार्किकरक्षा में इनका अनुसरण करते हुए मूलत: इस अनिष्ट का दो भेद माना है- प्रामाणिक का परित्याग और अप्रामाणिक का परिग्रह।

तर्कोऽनिष्टप्रसङ्ग: स्यादनिष्टं द्विविधं स्मृतम्।
प्रामाणिकपरित्यागस्तथेतरपरिग्रह:॥[17]

इस तर्क के पाँच भेद स्वीकृत हैं-

  1. आत्माश्रय,
  2. अन्योन्याश्रय,
  3. चक्रक,
  4. अनवस्था
  5. अनिष्टप्रसङ्ग।
  • वरदराज की तार्किकरक्षा में कहा गया है- आत्माश्रयादिभेदेन तर्क: पञ्चविध: स्मृत:। [18]

पदार्थ की उत्पत्ति, स्थिति और ज्ञान में यह तर्क किया जाता है। उपर्युक्त आत्माश्रय आदि चार प्रकारों से भिन्न सभी प्रकारों के तर्क इसके पंचम प्रकार में अन्तर्भूत होते हैं। अतएव लाघव, गौरव, विनिगमन विरह तथा प्रथमोपस्थितत्त्व आदि पृथक् तर्क के प्रभेद नहीं माने जाते, अपितु अनिष्ट प्रसंग में इनका अन्तर्भाव हो जाता है। सम्प्रदाय का कहना है कि चूँकि लाघव आदि में आपत्ति का स्वरूप नहीं है, अतएव इन्हें तर्क नहीं कहा जा सकता है। इन सब में भी तर्क की तरह प्रमाण की सहकारिता या उपकारकत्व विद्यमान है, अत: तर्क की तरह व्यवहार इनका होता रहा है। फलत: तर्क के पाँच ही प्रकार न्याय दर्शन में माने गये हैं। वृत्तिकार विश्वनाथ सिद्धान्त पंचानन ने व्यापक पदार्थ के अभाव में व्याप्य पदार्थ के आरोप से उस व्यापक पदार्थ के आरोप[19] रूप ऊह को तर्क कहा गया है। व्याप्य पदार्थ को आपादक और व्यापक पदार्थ को आपाद्य कहा जाता है। जिस पदार्थ की आपत्त की जाए, वह आपाद्य और जिस पदार्थ के आरोप से आपत्ति की जाए, वह आपादक होता है। आपादकारोप से आपाद्यारोप एवं आपाद्याभाव के आरोप से आपाद का भाव का आरोप व्याप्ति का निश्चायक होता है। तार्किक रक्षा में इस तर्क के पाँच अंग कहे गये हैं। आपादक में आपा की व्याप्ति ही तर्क का प्रथम अंग है। प्रतितर्क का अभाव इसका दूसरा अंग है। आपा के विपरीत आधार में अवस्थान इसका तृतीय अंग है। प्रामाणिक का परित्याग और अप्रामाणिक का परिग्रह क्रमश: इसका चतुर्थ और पंचम अंग हैं। इन पांच अंगों में से किसी एक भी अंग के अभाव में तर्क यथार्थ तर्क न होकर तर्काभास हो जाता है। तर्क विषय का परिशोधक और व्याप्ति का ग्राहक होता है। अनुकूल तर्क का अस्तित्व तथा प्रतिकूल तर्क का अभाव प्रमाण के प्रामाण्य के साधन में सहायक होता है। जो तर्क अनुमान स्थल में, हेतु में साध्य धर्म के व्यभिचार-संशय का निवर्तक होता हो, वह व्याप्ति का ग्राहक है और अनुकूल तर्क विषय का परिशोधक होता है।

निर्णय

तत्त्व का अवधारणा निर्णय कहलाता है। यह न्यायवाक्य तथा तर्क से सिद्ध किया जाता है। अभिप्राय यह है कि वादी और प्रतिवादी अपने पक्ष का स्थापन और परपक्ष का खण्डन करता है। इससे मध्यस्थ तत्त्व का अवधारण करता है। यह अवधारण ही निर्णय है।[20]

वाद

विचारणीय विषय में अनेक वक्ताओं के वाक्यसमूह को कथा कहा जाता है। किसी एक वक्ता के पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष, दोष एवं उसका समाधान रूप वाक्यसमूह कथा नहीं होती है। विचारणीय विषय में वादी एवं प्रतिवादी की उक्ति-प्रत्युक्तिरूप वचनसमूह कथा कहलाती है। इसके तीन प्रकार-वाद, जल्प और वितण्डा माने गये हैं। तत्त्वनिर्णय के लिए गुरु तथा शिष्य में जो विचार किया जाता है वह वाद कथा है। इस वाद में प्रमाणत: तर्क से स्वपक्ष का स्थापन और परपक्ष का खण्डन किया जाता है, जो सिद्धान्त का अविरोधी और पंचावयव वाक्य से युक्त होता है। यहाँ पक्ष और प्रतिपक्ष का परिग्रह किया जाता है। इस तरह के वादी एवं प्रतिवादी के वचनसमूह वाद[21] पद से अभिप्रेत है। इस कथा में किसी भी पक्ष को जय की इच्छा नहीं रहती है, केवल तत्त्वनिर्णय के लिए वाद किया जाता है।

जल्प

जल्प [22] कथा में विजय की इच्छा से वादी और प्रतिवादी अपने-अपने सिद्धान्त का स्थापन और परपक्ष का खण्डन करते हैं। यहाँ छल, जाति तथा हेत्वाभास का प्रयोग एवं निग्रह स्थान का प्रदर्शन भी विहित है।

वितण्डा

जल्पकथा में यदि प्रतिपक्षी के मत का स्थापन नहीं होता है तो वह वितण्डा कहलाती है।[23] वितण्डा कथा में प्रतिवादी वादी के मत का खण्डन करता है और अपने मत का स्थापन नहीं करता है। उसका अन्तर्निहित आशय यह है कि वादी के मत के खण्डन कर देने पर उसका मत स्वत: सिद्ध हो जाएगा। इस आशा से वह अपना मत स्थापित नहीं करता है, केवल वादी के मत का निराकरण करता है। अभिप्राय यह है कि वैतण्डिक का भी अपना मत होता अवश्य है, किन्तु वह उसका स्थापन नहीं करता करता है। जल्पकथा में वादी और प्रतिवादी दोनों ही नियमपूर्वक जञ्चावयव वाक्य का प्रयोग करते हैं तथा अपना-अपना मत अवश्य स्थापित करते हैं।

जल्प और वितण्डा के अंग रूप में वादीनियम, प्रतिवादी नियम सभापति नियम, मध्यस्थ नियम तथा सदस्य नियम आदि का निर्देश प्राचीन आचार्यों ने किया है। वादी और प्रतिवादी होने की अपेक्षित योग्यता देखकर मध्यस्थ द्वारा उसकी नियुक्ति की जाती है। जिसकी बात सब मानें ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति सभापति हो सकता है और वह मध्यस्थ का चयन करता है, तब कथा (विचार) आरम्भ होती है। वादी मध्यस्थ के समक्ष पंचावयव वाक्य के द्वारा मध्यस्थ के प्रश्न के अनुसार अपना पक्ष प्रस्तुत करता है। इसमें दोष नहीं है- इसका युक्तिपूर्वक उपपादन करता है। पुन: प्रतिवादी वादी के मत का संक्षेप में अनुवाद करके उसमें दोष दिखाकर अपना पक्ष स्थापित करता है। अनुवाद के माध्यम से ही प्रतिवादी यह सिद्ध करना चाहता है कि वह वादी के वक्तव्य को अच्छी तरह जानता है। अन्यथा प्रतिवादी के पक्ष में निग्रह स्थान की उद्भावना भी हो सकती है। फलत: निग्रह और अनुग्रह में समर्थ प्रभावशाली सभापति, निष्पक्ष एवं शास्त्र मर्मज्ञ मध्यस्थ तथा अनुशिष्ट अर्थात् यथाविहित नियम के परिपालन में निष्ठावान वादी और प्रतिवादी विचार के लिए आवश्यक माने गये हैं। क्रोध एवं कलह की गुंजाइश यहाँ नहीं होती है।

वाद कथा में इस तरह सभापति या मध्यस्थ आवश्यक नहीं होते। वह तो पर्णकुटी या वृक्ष की छाया में बैठकर भी संभव है। गुरु तथा शिष्य तत्त्वज्ञान के लिए यहाँ प्रवृत्त होते हैं। इस कथा में जय-पराजय यहाँ अभिप्रेत नहीं है। मुमुक्ष व्यक्ति को भी तत्त्वनिर्णय एवं उसकी दृढ़ता के लिए इस आन्वीक्षिकी विद्या का अध्ययन, धारणा तथा निरन्तर चिन्तन रूप अभ्यास आवश्यक है। तद्विद्य, असूया से रहित शिष्य, गुरु, सतीर्थ्य और शास्त्र में निष्णात आदि किसी के समीप जाकर वाद कथा की जा सकती है। 'तद्विद्य सम्भाषा' या 'तद्विद्य संवाद' पद से प्राचीन काल में इसी को कहा जाता है। उपर्युक्त तीन कथाओं में वाद सर्वश्रेष्ठ है। यह तत्त्वनिर्णय से सहायक होता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है- 'वाद: प्रवदतामहम्’ [24] समय-समय पर जल्प एवं वितण्डा भी करनी पड़ती है। अतएव इनके तत्त्वज्ञान भी आवश्यक हैं।

हेत्वाभास

अनुमान में जो प्रकृत हेतु नहीं रहता है किन्तु हेतु की तरह प्रतीत होता है उसे हेत्वाभास कहते हैं। इस हेत्वाभास के ज्ञान के बिना उक्त तीनों प्रकारों की कथा का अधिकार ही नहीं किसी को होता है। इस हेत्वाभास के पाँच प्रकार होते हैं- सव्यभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम् (सत्प्रतिपक्ष) साध्यसम (असिद्ध) और कालातीत (बाध)। [25] जो पदार्थ हेतु के सभी लक्षणों से युक्त नहीं है किन्तु सादृश्य के कारण हेतु की तरह प्रतीत होता है उसे हेत्वाभास कहते हैं। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार होती है- ‘हेतुवदाभासन्ते इति’। तार्किकरक्षा में वरदराज ने कहा है कि हेतु के किसी एक भी लक्षण से रहित होने पर बहुत लक्षणों से युक्त भी हेतु हेत्वाभास होता है और उसके पाँच प्रकार माने गये है-

हेतो: केनापि रूपेण रहिता: कैश्चिदन्विता:।
हेत्वाभासा: पञ्चधा ते गौतमेन प्रपञ्चिता:॥

अनुमान स्थल में पहले यह जानना आवश्यक है कि हेतु के क्या लक्षण हैं। महर्षि गौतम हेतुवाक्य के लक्षणसूत्र में 'साध्य साधनम्' पद से और पश्चात् पाँच प्रकारों के हेत्वाभास के द्वारा हेतु के सामान्य लक्षण की सूचना हेते हैं इसी के आधार पर आधुनिक नैयायिक पक्षसत्व, सपक्षसत्व, विपक्षासत्व, असत्प्रतिपक्षितत्त्व और अबाधितत्त्व – इन पाँच धर्मों को हेतु के सामान्य लक्षण के रूप में मानते हैं। कहीं-कहीं इनमें से चार धर्मों को भी इसका लक्षण माना गया है। क्योंकि सपक्षसत्व और विपक्षासत्व सर्वत्र संभव नहीं होता हैं जहाँ साध्य का अनुमान करना अभीष्ट हो उसे 'पक्ष' कहते हैं। जहाँ साध्य का अस्तित्व निश्चित रूप से रहता है उसे 'सपक्ष' कहते हैं। जहाँ साध्य का अभाव निश्चित रूप से रहता है उसे 'विपक्ष' कहते हैं। सत्प्रतिपक्ष और बाधक अभाव तो उक्त दोनों हेत्वाभास के लक्षण करने पर स्वत: स्पष्ट हो जाएगा। हेतु के इन पाँच धर्मों में से किसी एक के नहीं रहने पर उक्त पाँच प्रकार के हेत्वाभास होते हैं।

यथा विपक्ष में हेतु की असत्ता नहीं रहने पर सव्यभिचार नामक हेत्वाभास होता है। सपक्ष में हेतु की सत्ता के अभाव में विरुद्ध हेत्वाभास होता है। असत्प्रतिपक्षितत्त्व के नहीं होने से सत्प्रतिपक्ष (प्रकरणसम) हेत्वाभास होता है। पक्ष में हेतु के नहीं रहने से साध्यसम (असिद्ध) हेत्वाभास होता है और अबाधितत्त्व नहीं हरने से कालातीत(बाध) हेत्वाभास होता है।

सव्यभिचार

जो हेतु सपक्ष तथा विपक्ष में रहता है वह सव्यभिचार कहलाता है। किसी एक अन्त में जो नियत रूप से नहीं रहता है अर्थात् अनेक अन्तों में विद्यमान है उसे सव्यभिचार कहते हैं।[26] विपक्षासत्वरूप हेतु के लक्षण के नहीं घटने से हेतु साध्यधर्म का व्यभिचारी होता है। इस हेतु में व्याप्ति ही नहीं हो पाती है। अतएव अनुमान के प्रमुख साधन व्याप्ति का यह प्रतिबन्धक होता है। विपक्ष में हेतु का निश्चित अस्तित्व ही यहाँ दोष है। इस दोष के रहने पर व्याप्ति का निश्चय संभव नहीं है, अत: इस हेतु से अनुमिति नहीं होती है। साध्यधर्म के व्यभिचार का अभाव ही व्याप्ति का स्वरूप है, जो अनुमान का अंग माना गया है। प्राचीन नैयायिकों ने इसके दो प्रकारों को कहा है-

  • साधारण - जो हेतु पक्ष, सपक्ष और विपक्ष में रहता है उसे साधारण सव्यभिचार कहते हैं।
  • असाधारण - जो हेतु केवल पक्ष में ही रहता है, सपक्ष या विपक्ष में नहीं रहता है उसे असाधारण सव्यभिचार कहते हैं।

नव्य नैययायिक गंगेश उपाध्याय ने इसके तीसरे प्रकार अनुपसंहारी का भी निर्देश किया है। अनुपसंहारी हेतु का सभी पदार्थ पक्ष ही होता है। सपक्ष या विपक्ष इसका अप्रसिद्ध होता है। सपक्ष या विपक्ष रूप दृष्टान्त के अभाव में उस तरह के हेतु के साथ साध्यधर्म की व्याप्ति का निश्चय नहीं हो पाता है। अभिप्राय यह है कि सभी पदार्थों को अनुमान के पक्ष मान लेने पर वहाँ जो भी हेतु होगा अनुसंहारी ही होगा।

विरुद्ध

जो हेतु साध्यधर्म का व्याघातक होता है अर्थात् साध्याभाव का साधक होता है वह विरुद्ध[27] नामक हेत्वाभास है। जैसे शब्द में नित्यत्व धर्म के सिद्ध्यर्थ उत्पत्तिमत्व हेतु विरुद्ध है।

प्रकरणसम (सत्प्रतिपक्ष)

जहाँ किसी एक पक्ष का निर्णय नहीं होकर संशय के विषय रूप पक्ष और प्रतिपक्ष के विषय में जिज्ञासा होती है अर्थात् प्रकरण के विषय में चिन्ता होत है, वहाँ निर्णय के लिए कहा गया हेतु प्रकरणसम[28]सत्प्रतिपक्ष) नामक हेत्वाभास होता है। यहाँ प्रकरण से प्रतिवादी का पक्ष और प्रतिपक्ष रूप दो धर्म विवक्षित है। इन दो धर्मों के विषय में मध्यस्थ की जिज्ञासा ही न्यायसूत्रगत प्रकरणचिन्तापद से अभिप्रेत है।

साध्यसम (असिद्ध)

साध्यता के कारण जो पदार्थ साध्यधर्म के सदृश रहता है वह ‘साध्यसम’[29] या ‘असिद्ध’ हेत्वाभास होता हैं यहाँ हेतु में पक्ष सत्त्वरूप हेतु का लक्षण नहीं रहता है, अत: हेतु न होकर वह हेत्वाभास होता है। परवर्तीकाल में यह साध्यसम 'असिद्ध' कहलाने लगा। न्यायवार्त्तिक में इसके तीन भेद कहे गये हैं-

  1. स्वरूपासिद्ध - पक्ष में यदि हेतु ही नहीं रहे तो स्वरूपासिद्ध कहलाता है। जैसे हृद द्रव्य है, क्योंकि वहाँ धूम है। ‘ह्रदो द्रव्यं धूमात्’।
  2. आश्रयासिद्ध - पक्षतावाच्छेदक धर्म यदि पक्ष में नहीं रहे तो पक्षासिद्ध या आश्रयासिद्ध होता है। जैसे ‘काञ्चनमय: पर्वतो वह्निमान्’ इस अनुमान में काञ्चनमयत्व धर्म पर्वत में नहीं रहता है।
  3. अन्यथासिद्ध - जो हेतु अन्यथा दूसरे प्रकार से सिद्ध हो जाए उसे अन्यथासिद्ध कहते हैं। जैसे छाया द्रव्य है क्येकि इसमें गति देखी जाती है- ‘छाया द्रव्यं गतिमत्वात्।’ यहाँ आलोकविशेष के अभाव को छाया मानने पर भी स्थानान्तर में उसका दर्शन हो सकता हैं क्योंकि प्रतिवादी के मत में अभाव का भी चाक्षुष प्रत्यक्ष होता है। किन्तु अन्य दार्शनिकों के मत में छाया द्रव्य पदार्थ नहीं है, तो भी स्थानान्तर में उसका दर्शन होता है। अत: यह हेतु अन्यथासिद्ध हुआ। सोपाधिक हेतु को भी अन्यथासिद्ध कहा गया है।
  • नव्य नैयायिक की दृष्टि में असिद्ध का तीसरा भेद अन्यथासिद्ध न होकर व्याप्यत्वासिद्ध होता हैं हेतु की व्यर्थ विशेषणवत्ता व्याप्यत्वासिद्धि कहलाती है। तर्कभाषा में इसके दो उपभेद माने गये हैं- हेतु में व्याप्तिनिश्चय का अभाव और उपाधि से युक्त हेतु की सत्ता।
  • किसी-किसी नैयायिक की दृष्टि में सिद्धसाधन और अप्रयोजक दो अधिक हेत्वाभास होते हैं भासर्वज्ञ ने न्यायसार में अनध्यवसित को छठा हेत्वाभास माना है। किन्तु आचार्य उदयन ने न्यायकुसुमाञ्जलि[30] में हेत्वाभास के पाँच से अधिक प्रकारों को गौतमसम्मत नहीं कहा है। अन्यथा हेत्वाभास का विभाजक न्यायसूत्र व्यर्थ हो जाएगा।
  • आचार्य उदयन की दृष्टि में अन्य सभी हेत्वाभासों का इन्हीं पाँच हेत्वाभासों में अन्तर्भाव होता है। जैसे सिद्धसाधन का अन्तर्भाव आश्रयासिद्धि में होता है।
  • साध्यधर्म की व्याप्ति से युक्त पक्षधर्मरूप जो हेतु, वह साध्यधर्म के सदृश है अर्थात् असिद्ध है साध्यसम है। यहाँ यही अभिप्राय गौतम का प्रतीत होता है।
  • यहाँ यह जानना आवश्यक है कि उपाधि किसे कहते हैं। अनुमान के स्थल में जो पदार्थ साध्य का व्यापक हो और साधन का अव्यापक है उसे ‘उपाधि’[31] कहते हैं। यह उपाधि सन्दिग्ध एवं निश्चित के भेद से दो प्रकार की होती है। जिस पदार्थ के साध्य धर्म की व्यापकता में अथवा हेतु की अव्यापकता में अथवा इन दोनों में ही सन्देह हो वह सन्दिग्ध उपाधि है। सन्दिग्ध उपाधि के स्थल में, हेतु में साध्य धर्म के व्यभिचार का सन्देह होने से उस हेतु से अनुमिति नहीं होती है। निश्चित उपाधि के स्थल में उस उपाधि पदार्थ के व्यभिचारित्व हेतु से हेतु पदार्थ में उस साध्य धर्म के व्यभिचार की अनुमति होती है। जिससे व्यभिचार निश्चय रूप प्रतिबन्धक के विद्यमान रहने से व्याप्तिनिश्चय नहीं हो पाता हा। और उसके अभाव में अनुमति भी नहीं होती है। अप्रयोजक भी वहीं हेतु होता है जहाँ उपाधि का सन्देह या निश्चय रहता है। इस स्थल में हेतु में साध्य के व्यभिचार संशय का निवर्तक अनुकूल तर्क नहीं रहता है।

कालातीत (बाधित)

जो हेतु अनुमान के काल बीत जाने पर प्रयुक्त होता है वह कालातीत[32] या बाधित कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जब तक पक्ष (धर्मी) में साध्य धर्म के अभाव का निश्चय नहीं हुआ है, तब तक उस धर्मी में उस साध्य धर्म की अनुमिति हो सकती है। किन्तु किसी सबल प्रमाण से उस साध्यधर्म के अभाव के निश्चय हो जाने पर, उस धर्मी में उस धर्म की अनुमिति का समय नहीं रह पाता है। फलत: अनुमान के काल बीत जाने पर जो प्रयुक्त होता है वह कालातीत है। तार्किकरक्षा में कहा गया है-

कालातीतो बलवता प्रमाणेन प्रबाधित:। (बलवान् प्रमाण से बाधित हेतु बाध, बाधित या कालातीत कहलाता है।)

छल

जल्प और वितण्डा कथाओं में प्रतिवादी यदि अवसर पर किसी कारण से सदुत्तर नहीं दे पाता है, तो पराजय के भय से चुप न रहकर असदुत्तर कहने के लिए भी कभी विवश हो जाता है। यह असदुत्तर विशेष ही छल पदार्थ है। वादी के अभिमत शब्दार्थ से भिन्न अर्थ की कल्पना करके वादी के वचन का खण्डन करना छल नामक असदुत्तर होता है।[33] इसके तीन प्रकार वर्णित हैं-

  1. वाक्छल - विविधार्थक पद के प्रयोग करने पर वक्ता के विवक्षित अर्थ से भिन्न अर्थ को लेकर जो निषेध किया जाता है उसे वाक्छल कहते[34] हैं।
  2. सामान्य छल - सम्भाव्यमान पदार्थ के सम्बन्ध में अतिव्यापक किसी सामान्य धर्म की सत्ता से वक्ता के अनभिमत किसी असंभव अर्थ की कल्पना से जो निषेध किया जाता है उसे सामान्य छल[35] कहते हैं।
  3. उपचारच्छल - वादी किसी लाक्षणिक पद का प्रयोग करता है और प्रतिवादी उसके मुख्य अर्थ को लेकर निषेध करता है, इस असदुत्तर को उपचारच्छल कहते हैं।[36]

जाति

जाति शब्द के यद्यपि अनेक अर्थ प्रसिद्ध हैं, किन्तु यहाँ असद् उत्तर विशेष के अर्थ में वह प्रयुक्त हैं। जल्प और वितण्डा कथाओं में जो उत्तर प्रतिवादी के अपने उत्तर की भी हानि कर सकता है अर्थात् जो समान रूप से दोनों पक्षों की हानि कर सकता है वह 'जाति' या 'जात्युत्तर' है। यह जाति पद उक्त अर्थ में पारिभाषिक है। महर्षि गौतम ने इसके लक्षण में कहा है कि व्याप्ति की अपेक्षा नहीं करके केवल किसी साधर्म्य या वैधर्म्य से दोष का प्रदर्शन जाति है।[37] इस जाति के चौबीस प्रकार यहाँ निर्दिष्ट हैं- साधर्म्यसमा, वैधर्म्यसमा, उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा, प्राप्तिसमा, प्राप्तिसमा, अप्राप्तिसमा, प्रसंगसमा, प्रतिदृष्टान्तसमा, अनुत्पत्तिसमा, संशयसमा, प्रकरणसमा, अहेतुसमा, अर्थापत्तिसमा, अविशेषसमा, उपपत्तिसमा, उपलब्धिसमा, अनुपलब्धिसमा, अनित्यसमा, नित्यसमा और कार्यसमा।[38] न्याय दर्शन के पंचम अध्याय के प्रथम आह्निक में इनके लक्षण तथा असदुत्तर होने में युक्तियाँ दिखायी गयी हैं।

निग्रहस्थान

परजय रूप निग्रह तथा खलीकार रूप निग्रह के स्थान अर्थात् कारण को निग्रहस्थान कहते हैं। वादी या प्रतिवादी की विप्रतिपत्ति अर्थात् किसी विषय में विपरीत ज्ञान, रूप भ्रम और बहुत स्थलों में अप्रतिपत्ति अर्थात् अज्ञान इसके निग्रहस्थान होने में मूल है। इससे वादी या प्रतिवादी की विप्रतिपत्ति विपरीतज्ञान या अप्रतिपत्ति- अज्ञान अनुमित होता है, अत: ये निग्रहस्थान[39] माने गये हैं। न्यायदर्शन के पंचम अध्याय के द्वितीय आह्निक में इस निग्रहस्थान के प्रभेद एवं उन प्रभेदों के लक्षण कहे गये हैं। प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञाविरोध, प्रतिज्ञासन्न्यास, हेत्वन्तर, अर्थान्तर, निरर्थक, अविज्ञातार्थ, अपार्थक, अप्राप्तकाल, न्यून, अधिक, पुनरुक्त, अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप, मतानुज्ञा, पर्यनुयोज्योपेक्षण, निरनुयोज्यानुयोग, अपसिद्धान्त और हेत्वाभास।[40] निग्रहस्थान के ये बाईस प्रभेद यहाँ स्वीकृत हैं।

पहले सव्यभिचार आदि पाँच प्रकारों के हेत्वाभास के लक्षण आदि कहे गये हैं। इन लक्षणों से युक्त प्रत्येक हेत्वाभास निग्रहस्थान होता है। वाचस्पति मिश्र आदि अनेक प्राचीन आचार्यों ने अपनी व्याख्या में न्यायदर्शन के अन्तिम सूत्र में समागत ‘च’ शब्द से अन्य निग्रहस्थानों की ओर सूत्रकार के संकेत का निर्देश किया है। तत्त्वचिन्तामणि की असिद्धि भाग की दीक्षिति के अन्त में अघुनाथ शिरोमणि ने भी कहा है कि चकार से अन्य निग्रहस्थान भी अभिप्रेत[41] है। यहाँ कहा गया है कि व्यर्थ विशेषण से युक्त व्याप्यत्वासिद्ध नामक हेत्वाभास नहीं होता है, अपितु वह दोष वादी का है कि व्यर्थ विशेषण से युक्त हेतु का प्रयोग करता है। अत: वह निग्रहस्थान ही है। इन बाईस प्रकारों के निग्रहस्थान में अपसिद्धान्त तथा हेत्वाभास का व्यवहार तत्त्वनिर्णय के उद्देश्य से की गयी वाद कथा में होती है। किसी-किसी के मत से अन्य निग्रहस्थानों का व्यवहार भी वाद कथा में किया जा सकता है। जल्प और वितण्डा कथाओं में तो इनका अव्याहृत व्यवहार होता है। विजय की कामना से ही उन कथाओं का प्रवर्तन होता हैं। इन निग्रहस्थानों के विशेष परिचय के बिना किसी विचार का होना ही कठिन हैं आत्मरक्षा के साथ परपक्ष के शातन हेतु इसका ज्ञान अवश्य अपेक्षित है। दूसरों के द्वारा असदुत्तर के व्यवहार करने पर उसको निग्हीत करने के लिए तथा स्वयं इसके व्यवहार नहीं करने के लिए इन असदुत्तरों का तथा निग्रहस्थानों का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है।

उपर्युक्त इन सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान से नि:श्रेयस लाभ की बात न्यायदर्शन के प्रथम सूत्र में निर्दिष्ट है। यह नि:श्रेयस दो प्रकार के माने गये हैं- ऐतिक अभ्युदय और आमुष्मिक अपवर्ग। कौटिल्य का यह कहना है कि आन्वीक्षिकी विपत्ति एवं अभ्युदय के समय में बुद्धि को संयमित करती है[42] इसके ऐहिक अभ्युदय की ओर संकेत करता है और अपवर्ग के साधन का विवरण चतुर्थ अध्याय के तत्त्वज्ञान परिपालन तथा उसकी विवृद्धि प्रकरण में स्पष्टत: निर्दिष्ट है। अपवर्गप्राप्ति के उपाय न्यायदर्शन के द्वितीय सूत्र में ही कहे गये हैं, जो यहाँ अपवर्ग के सन्दर्भ में अभिहित हैं।

प्रमाता की प्रमेय विषयक प्रमिति प्रमाणों पर ही आधारित रहती है। अतएव प्रमाण सर्वाधिक महत्त्वशाली माना गया है। यही कारण है कि इस शास्त्र में प्रमाणों का विवेचन प्रधान रूप से हुआ है तथा पदार्थों के परिगणन के समय सबसे पहले इसी का उल्लेख है। भाष्यकार वात्स्यायन ने कहा है कि प्रमाणों के अर्थवान होने पर ही प्रमाता, प्रमेय और प्रमिति अर्थ से युक्त होती है। किसी एक के नहीं रहने से अर्थ उपपन्न नहीं हो पाता हे। प्रमाणों में भी यहाँ प्रमुखता अनुमान की है। अत: आन्वीक्षिकी इसका सार्थक नाम है। यहाँ एक बात और आलोचनीय है। न्यायदर्शन केवल अध्यात्मविद्या या मोक्षशास्त्र ही नहीं है, यह एक प्रक्रियाशास्त्र भी है। न्यायदर्शन की विचारपद्धति शास्त्रान्तर के परिज्ञान में भी सहायिका होती है। यही कारण है कि सभी विद्याओं का प्रदीप, सभी कार्यों के उपाय तथा सभी धर्मों का आश्रय इसे कहा गया है-

प्रदीप: सर्वविद्यानामुपाय: सर्वकर्मणाम्।
आश्रय: सर्वधर्माणां शाश्वदान्वीक्षिकी मता॥[43]

न्यायमंजरी में जयन्तभट्ट ने न्यायशास्त्र को विद्यास्थान कहा है। यहाँ विद्यास्थानत्व से चौदह प्रसिद्ध विद्याओं के पुरुषार्थ साधनता के उपाय को ही लिया जाता है। वेदन अर्थात् ज्ञान ही विद्या है, इस ज्ञान से घटादि विषयक ज्ञान नहीं विवक्षित है अपितु पुरुषार्थ साधन का ज्ञान विवक्षित है। उसका स्थान अर्थात् आश्रय उपाय- यह न्यायविद्या है। इससे न्यायविद्या[44] का प्रक्रियाशास्त्रत्व एवं अध्यात्मशास्त्रत्व दोनों उपपन्न होता है।

पाश्चात्त्य विद्वान् ने इसका नाम वादशास्त्र रक्खा है, क्योंकि यहाँ वाद, जल्प तथा वितण्डा आदि का विचार अर्थात् शास्त्रार्थ की परिपाटी न्यायसूत्र में ही आरम्भ हो गया था और उसका पल्लवन उदयनाचार्य के न्यायपरिशिष्ट तथा शंकर मिश्र के वादिविनोद आदि में देखा जाता है। इन सोलह पदार्थों से अतिरिक्त किन्तु उनसे ही साक्षात या परम्परया संबद्ध न्यायदर्शन के प्रसिद्ध विषयों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है। जैसे - *परत: प्रामाण्यवाद,

  • अन्यथाख्याति,
  • आरम्भवाद,
  • अवयवी की सिद्धि
  • ईश्वरसिद्धि आदि।

परत: प्रामाण्यवाद

प्रमाणों का प्रामाण्य स्वत: सिद्ध है या परत: अर्थात् ज्ञानग्राहक सामग्री से ही वह उपपन्न होता है या अतिरिक्त कारण की अपेक्षा रखता है- इस तरह की विप्रतिपत्ति के उठने पर नैय्यायिक यहाँ द्वितीय कोटि को स्वीकार करता है अर्थात् परत: प्रामाण्य मानता है। 'प्रदीपप्रकाशसिद्धिवत् तत्त्सिद्धे:' 2/1/19। इस सूत्र से परत: प्रामाण्यवाद की ओर ही महर्षि गौतम का स्वारस्य प्रतीत होता है। जैसे प्रदीप का प्रकाश चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा विदित होता है अर्थात् प्रदीपान्तर की अपेक्षा नहीं रहने पर भी प्रदीप के देखने हेतु चक्षुष इन्द्रिय अवश्य अपेक्षित होती है। अतएव अन्धव्यक्ति को उस प्रदीप का दर्शन नहीं हो पाता है। इसी तरह प्रमाणों का प्रामाण्य भी प्रामाणान्तर से सिद्ध होता है। जैसे प्रदीप स्वत: प्रकाश नहीं है उसके प्रकाश-दर्शन के लिए द्रष्टा को चक्षुष इन्द्रिय आवश्यक है वैसे ही प्रमाणों के प्रामाण्य में भी प्रमाणान्तर की अपेक्षा अवश्य होती है। उक्त प्रदीप के दर्शन हेतु चक्षुष इन्द्रिय के आवश्यक होने पर भी उसका ज्ञान उस समय में आवश्यक नहीं होता है। ऐसे ही प्रमाणों के प्रामाण्य साधक प्रमाण के रहने पर भी उसका ज्ञान आवश्यक नहीं होता है। क्योंकि सर्वत्र प्रमाण में प्रामाण्य का संशय नहीं होता है। कहीं-कहीं प्रमाण के द्वारा यथार्थ ज्ञान के उत्पन्न होने पर भी उस ज्ञान में यथार्थता का संशय होता है। इस स्थल में उक्त प्रमाण पदार्थ में भी यथार्थता का सन्देह होता है। फलत: यथार्थ ज्ञान का तथा यथार्थ प्रमाण का यथार्थत्व प्रामाणान्तर से निश्चित होता है। इसी का नाम है ‘परतो ग्राह्यत्व’।

अभिप्राय यह है कि प्रमाण की प्रामाण्यसिद्धि के लिए प्रमाणान्तर को मानना होगा। यह प्रमाणान्तर अनुमान स्वरूप होता है, अत: वह प्रामाण्य का साधक कहलाता है। प्रमाण के द्वारा किसी विषय के ज्ञान होने पर व्यक्ति उस विषय में प्रवृत्त होकर सफलता प्राप्त करता है। यहाँ उक्त प्रमा ज्ञान के द्वारा उसका कारण रूप प्रमाण भी सफल प्रवृत्ति का जनक होता है। उक्त अनुमान का स्वरूप इस प्रकार का होता है (मेरा) यह ज्ञान यथार्थ है, क्योंकि इसमें सफल प्रवृत्ति की जनकता विद्यमान है, जो ऐसा नहीं है वह यथार्थ भी नहीं है। 'इदं ज्ञानं यथार्थं सफलप्रवृत्तिजनकत्वात्, यत्रैवम् तत्रैवम्।' मृगतृष्णा में जल के भ्रम होने पर उससे उत्पन्न जल पीने की प्रवृत्ति सफल नहीं होती है, अत: वह भ्रम कदापि प्रमाण नहीं होता है और प्रमाण के द्वारा यथार्थ जल के ज्ञान होने पर उसके पीने से पिपासा का उपशम होता है अर्थात् जलपान में पिपासु व्यक्ति की प्रवृत्त सफल होती है। अत: निर्विवाद रूप से यह प्रमाण होता है। उक्त अनुमान के द्वारा पूर्व में उत्पन्न जलज्ञान की यथार्थता उपपन्न होती है।

वेद आदि शास्त्र रूप अदृष्टार्थक शब्द प्रमाण का प्रामाण्य भी दूसरे प्रमाण- अनुमान से सिद्ध होता है। वेदवाक्यजन्य शब्दबोध का जो यथार्थत्व है वह उस वेद के वक्ता पुरुष के वेदार्थविषयक यथार्थज्ञान रूप गुण से उत्पन्न है। अत: उस सतरह के पुरुष से कृत होने के नाते न्यायमत में वेद पौरुषेय है और उस आप्त पुरुष (ईश्वर) के प्रमाण होने से ही वेद में प्रामाण्य सिद्ध होता है। प्रमाण के प्रामाण्य साधक इस अनुमान प्रमाण में प्रामाण्य के सन्देह नहीं होने पर, इस अनुमान के प्रामाण्य की सिद्धि हेतु अनुमानान्तर की आवश्यकता नहीं होती है। सभी प्रमाणों में प्रामाण्य का सन्देह नहीं होता है। अन्यथा व्यक्ति के प्रमाणमूलक निश्चय होने पर जो व्यवहार या प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं, वह उत्पन्न नहीं होंगी। अत: न्यायमत में प्रमाण परत: ग्राह्य है किन्तु परत: ग्राह्य ही नहीं है, कदाचित स्वत: ग्राह्य भी है।

'ज्ञानविकल्पानां भावाभावसंवेदनादध्यात्मम्' (5/1/31।) इस न्यायसूत्र में ‘ज्ञानविकल्प’ से विशिष्टविषयक ज्ञान (सविकल्पकज्ञान) को लिया जाता है, जिसके मानस प्रत्यक्ष रूप अर्थात् अनुव्यवसाय को यह सूत्र अभिव्यक्त करता है। घटत्वरूप से घटविषयक ज्ञान होने पर, दूसरे क्षण में घटत्वविशिष्ट घट को मैं जानता हूँ (घटत्वेन घटमहं जानामि) इस तरह का जो मानसबोध होता है, उसी का नाम है- अनुव्यवसाय। इस अनुव्यवसाय के प्रामाण्य का साधक प्रमाणान्तर-अनुमान-मानना आवश्यक हैं अन्यथा इस अनुव्यवसाय में प्रामाण्य नहीं आ पायेगा। अत: न्यायमत में सविकल्पकज्ञान तथा अनुव्यवसाय स्वत: प्रकाश नहीं है, अपितु दोनों ही पर प्रकाश्य हैं अनुव्यवसाय में प्रमात्व या भ्रमत्व विषय नहीं होता है। अनुमान से उसके भ्रमत्व या प्रमात्व का निश्चय किया जाता है। फलत: भ्रमत्व एवं प्रमात्व दोनों ही परत: ग्राह्य होते हैं। स्वत: नहीं। भ्रमात्मक ज्ञान की उत्पत्ति जैसे किसी दोष से होती है वैसे उसके भ्रमत्व के निश्चय में भी वह दोष कारण होता है। प्रमात्मक ज्ञान की उत्पत्ति जैसे किसी गुण से होती है वैसे उसके प्रमात्व के निश्चय में भी वह गुण कारण होता है। इसी प्रक्रिया से प्रमाणों का परत: प्रामाण्य उपपन्न होता है। भ्रमात्मक ज्ञान की उत्पत्ति का विशेष कारण यहाँ दोष पद से तथा प्रमात्मक ज्ञान की उत्पत्ति का विशेष कारण गुण पद से विवक्षित हैं।

परत: प्रामाण्यवादी नैय्यायिक का कहना है कि किसी विषय में किसी को वस्तुत: प्रमाज्ञान होने पर भी जब किसी स्थल में सन्देह होता है कि यह ज्ञान प्रमात्मक है या नहीं? तब उस प्रमाज्ञान के बोधक कारण के द्वारा ही उसके प्रमात्व का निश्चय हो जाने पर उस विषय में संशय हो ही नहीं सकता है। कारण रहने पर कार्य अवश्य होता है। यदि ज्ञानग्राहक सामग्री ही प्रमात्व का निशचायक होगा तब संशय कैसे हो सकता है। किन्तु सन्देह अनुभव सिद्ध है, अत: उसका अपलाप संभव नहीं है। यदि माना जाए कि ऐसे स्थल में ज्ञाता पुरुष के किसी दोष के प्रतिबन्धक रूप में रहने पर, पहले उस ज्ञान में प्रमात्व का निश्चय नहीं हो पाता है। तो कहना होगा कि किस तरह का दोष यहाँ प्रमात्व के निश्चय का प्रतिबन्धक हैं साथ ही दोष के रहने पर यह ज्ञान भ्रमात्मक ही क्यों नहीं होता? ज्ञान के प्रमात्व-निश्चय में किसी दोष को प्रतिबन्धक मानने पर, उसके अभाव को अतिरिक्त कारण मानना होगा। क्योंकि कार्यमात्र के प्रति प्रतिबन्धक का अभाव कारण होता है। प्रमाज्ञान के प्रमात्व-निश्चय में अतिरिक्त किसी कारण की अपेक्षा नहीं होती है- अर्थात् प्रमात्व स्वतोग्राह्य है- यह नहीं कहा जा सकता है। इसी तरह प्रमात्मक ज्ञान की उत्पत्ति में गुण के रूप में किसी अतिरिक्त प्रमाण के नहीं मानने पर भी दोषाभाव को कारण मानना ही होगा। क्योंकि भ्रम के जनक दोष रहने पर भ्रमात्मक ज्ञान अवश्य होता है, प्रमात्मक ज्ञान नहीं होता है। प्रमा ज्ञान की उत्पत्ति या उसका प्रमात्व यदि सर्वत्र दोषाभाव रूप अतिरिक्त कारण से उत्पन्न होता है तो उत्पत्तिपक्ष में भी स्वत: प्रामाण्यवाद की रक्षा नहीं हो पाती है। तस्मात् परत: प्रामाण्यवाद युक्ति एवं प्रमाण से प्रतिपन्न होता है।

अन्यथाख्याति

जो धर्म जहाँ नहीं रहता है, उस धर्म के साथ उस वस्तु का ज्ञान अर्थात् भ्रमज्ञान अन्यथाख्याति कहलाता है। अन्य प्रकार से ज्ञान उसका व्युत्पत्तिलम्य अर्थ होता है। ख्याति पद यहाँ ज्ञान का वाचक है। विशेष्यता के व्यधिकरण धर्म अन्य पद से विवक्षित है। अभिप्राय यह है कि शुक्तिका में जो रजत का भ्रम होता है। यहाँ प्रातिभासिक रजत की उत्पत्ति नहीं होती है अपितु नेत्रदोष, दूरत्व तथा अस्फुट आलोक आदि दोषों के कारण शुक्तिका के अपना धर्म शुक्तित्व का ग्रहण नहीं हो पाता है, किन्तु सादृश्य एवं चाकचिक्य आदि के कारण रजतत्त्व रूप धर्म की कल्पना के बल पर वह शुक्तिका रजतत्वरूप से परिग्रहीत हो जाती है, जिसे भ्रम कहते हैं। यही है अन्यथाख्याति।

आरम्भवाद

परमाणु प्रभृति उपादान कारणात्मक द्रव्य में असत अर्थात् उत्पत्ति के पहले अविद्यमान-अवयवी द्रव्य की उत्पत्ति ही आरम्भ पद का अर्थ होता है और इसका प्रतिपादक मत आरम्भवाद कहलाता है। परमाणुकारणवाद इसी का नामान्तर है। न्यायदर्शन के चतुर्थ अध्याय में इसका प्रतिपादन देखा जाता है। ‘व्यक्ताद् व्यक्तानां प्रत्यक्ष प्रामाण्यात्।’ यह प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है कि व्यक्त कारण से व्यक्त कार्य की उत्पत्ति होती है। इन्द्रिय से ग्राह्य द्रव्य व्यक्त पद से यहाँ विवक्षित है। यद्यपि कार्य द्रव्य का मूल कारण परमाणु अतीन्द्रिय माना गया है, तथापि इन्द्रियग्राह्य द्रव्य के सजातीय होने के कारण वह भी व्यक्त कहलाता है।

इस जगत् के मूल कारण रूप अतीन्द्रिय इस परमाणु का अस्तित्व प्रत्यक्षमूलक अनुमान के द्वारा उत्पन्न होता है। रूप आदि गुणविशिष्ट मृत्तिका आदि स्थूल भूतों से तज्जातीय अन्य घटादि द्रव्य की उत्पत्ति देखकर, इसी दृष्टान्त के आधार पर अतीन्द्रिय परमाणु भी सिद्ध किया जाता है। घटादि द्रव्य के जो रूप, रस आदि विशेष गुण उत्पन्न होते हैं, उनके मूल कारण परमाणु में भी वे गुण अवश्य विद्यमान रहते हैं। उपादान (समवायि) कारण में विद्यमान विशेष गुण ही कार्य द्रव्य में तज्जातीय विशेष गुण के जनक होते हैं। अतएव लाल धागे से बने हुए वस्त्र लाल ही होते हैं। नियम है कि कारणगत गुण कार्यगत गुण के जनक होते हैं- ‘कारणगुणा: कार्यगुणानारभते’। अवधेय है कि यह नियम विशेष गुण में लागू होता है, सामान्य गुण में नहीं। अतएव परमाणुओं की द्वित्वसंख्या (सामान्य गुण) से द्व्यणुक में जो परिमाण उत्पन्न होता है, उसके, संख्या के विजातीय गुण होने पर भी कोई क्षति नहीं है।

यहाँ आरम्भवाद की स्थापना से नैय्यायिक को सत्कार्यवाद के प्रति असहमति का प्रदर्शन भी अभिप्रेत है। इसी बात को समझाने के लिए सूत्रकार ने व्यक्त से व्यक्त की उत्पत्ति की बात कही है। त्रिगुणात्मिका प्रकृति (अव्यक्त) को इस जगत् के मूल कारण के रूप में स्वीकार करना नैय्यायिकों को इष्ट नहीं है। जयन्तभट्ट ने अपनी न्यायमंजरी[45] में कहा है कि उपर्युक्त सूत्र में व्यक्त पद से कपिल मुनि के स्वीकृत अव्यक्त कारण का निषेध करके परमाणुओं में शरीर आदि कार्य की कारणता कही गयी है। ‘व्यक्तादिति कपिलाभ्युपगतत्रिगुणात्मकाव्यक्तरूपकारणनिषेधेन परमाणूनां शरीरादौ कार्ये कारणत्वमाह’।[46] फलत: असत्कार्यवाद भी आरम्भवाद का नामान्तर है। वह इससे भिन्न नहीं है।

यहाँ प्रक्रिया यह है कि दो परमाणुओं के संयोग से सबसे पहले जो द्रव्य उत्पन्न होता है उसका नाम द्यणुक है। इसका प्रत्युक्ष नहीं होता है। वह अणु परिमाण का होता है। तीन द्यणुकों के संयोग से जो द्रव्य उत्पन्न होता हा, उसका नाम त्रसरेणु या त्र्यणुक है। सबसे पहले इसी में स्थूलत्व या महत्परिमाण उत्पन्न होता है, अत: इसका प्रत्यक्ष होता हैं प्रत्यक्ष के प्रति महत्परिमाण कारण होता है और महत्परिमाण की उत्पत्ति में तीन कारण कहे गये हैं-

  1. द्रव्य के उपादान कारण में विद्यमान बहुत्व संख्या,
  2. महत्परिमाण और
  3. प्रचय विशेषज्ञ (शिथिल संयोग विशेष)। द्यणुक के कारण में इन तीनों में से एक भी विद्यमान नहीं हे। किन्तु त्रसरेणु के समवायि (उपादान) कारण में बहुत्व संख्या वर्तमान है। अत: उसका प्रत्यक्ष होता है। बहुत्व संख्या के कारण यहाँ स्थूलत्व या महत्परिमाण उत्पन्न होता है। मनुस्मृति में इस त्रसरेणु का लक्षण किया गया है, जो न्यायदर्शन के अनुकूल है-

जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रज:
प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणुं प्रचक्षते 118/132।

यहाँ अवधेय है कि द्यगुकों के संयोग से किसी द्रव्य की उत्पत्ति मानने पर उसका प्रत्यक्ष नहीं हो पायेगा। क्योंकि वहाँ महत्परिमाण या स्थूलत्व का अभाव रहेगा। महत्परिमाण प्रत्यक्ष के प्रति कारण होता है। उपर्युक्त महत्परिमाण के कारणों में से एक भी यहाँ नहीं है। अत: तीन द्यणुकों से त्रसरेणु की उत्पत्ति मानी जाती हे, जहाँ बहुत्व संख्या महत्परिमाण का जनक होती है। फलत: इस त्रसरेणु की उत्पत्ति द्यणुक से और द्यणुक की उत्पत्ति परमाणु से होती है। परमाणु की सिद्धि हेतु नैय्यायिक का कहना है कि सावयव द्रव्य के अवयव विभाग का अन्त कहीं मानना होगा, जहाँ वह माना जाएगा वहीं परमाणु है। अन्यथा पर्वत और सर्षप में तुल्य परिमाणता हो जाएगी, जो अनुभव विरुद्ध है।

सावयव द्रव्य के अवयव परम्पराओं का विभाग करते-करते ऐसे किसी छोटे अंश में उस विभाग का अन्त होता है, जिसका कोई अंश नहीं होता। वही अति सूक्ष्म अंश परमाणु है। पर्वत आदि के अवयव तथा उसके अवयव आदि परम्परा का विभाग होने पर अन्त में जहाँ उसका विश्राम होता है, उन परमाणुओं की संख्या अधिक होने पर, वह अवयवी क्रमश: महत्, महत्तर और महत्त्म होता है। और जिसकी (अवयवी की) अवयव-परम्परा के विभाग के समय परमाणां की संख्या कम होती है, वह लघु, लघुतर एवं लघुतम यथाक्रम होता है। इस तरह परिमाण के तारतम्य से छोटा-बड़ा अवयवी उपपन्न होता है। इस अवयव- विभाग का यदि कहीं अन्त नहीं हो तो जैसे पर्वत के अवयव विभाग का अन्त नहीं है वैसे सर्षप (सरसों) के अवयव विभाग का भी अन्त नहीं होगा। ऐसी परिस्थिति में सर्षप तथा पर्वत दोनों ही अनन्त अवयवविशिष्ट होने से दोनों की तफलय परिमाणता मानने में कोई बाधा नहीं होगी। किन्तु यह अनुभव विरुद्ध है, अत: अवयव परम्परा का विश्राम परमाणु में मानना आवश्यक है।

न्यायदर्शन के चतुर अध्याय में ‘संयोगोपपत्तेश्च’ तथा ‘अनवस्थाकारित्वाद नवस्थानुपपत्तेश्चाप्रतिषेध:’ 4/2/24-25। सूत्रों के द्वारा उपर्युक्त अभिप्राय की सम्पुष्टि होती है। यहाँ कहा गया है कि परमाणु के अवयव मानने पर, उसका अवयव पुन: उसका अवयव आदि अनन्त अवयव-परम्परा की सिद्धि रूप आपत्ति होगी, जो अनावस्था कहलाती है। अनावस्था दोष में प्रयोजक होने से परमाणु का अवयव सिद्ध नहीं होता है। चूँकि यह अनावस्था बीजांकुर की तरह प्रामाणिक नहीं है अत: न तो मान्य है और न उत्पन्न ही होता है। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि जन्य द्रव्य की अवयव-परम्परा के चरम विभाग के बाद कुछ अवशिष्ट ही नहीं रहता है। अत: परमाणु की सत्ता सिद्ध नहीं होती है। क्योंकि विभाग के लिए विभाग के आधार कभी नष्ट नहीं होते हैं। निराश्रय विभाग तो अलीक हो जाएगा। अत: जिन दो में विभाग होता है, उन दोनों की सत्ता अवश्य होती है। न्यायभाष्यकार ने स्पष्ट कहा है कि विभाग से विभज्यमान द्रव्यों की हानि नहीं होती है- ‘विभागस्य विभज्यमानहानिर्नोपपद्यते’ (4/2/25।)


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  1. न्यायसूत्र 1.1.25
  2. न्यायसूत्र 1/1/31
  3. न्यायसूत्र 1/1/9।
  4. न्यायसूत्र 1.1.23
  5. प्रयोजनमनुद्दश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते।
  6. न्यायसूत्र 1.1.24
  7. न्यायसूत्र 1.1.25
  8. न्यायसूत्र 1/1/ 28-31 ।
  9. न्यायसूत्र 1/1/32 ।
  10. न्यायसूत्र 1।1।33।
  11. वही 1।1।34-35
  12. न्यायसूत्र 1।1।36-37
  13. न्यायसूत्र 1।1। 38
  14. न्यायसूत्र 1।1।39
  15. विष्णुधर्मोत्तरपुराण 3.5.5
  16. न्यायसूत्र 1।1।40।
  17. तार्किकरक्षा कारिका सं. 70
  18. तार्किकरक्षा का.सं. 71
  19. आरोप से भ्रमात्मक ज्ञान विवक्षित है। यह दो प्रकार का होता है आहार्य और अनाहार्य। आहार्य से कृत्रिम और अनाहार्य से स्वाभाविक अर्थ अभिप्रेत है। अतएव बाधाकालिक इच्छाजन्य ज्ञान को आहार्य कहा गया है। आहार्य भ्रम ही आरोप है।
  20. न्यायसूत्र 1।1।41 ।
  21. न्यायसूत्र 1।2।1।
  22. न्यायसूत्र 1।2।2।
  23. न्यायसूत्र 1।2।3।
  24. गीता '10/32
  25. न्यायसूत्र 1।2।4।
  26. न्यायसूत्र 1।2।5।
  27. न्यायसूत्र 1।2।6।
  28. न्यायसूत्र 1।2।6।
  29. वही 1।2।8।
  30. न्यायकुसुमाञ्जलि 3।7
  31. साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वम्।
  32. न्यायसूत्र 1।2।5।
  33. न्यायसूत्र 1।2।10।
  34. न्यायसूत्र 1/2/12/
  35. न्यायसूत्र 1/2/13/
  36. न्यायसूत्र 1.1.14/
  37. न्यायसूत्र 1/2/18
  38. न्यायसूत्र 5/1/1/
  39. न्यायसूत्र 1/2/19/
  40. न्यायसूत्र 5/2/1
  41. चकारेण समुच्चितं पृथगेव निग्रहस्थानम्।
  42. व्यसनेऽभ्युदये च बुद्धिमवस्थापयति। (कौटिलीय अर्थशास्त्र प्रारम्भिक भाग
  43. न्यायभाष्य 1/1/1 तथा कौटिलीय अर्थशास्त्र, विद्योद्देश प्रकरण
  44. पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्राङ्गमिश्रिता:। वेदा: स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश॥ (याज्ञ. स्मृ. 1/3
  45. सं. पं सूरृयनारायण शुक्ल, 1934 में बनारस से प्रकाशित
  46. न्यायमंजरी द्वितीय भाग पृ. 72 पंक्ति 15-16