नीरज की पाती -गोपालदास नीरज

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नीरज की पाती -गोपालदास नीरज
नीरज की पाती कविता संग्रह का आवरण पृष्ठ
कवि गोपालदास नीरज
मूल शीर्षक 'नीरज की पाती'
प्रकाशक 'आत्माराम एण्ड सन्स'
प्रकाशन तिथि 02 फरवरी, 2005
ISBN 81-7043-151-4
देश भारत
पृष्ठ: 80
भाषा हिन्दी
प्रकार कविता संग्रह
विशेष पुस्तक क्रम: 4024

हिन्दी गीति-काव्य का पर्याय बन चुके कवि नीरज बीसवीं शताब्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय और सम्मानित काव्य व्यक्तित्व हैं। अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशन समूहों द्वारा कराये गये सर्वेक्षणों के तथ्य इस बात को प्रमाणित करते हैं। भक्तिकालीन कवियों के बाद जनभाषा में मानवीय संवेदनाओं को ऐसी अभिव्यक्ति देनेवाला और जनसाधारण में इतना समादूत और स्वीकृत कोई अन्य कवि दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। निश्चित रूप से वे हिंदी जगत् में एक जीवित किंवदन्ती या कहें कि ‘लिविंग लीजेण्ड’ बन चुके हैं।

काँपती लो यह सियाही, यह धुँआ, यह काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
जिन्दगी वेद थी पर जिल्द बँधाने में कटी


इस प्रस्तुत संग्रह की पातियाँ समय-समय पर भिन्न-भिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं और वे पर्याप्त लोकप्रिय भी हुई हैं। नीरज के अनुसार -'इस संग्रह की कुछ पातियों में हिन्दी के मात्रिक छन्द के साथ साथ सर्वथा नवीन- मैंने उर्दू के एक छन्द का प्रयोग किया है। इस छन्द का वज़न हिन्दी के प्रचलित छन्दों के समान मात्राओं पर आधारित न होकर लय (बहर) पर निर्भर करता है, इसलिए शायद उर्दू छन्द योजना से सर्वथा अनभिज्ञ पाठकों को इसमें दोष दिखाई दें किन्तु ऐसी बात नहीं है। मुझे विश्वास है कि वे मेरे इस संग्रह को भी प्यार से अपनायेंगे जिस स्नेह से उन्होंने अभी तक प्रकाशित अन्य पुस्तकों को अपनाया है।'


1


आज की रात तुझे आख़िरी ख़त और लिख दूँ
कौन जाने यह दिया सुबह तक जले न जले ?
बम्ब बारुद के इस दौर में मालूम नहीं
ऐसी रंगीन हवा फिर कभी चले न चले।

जिन्दगी सिर्फ है खूराक टैंक तोपों की
और इन्सान है एक कारतूस गोली का
सभ्यता घूमती लाशों की इक नुमाइश है
और है रंग नया ख़ून नयी होली का।

कौन जाने कि तेरी नर्गिसी आँखों में कल
स्वप्न सोये कि किसी स्वप्न का मरण सोये
और शैतान तेरे रेशमी आँचल से लिपट
चाँद रोये कि किसी चाँद का कफ़न रोये।

कुछ नहीं ठीक है कल मौत की इस घाटी में
किस समय किसके सबेरे की शाम हो जाये
डोली तू द्वार सितारों के सजाये ही रहे
और ये बारात अँधेरे में कहीं खो जाये।

मुफलिसी भूख ग़रीबी से दबे देश का दु:ख
डर है कल मुझको कहीं खुद से न बागी कर दे
जुल्म की छाँह में दम तोड़ती साँसों का लहू
स्वर में मेरे न कहीं आग अँगारे भर दे।

चूड़ियाँ टूटी हुई नंगी सड़क की शायद
कल तेरे वास्ते कँगन न मुझे लाने दें
झुलसे बागों का धुआँ खाये हुए पात कुसुम
गोरे हाथों में न मेंहदी का रंग आने दें।

यह भी मुमकिन है कि कल उजड़े हुए गाँव गली
मुझको फुरसत ही न दें तेरे निकट आने की
तेरी मदहोश नजर की शराब पीने की।
और उलझी हुई अलकें तेरी सुलझाने की।

फिर अगर सूने पेड़ द्वार सिसकते आँगन
क्या करूँगा जो मेरे फ़र्ज को ललकार उठे ?
जाना होगा ही अगर अपने सफर से थककर
मेरी हमराह मेरे गीत को पुकार उठे।

इसलिए आज तुझे आखिरी खत और लिख दूँ
आज मैं आग के दरिया में उत्तर जाऊँगा
गोरी-गोरी सी तेरी सन्दली बाँहों की कसम
लौट आया तो तुझे चाँद नया लाऊँगा।


2


आज की रात बड़ी शोख बड़ी नटखट है
आज तो तेरे बिना नींद नहीं आयेगी
आज तो तेरे ही आने का यहाँ मौसम है
आज तबियत न ख़यालों से बहल पायेगी।

देख ! वह छत पै उतर आई है सावन की घटा,
खेल खिलाड़ी से रही आँख मिचौनी बिजली
दर पै हाथों में लिये बाँसरी बैठी है बाहर
और गाती है कहीं कोई कुयलिया कजली।

पीऊ पपीहे की, यह पुरवाई, यह बादल की गरज
ऐसे नस-नस में तेरी चाह जगा जाती है
जैसे पिंजरे में छटपटाते हुए पंछी को
अपनी आज़ाद उड़ानों की याद आती है।

जगमगाते हुए जुगनू-यह दिये आवारा
इस तरह रोते हुए नीम पै जल उठते हैं
जैसे बरसों से बुझी सूनी पड़ी आँखों में
ढीठ बचपन के कभी स्वप्न मचल उठते हैं।

और रिमझिम ये गुनहगार, यह पानी की फुहार
यूँ किये देती है गुमराह, वियोगी मन को
ज्यूँ किसी फूल की गोदी में पड़ी ओस की बूँद
जूठा कर देती है भौंरों के झुके चुम्बन को।

पार जमना के सिसकती हुई विरहा की लहर
चीरती आती है जो धार की गहराई को
ऐसा लगता है महकती हुई साँसों ने तेरी
छू दिया है किसी सोई हुई शहनाई को।

और दीवानी सी चम्पा की नशीली खुशबू
आ रही है जो छन-छन के घनी डालों से
जान पड़ता है किसी ढीठ झकोरे से लिपट
खेल आई है तेरे उलझे हुए बालों से !

अब तो आजा ओ कँबल-पात चरन, चन्द्र बदन
साँस हर मेरी अकेली हैं, दुकेली कर दे
सूने सपनों के गले डाल दे गोरी बाँहें
सर्द माथे पै जरा गर्म हथेली धर दे !

पर ठहर वे जो वहाँ लेटे हैं फुट-पाथों पर
सर पै पानी की हरेक बूँद को लेने के लिये
उगते सूरज की नयी आरती करने के लिये
और लेखों को नयी सुर्खियाँ देने के लिए।

और वह, झोपड़ी छत जिसकी स्वयं है आकाश
पास जिसके कि खुशी आते शर्म खाती है
गीले आँचल ही सुखाते जहाँ ढलती है धूप
छाते छप्पर ही जहाँ जिन्दगी सो जाती है।

पहले इन सबके लिए एक इमारत गढ़लूँ
फिर तेरी साँवली अलकों के सपन देखूँगा
पहले हर दीप के सर पर कोई साया कर दूँ
फिर तेरे भाल पे चन्दा की किरण देखूँगा।


3


शाम का वक्त है ढलते हुए सूरज की किरन
दूर उस बाग में लेती है बसेरा अपना
धुन्ध के बीच थके से शहर की आँखों में
आ रही रात है अँजनाती अँधेरा अपना !

ठीक छह दिन के लगातार इन्तजार के बाद
आज ही आई है ऐ दोस्त ! तुम्हारी पाती
आज ही मैंने जलाया है दिया कमरे में
आज ही द्वार से गुज़री है वह जोगिन गाती।

व्योम पे पहला सितारा अभी ही चमका है
धूप ने फूल की अँचल अभी ही छोड़ा है
बाग में सोयी हैं मुस्काके अभी ही कलियाँ
और अभी नाव का पतवार ने रुख मोड़ा है।

आग सुलगाई है चूल्हों ने अभी ही घर-घर
आरती गूँजी है मठ मन्दिरों शिवालों में
अभी हाँ पार्क में बोले हैं एक नेता जी,
और अभी बाँटा टिकिट है सिनेमा वालों ने !

चीखती जो रही कैंची की तरह से दिन-भर
मंडियों बीच अब बढ़ने लगी हैं दूकानें
हलचलें दिन को जहाँ जुल्म से टकराती रहीं
हाट मेले में अब होने लगे हैं वीराने।

बन्द दिन भर जो रहे सूम की मुट्ठी की तरह
खुल गये मील के फाटक हैं वो काले-काले
भरती जाती है सड़क स्याह-स्याह चेहरों से
शायद इनपे भी कभी चाँदनी नजर डाले।

वह बड़ी रोड नाम जिसका है अब गांधी मार्ग
हल हुआ करते हैं होटल में जहाँ सारे सवाल
मोटरों-रिक्शों बसों से है इस तरह बोझिल
जैसे मुफलिस की ग़रीबी पै कि रोटी का ख़याल

और बस्ती वह मूलगंज जहां कोठों पर
रात सोने को नहीं जागने को आती है
एक ही दिन में जहाँ रूप की अनमोल कली
ब्याह भी करती है और बेवा भी हो जाती है

चमचमाती हुई पानों की दुकानों पे वहाँ
इस समय एक है मेला सा ख़रीदारों का
एक बस्ती है बसी यह भी राम राज्य में दोस्त
एक यह भी है चमन वोट के बीमारों का।

बिकता है रोज यहीं पर सतीत्व सीता का
और कुन्ती का भी मातृत्व यहीं रोता है
भक्ति राधा की यहीं भागवत पे हँसती है।
राष्ट्र निर्माण का अवसान यहीं होता है !

आके इस ठौर ही झुकता है शीश भारत का
जाके इस जगह सुबह राह भूल जाती है
और मिलता है यहीं अर्थ ग़रीबी का हमें
भूख की भी यहीं तस्वीर नज़र आती है !

सोचता हूँ क्या यही स्वप्न था आज़ादी का ?
रावी तट पे क्या क़सम हमने यह खाई थी ?
क्या इसी वास्ते तड़पी थी भगतसिंह की लाश ?
दिल्ली बापू ने गरम ख़ून से नहलाई थी ?

अब लिखा जाता नहीं, गर्म हो गया है लहू
और कागज़ पे क़लम काँप काँप जाती है
रोशनी जितनी ही देता हूँ इन सवालों को
शाम उतनी ही और स्याह नज़र आती है

इसलिए सिर्फ रात भर के वास्ते दो विदा
कल को जागूँगा लबों पर तुम्हारा नाम लिये
वृद्ध दुनियाँ के लिये कोई नया सूर्य लिये
सूने हाथों के लिये कोई नया काम लिये !


4


आज है तेरा जनम दिन, तेरी फुलबगिया में
फूल एक और खिल गया है किसी माली का
आज की रात तेरी उम्र के कच्चे घर में
दीप एक और जलेगा किसी दीवाली का।

आज वह दिन है किसी चौक पुरे आँगन में
बोलने वाला खिलौना कोई जब आया था
आज वह वक्त है जब चाँद किसी पूनम का
एक शैतान शमादान से शरमाया था।

आज एक माँ की हृदय साध और तुलसी पूजा
बनके राधा किसी झूले में किलक उठी थी
आज एक बाप के कमज़ोर बुढ़ापे की शमा
एक गुड़िया की शरारत से भड़क उठी थी।

मेरी मुमताज अगर शाहजहाँ होता मैं
आज एक ताजमहल तेरे लिए बनवाता
सब सितारों को कलाई में तेरी जड़ देता
सब बहारों को तेरी गोद में बिखरा आता।

किन्तु मैं शाहजहाँ हूँ न सेठ साहूकार
एक शायर हूँ ग़रीबी ने जिसे पाला है
जिसकी खुशियों से न बन पाई कभी जीवन में
और जिसकी कि सुबह का भी गगन काला है।

काँपती लौ, यह सिपाही, यह धुआँ यह काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी,
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी वेद थी पर जिल्द बँधाने में कटी।

लाखों उम्मीद भरे चाँद गगन में चमके
मेरी रातों के मगर भाग्य में बादल ही रहे,
लाख रेशम की नक़ाबों ने लगाये मेले
मेरी गीतों की छिली देह पै वल्कल ही रहे।

आज सोचा था तुझे चाँद सितारे दूँगा।
हाथ में चन्दन लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं
राष्ट्र भाषा की है सेवा का पुरस्कार यही
ज़ख्मों पर मेरे तीरों के सिवा कुछ भी नहीं।

आज क्या दूँ मैं तुझे कुछ भी नहीं दे सकता
गीत हैं कुछ कि जो अब तक न कभी रुठे हैं
भेंट में तेरी इन्हें ही मैं भेजता हूँ तुझे
हीरे मोती तो दिखावे है कि सब झूठे हैं।

प्यार से स्नेह से होंठों पे बिठाना इनको
और जब रात घिरे याद इन्हें कर लेना
राह पर और भी काली जो कहीं हो कोई
हाथ जो इनके दिया है वह उसे दे देना।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


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