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तैत्तिरीयोपनिषद भृगुवल्ली अनुवाक-6

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  • इस बार तप करने के पश्चात् भृगु मुनि ने जाना कि 'आनन्द' ही 'ब्रह्म' है।
  • सब प्राणी इसी से उत्पन्न होते हैं, जीवित रहते हैं और मृत्यु होने पर इसी में समा जाते हैं।
  • इस बार वरुण ऋषि ने उसे बताया कि वे 'ब्रह्मज्ञान' से पूर्ण हो गये हैं।
  • जिस समय साधक 'ब्रह्म' के 'आनन्द-स्वरूप' को जान जाता है, उस समय वह प्रचुर अन्न, पाचन-शक्ति, प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस तथा महान् कीर्ति से समप्न्न होकर महान् कहलाता है।
  • ऋषि उन्हें बताते हैं कि श्रेष्ठतम 'ब्रह्मविद्या' किसी व्यक्ति-विशेष में स्थित नहीं है।
  • यह परम व्योम (आकाश) में स्थित है।
  • इसे साधना द्वारा ही जाना जा सकता है।
  • कोई भी साधक इसे जान सकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


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