जीण माता धाम

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जीण माता धाम
जीण माता

जीणमाता मंदिर एक प्राचीन जीणमाता शक्ति की देवी को समर्पित मंदिर है। जीणमाता का पूर्ण और वास्तविक नाम जयन्तीमाता है। माता दुर्गा की अवतार है। जीण माता धाम जीण माता का निवास है। यह चौहानों की कुल देवी है। ये भव्य धाम चरों तरफ़ से ऊँची ऊँची पहाडियों से घिरा हुआ है। बरसात या सावन के महीने में इन पहाडो की छटा देखाने लायक़ होती है।

कलयुग में शक्ति का अवतार माता जीण भवानी का भव्य धाम जयपुर से से लगभग 115 किलोमीटर दूर सीकर ज़िले (Sikar District) के सुरम्य अरावली पहाड़ियों (रेवासा पहाडियों) में स्थित है। जीण माता मंदिर सीकर से लगभग 15 कि.मी. दूर दक्षिण में जयपुर बीकानेर राजमार्ग पर गोरियां रेलवे स्टेशन से 15 कि.मी. पश्चिम व दक्षिण के मध्य खोस नामक गाँव के पास स्थित है। (राष्ट्रिये राजमार्ग 11 से ये लगभग 10 किलोमीटर की दुरी पर) 17 कि.मी. लम्बा यह मार्ग पहले अत्यंत दुर्गम व रेतीला था किन्तु विकास के दौर में आज यह काफ़ी सुगम हो गया है। सकरा व जीर्ण शीर्ण मार्ग चोडा व काफ़ी हद चिकना हो चुका है। रानोली से माता के दर्शन के लिए अच्छी सड़क बनाई गयी है। यानी की गौरियाँ (यहाँ से सीधी रोड आती है) या रानोली (यहाँ से कोछौर देकर आना पड़ता है) स्टैंड द्वारा यहाँ पहुंचा जा सकता है।

जीण माता मन्दिर

जीण माता (Jeen Mata) के बारे में अभी तक कोई पुख्ता जानकारी मौजूद नहीं है फिर भी कहते है की माता का मन्दिर कम से कम 1000 साल पुराना है। जीणमाता मंदिर घने जंगल से घिरा हुआ है। यह मंदिर तीन छोटी पहाडों के संगम में 20 - 25 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। जीण माता मंदिर के ऊपर 17 कि.मी. सीधी चढ़ाई बाले हर्ष पर्वत पर स्थित 10वी शताब्दी का यह मंदिर, अनेक लोक श्रुतियों का जन्म दाता है। ओरंगजेब द्वारा किये गए विध्वंस के चिन्ह आज भी दूर दूर तक बिखरे हुए हैं। प्रस्तर पर उकेरे अनुपम पौराणिक आख्यान, अदभुत पुरातात्विक कलाकृतियाँ - जिसमें ना जाने कितने कलाकारों का अमूल्य परिश्रम लगा होगा - आज धूल धूसरित खंडित जहां तहां बिखरे पड़े हैं। पुराने शिव मंदिर के स्थान पर नवीन मंदिर निर्माण हो चुका है, किन्तु खंडित ध्वंसावशेष बता रहे हैं कि पुराने मंदिर से उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। संगमरमर का विशाल शिव लिंग तथा नंदी प्रतिमा आकर्षक है। पराशर ब्राह्मण वंश परंपरा से उनकी सेवा पूजा में नियुक्त हैं। पास ही हर्षनाथ का मंदिर है जहां चामुंडा देवी तथा भैरव नाथ के साथ उनकी दिव्य प्रतिमाये स्थित हैं। सेकड़ों के तादाद में काले मुंह के लंगूर मंदिर पर चढ़ाए जाने वाले प्रसाद के पहले अधिकारी हैं।

जीण माता मन्दिर

माता का निज मंदिर दक्षिण मुखी है परन्तु मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व में है। मंदिर से एक फर्लांग दूर ही सड़क के एक छोर पर जीणमाता बस स्टैंड है। सड़क के दोनों और मंदिर से लेकर बस स्टैंड तक श्रद्धालुओं के रुकने व आराम करने के लिए भारी तादात में तिबारे (बरामदे) व बिना दरवाजों की अनेकों धर्मशालाएं बनी हुई है, जिनमे ठहरने का कोई शुल्क नहीं लिया जाता। मंदिर प्रवंध समिति की आधुनिक सुख सुविधायुक्त धर्मशालाएं भी यात्रियों के लिए हैं - जो नाम मात्र के शुल्क पर उपलव्ध हैं। कुछ और भी पूर्ण सुविधाओं युक्त धर्मशालाएं है जिनमे उचित शुल्क देकर ठहरा जा सकता है। बस स्टैंड के आगे ओरण (अरण्य) शुरू हो जाता है इसी अरण्य के मध्य से ही आवागमन होता है।

जीण माँ भगवती की यह बहुत प्राचीन शक्ति पीठ है, जिसका निर्माणकार्य बड़ा सुंदर और सुद्रढ़ है। मंदिर की दीवारों पर तांत्रिको व वाममार्गियों की मूर्तियाँ लगी है जिससे यह भी सिद्ध होता है कि उक्त सिद्धांत के मतावलंबियों का इस मंदिर पर कभी अधिकार रहा है या उनकी यह साधना स्थली रही है। मंदिर के देवायतन का द्वार सभा मंडप में पश्चिम की और है और यहाँ जीण माँ भगवती की अष्टभुजी आदमकद मूर्ति प्रतिष्ठापित है। सभा मंडप पहाड़ के नीचे मंदिर में ही एक और मंदिर है जिसे गुफा कहा जाता है जहाँ जगदेव पंवार का पीतल का सिर और कंकाली माता की मूर्ति है। मंदिर के पश्चिम में महात्मा का तप स्थान है जो धुणा के नाम से प्रसिद्ध है। जीण माता मंदिर के पहाड़ की श्रंखला में ही रेवासा व प्रसिद्ध हर्षनाथ पर्वत है। हर्षनाथ पर्वत पर आजकल हवा से बिजली उत्पन्न करने वाले बड़े-बड़े पंखे लगे है।

जीण माता का परिचय

लोक काव्यों व गीतों व कथाओं में जीण का परिचय मिलता है। लोक कथाओं के अनुसार जीण माता का जन्म अवतार राजस्थान के चुरू ज़िले के घांघू गांव के अधिपति एक चौहान वंश के राजा घंघ के घर में हुआ था। जीण माता के एक बड़े भाई का नाम हर्ष था। माता जीण को शक्ति का अवतार माना गया है और हर्ष को भगवन शिव का अवतार माना गया है।

जीण माता
जीण माता की अमर कथा

प्राचीन काल में राजस्थान में घांघू नाम की विरासत को राजा घांघू सिंह ने वि० सं० 150 के लगभग बसाया था। जो अब चूरू ज़िले के पास है। घांघू सिंह प्रजापालक व दयालु थे। परन्तु वे निःसन्तान के कारण उदास रहते थे। एक दिन राजा शिकार के लिए घूमते हुए अरावली पर्वतमाला के घने जंगलों को पार कर दो-तीन पहाड़ियों के मध्य पहुंच गए। वहां पर राजा को कुछ दूरी पर एक मन्दिर दिखाई पड़ा। वो स्थान जयन्ती महाभ्ज्ञागा सिद्ध पीठ था। इस स्थान का वर्णन प्राचीन ग्रन्थों में बहुत मिलता है। शिव पुराण में भी इका वर्णन 52 शक्ति पीठों में है। पाण्डवों ने अज्ञातवास के दौरान कुछ समय यहाँ बिताया था। राजा ने वहाँ पर एक पवित्र जल के कुण्ड के पास एक साधू को तपस्या करते हुए देखा। वहाँ पर कई प्रकार के झाड झंझाड उगे हुए थे। राजा ने उस जगह को अच्छी तरह साफ़ किया और तपस्या में लीन महात्मा जी की सेवा करने लगे। एक दिन महात्मा जी तपस्या से ध्यान मुक्त हुए। उन्होंने देखा की वहाँ अच्छी सफाई की हुई है और एक व्यक्ति शिवलिंग धोने में व्यस्त है। राजा भी उठकर आए और साधू के चरणों में प्रणाम कर अपना परिचय दिया। महात्मा ने राजा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक पुत्र और पुत्री प्राप्ति का वरदान दिया। जब इस बात का पता देवताओं को लगा कि शक्ति पीठ के आसन पर बैठे हुए साधू ने राजा को संतान प्राप्ति का वरदान दिया है। जयन्ती महाभ्ज्ञाग शक्ति पीठ के स्थान से मिले वरदान से कोई साधारण संतान प्राप्त नहीं होती। इसलिए देवताओं ने सोचा कि राजा का विवाह किसी दैवीय शक्ति से हो जो दैवीय संतान को जन्म दे सके। जब राजा शक्ति पीठ से अपनी राजधानी वापस लौटने लगे तो इसी पर्वतमाला में स्थित शाकम्बरी पीठ पहुँच गए। वहाँ एक कुण्ड में एक स्त्री को डूबते हुए देखा। राजा उसे पकड़कर बाहर निकाल लाए। राजा ने उसका परिचय पूछा। स्त्री ने बताया कि मैं अप्सरा हूँ मैं यहाँ स्नान करने के लिए आती हूँ। राजा ने उससे अपने विवाह का प्रस्ताव रखा। जब अप्सरा ने कहा मैं आपसे विवाक एक वचन देने पर ही कर सकती हूँ कि आप जब भी मेरे महल में आओ तो पहले सूचना देकर फिर आना। अगर आपने वचन तोड दिया तो मैं वापस चली जाऊँगी। राजा ने अप्सरा को वचन दे दिया और राजधानी पहुँच कर राजा ने अप्सरा के साथ विधिवत विवाह कर लिया। कुछ समयोपरान्त अप्सरा के गर्भ से पुत्र ने जन्म लिया। चारों ओर हषोल्लास ही दिखाई दे रहा था। इसलिए राजा ने पुत्र का नाम हर्ष रखा। हर्ष के बाद राजा के महल में एक कन्या ने जन्म लिया और राजा को मिले दोनों वरदान पूरे हो गए। राजा ने रानी से कन्या के नाम रखने के बारे में पूछा तो रानी ने कहा कि महाराज मैं और इस कन्या प्राप्ति का वरदान आपको एकान्त जगह में मिला है अतः इसका जीण रखेंगे। जीण का अर्थ है - एकान्त, शून्य, जंगल आदि।

एक दिन राजा बिना किसी सूचना के रानी के महल में प्रवेश कर गए। राजा ने अन्दर जाकर देखा कि रानी शेर पर बैठी है और आस-पास बच्चे खेल रहे हैं। यह देखकर वो चकित हो गए। अप्सरा ने कहा महाराज आपने वचन तोड़ दिया है। इसलिए मैं आज वापिस जा रही हूँ। इतना कहकर अप्सरा आलोप हो गई। राजा बहुत दुखी हुए। रानी के दुःख में राजा बीमार पड गए और अपनी मृत्यु को समीप देखते हुए हर्ष की छोटी ही उम्र में शादी कर दी और हर्ष द्वारा अपने पिता को जीण को सदा खुश रखने की सान्त्वना देने के बाद हर्ष के पिता का देहान्त हो गया।

कुछ समय पश्चात्‌ हर्ष की पत्नी आने के बाद हर्ष-जीण का प्यार कम नहीं हुआ। जीण भाई-भाभी सभी की लाडली बनी हुई थी। लेकिन विधि के विधानों को कोई नहीं टाल सकता। देवताओं ने सोचा जिस उद्देश्य से जीण व हर्ष ने धरती पर अवतार लिया था वो उद्देश्य पूरा हो। अब जीण व हर्ष के प्रेम को देखकर पड़ौसी जलने लगे।

राज कुमारी जीण बाई को संदेह मात्र हुआ की उनके भाई हर्ष नाथ उनसे अधिक उनकी भाभी को प्रेम करने लगे हैं। एक दिन जीण और उसकी भाभी (भावज) सरोवर पर पानी लेने गई जहाँ दोनों के मध्य किसी बात को लेकर तकरार हो गई। उनके साथ गांव की अन्य सखी सहेलियां भी थी। अन्ततः दोनों के मध्य यह शर्त रही कि दोनों पानी के मटके घर ले चलते है जिसका मटका हर्ष पहले उतारेगा उसके प्रति ही हर्ष का अधिक स्नेह समझा जायेगा। हर्ष इस विवाद से अनभिज्ञ था। दोनों पानी लेकर जब घर आई तो दैव योग से हर्ष ने पहले मटका अपनी पत्नी का उतार दिया। जीण सर पर घड़ा लिए खड़ी रही। शर्त हार जाने पर इससे जीण को आत्मग्लानि व हार्दिक ठेस लगी। वही अनबन दोनों भाई ओर बहन के प्रेम में जहर घोल दिया। भाई के प्रेम में अभाव जान कर जीण के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह घर से निकल पड़ी।

(इतना अधिक प्रेम देखकर जीण की भाभी जीण को संदेह से देखने लगी और समय मिलने पर ताने कसने लगी। एक दिन हर्ष बाहर गया हुआ थे पीछे से उसकी पत्नी व जीण के बीच कहा सुनी हो गई। हर्ष की पत्नी बोली तू मेरी सौत बनी बैठी है। यह वाक्य सुनकर जीण रोने लगी जिसे वह माँ समान मानती थी वही भाभी किस तरह की बातें कर रही है। जीण के मन में वैराग्य की भावना घर कर गई। जीण अपने पिता की विरासत को छोड कर जंगल में निकल गई।) //

जीण माता धाम

देवताओं ने जीण को उसी स्थान पर जाने के लिए बाध्य कर दिया जिस स्थान पर राजा को संतान प्राप्ति का वरदान मिला था क्योंकि जयन्ती शक्ति पीठ ही जीण की कुल देवी थी। (जीण ने घर से निकलने के बाद पीछे मुड़कर ही नहीं देखा और अरावली पर्वतमाला के इस पहाड़ के एक शिखर जिसे "काजल शिखर" के नाम से जाना जाता है पहुँच कर तपस्या करने लगी।) जब भाई हर्ष को कर्तव्य बोध हुआ तो वो जीण को मनाकर वापस लाने के लिए उसके पीछे शक्ति पीठ पर आ पहुँचा। हर्ष अपनी भूल स्वीकार कर क्षमा चाही और वापस साथ चलने का आग्रह किया जिसे जीण ने स्वीकार नहीं किया। और अपने प्रण पर अटल थी। जीण के दृढ निश्चय से प्रेरित हो हर्षनाथ का मन बहुत उदास हो गया और घर नहीं लौटा और उन्हें ज्ञान हुआ कि इस धरती पर अवतार लेने का उद्देश्य अब पूरा करना है। अन्त में दृढ़ संकल्प के साथ जीण ने जयन्ती माता के मन्दिर में पहुँचकर काजल शिखर पर बैठकर भगवती आदि शक्ति (नव-दुर्गा) की घोर आराधना की। (वे भी वहां से कुछ दूर जाकर दूसरे पहाड़ की चोटी पर भैरव की साधना में तल्लीन हो गया। पहाड़ की यह चोटी बाद में हर्ष नाथ पहाड़ के नाम से प्रसिद्ध हुई।) तब भगवती ने वरदान दिया कि आज से मैं इस स्थान पर जीण नाम से पूजा ग्रहण करूंगी। उधर हर्षनाथ ने हर्ष शिखर पर बैठकर भैरूजी की तपस्या कर स्वयं भैरू की मूर्ति में विलीन होकर हर्षनाथ भैरव बन गए। जीण आजीवन ब्रह्मचारिणी रही और तपस्या के बल पर देवी बन गई। इस प्रकार जीण और हर्ष अपनी कठोर साधना व तप के बल पर देवत्व प्राप्त कर लिया। आज भी दोनों भाई बहनों के नाम को श्रद्धा और विश्वास से पूजा जा रहा है।

इनकी ख्याति दूर-दूर तक फ़ैल हैं और आज लाखों श्रद्धालु इनकी पूजा अर्चना करने देश के कोने कोने से पहुँचते हैं। यह बड वों की बहियों, खयातों, लोकमतों, शिलालेखों, वंशावासियों और पुजारियों से सुनी बातें हैं जो प्रक्षिप्त सिद्ध होती हैं। पुराने तथ्यों एवं आज के तथ्यों में समय उपरान्त तोड -मोड हो जाना स्वभाविक है, पर जो कुछ भी हो जीण माता एक विखयात देवी शक्ति है, जो सदियों से लेकर आज तक लगातार आराध्य देवी के रूप में पूजी जाती हैं। दोनों भाई बहन के बीच हुई बातचीत का सुलभ वर्णन आज भी राजस्थान के लोक गीतों में मिलता है। हर्षदेव व जीण माता का अनुपम आख्यान भाई बहिन के दैवीय प्रेम का अनुपम उदाहरण है। लौकिक मोह किस प्रकार पारलौकिक स्वरूप धारण कर पूजनीय हो गया, यह कथा प्रदर्शित करती है।

जीण माता मंदिर में नवरात्रि मेला

जीण माता मंदिर में हर वर्ष चैत्र सुदी एकम् से नवमी (नवरात्रा में) व आसोज सुदी एकम् से नवमी में दो विशाल मेले लगते है जिनमे देश भर से लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते है। भक्तों की मण्डली द्विवार्षिक नवरात्रि समारोह (हर साल चैत्र और अश्विन/आसोज माह में शुक्ल पक्ष की नवरात्रि मेले के समय) के दौरान एक बहुत रंगीन नज़र हो जाती है।

जीणमाता मेले के अवसर पर राजस्थान के बाह्य अंचल से भी अनेक लोग आते हैं। मन्दिर के बाहर, मेले के अवसर पर सपेरे मस्त होकर बीन बजाते हैं। राजस्थान के सुदुर अंचल से आये बालकों का झडूला (केश मुण्डाना) उत्तरवाते हैं रात्रि जागरण करते हैं और अपनी सामर्थ्यानुसार सवामणी, छत्रचंवर, झारी, नौबत, कलश, आदि भेंट करते हैं। मन्दिर में बारह मास अखण्डदीप जलता रहता है।

राजस्थानी लोक साहित्य में जीणमाता

राजस्थानी लोक साहित्य में जीणमाता का गीत सबसे लम्बा है। इस गीत को कनफटे जोगी केसरिया कपड़े पहन कर, माथे पर सिन्दूर लगाकर, डमरू एवं सारंगी पर गाते हैं। यह गीत करुण रस से ओतप्रोत है।

मेले के अवसर पर ग्राम बधुएँ गाती हैं :-

माता रे थान में, चिरविट नाड़ो बीड़लो.
सुपरा के बीड़ल म्हारी, जीण माता बस रही.
माताँ रे थान में चावल रो बीहलो,
सेर घुडक, नार री असवारी.
म्हारी जीण माता बस रही.
जे कोई जीणमाताजी नै ध्यावै, सदा सुखपावै.
मनसा होवै पूरी, म्हारी जीणमाता री आसीस सूं.

एक अन्य लोकगीत में जीणमाता का अत्यन्त मर्म स्पर्शी प्रसंग मिलता है, जो भाई बहिन के पवित्र प्रेम का प्रतीक बना हुआ है। यह गीत राजस्थानी लोक साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है। साहित्यिक दृष्टि से भी इस गीत को अत्यन्त उच्च कोटि का माना गया है। अनेक विद्वान् इसे राजस्थान का सर्वश्रेष्ठ गीत मानते हैं। इस गीत में जीण-~माता के आत्म सम्मान व बहिन के प्रति भ्रातृप्रेम का जीवित आदर्श देखा जा सकता है।

जीण माता और औरंगज़ेब

एक जनश्रुति के अनुसार देवी जीण माता ने सबसे बड़ा चमत्कार मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब को दिखाया था। बुरडक गोत्र के बडवा श्री भवानीसिंह राव के अभिलेखों में जीण माता के सम्बन्ध में यह विवरण उपलब्ध है कि दिल्ली के बादशाह औरंगज़ेब ने शेखावाटी के मंदिरों को तोड़ने के लिए एक विशाल सेना भेजी थी। यह सेना हर्ष पर्वत पर शिव व हर्षनाथ भैरव का मंदिर खंडित कर जीण मंदिर को खंडित करने आगे बढ़ी। उस समय हर्ष के मंदिर की पूजा गूजर लोग तथा जीणमाता के मंदिर की पूजा तिगाला जाट करते थे। कहते हैं कि हमले के तुरन्त बाद जीणमाता की मक्खियों (भंवरों) ने बादशाह की सेना पर हमला बोल दिया। मक्खियों ने बादशाह की सेना का पीछा दिल्ली तक किया और सेना को बहुत नुकसान पहुँचाया। मधुमखियों के दंशों से बेहाल पूरी सेना घोड़े आदि और मैदान छोड़कर भाग गई।

तब औरंगज़ेब ने हारकर जब हर्ष और जीणमाता के चरणों में शीश नवाया व क्षमा याचना की। तब जाकर कहीं उसका पीछा छूटा। माता की शक्ति को जानकर उसने वहां पे भंवरो की रानी के नाम से शुद्ध खालिस सोने की बनी मूर्ति भेंट की और मंदिर के लिये सवामण तेल और सवामण बाकला हर साल भेजने का वादा किया। औरंगज़ेब ने सवामन तेल का दीपक अखंड ज्योति के रूप में मंदिर में स्थापित किया और आज शताब्दियों के बाद भी वो अखंड ज्योत प्रज्वलित हो रही है। आज भी माता सभी दुखी लोगो के दुःख हरती है ओर उनको सुख देती है।

जीणमाता के भाट हरफ़ूल तिगाला जाट को गाँव गोठडा तागालान की 18000 बीघा ज़मीन की जागीर बक्शी। इसलिए इस गाँव का नाम गोठडा तागालान कहलाता है। यह जागीर उनके पास 105 साल रही तत्पश्चात् संवत 1837 में यह कासली के नवाब के साथ फतेहपुर के अधीन हुआ। बाद में यह जागीर शेखावतों के पास आई। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बुरडक गोत्र के आदि पुरुष नानकजी ने संवत 1351 (1294 AD) में बैसाख सुदी आखा तीज रविवार के दिन गोठडा गाँव बसाया था।

जीण माता के लिए तेल कई वर्षो तक दिल्ली से आता रहा फिर दिल्ली के बजाय जयपुर से आने लगा। बाद में जयपुर महाराजा ने इस तेल को मासिक के बजाय वर्ष में दो बार नवरात्रों के समय भिजवाना आरम्भ कर दिया। और महाराजा मानसिंह के समय उनके गृह मंत्री राजा हरीसिंह अचरोल ने बाद में तेल के स्थान पर नगद 20 रु. 3 आने प्रतिमाह कर दिए। जो निरंतर प्राप्त होते रहे। (पहले शासन व्यवस्था करता था, आज भक्तो के द्वारा सुव्यवस्था है।) औरंगज़ेब को चमत्कार दिखाने के बाद जीण माता "भौरों की देवी" भी कही जाने लगी। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार औरंगज़ेब को कुष्ठ रोग हो गया था अतः उसने कुष्ठ निवारण हो जाने पर माँ जीण के मंदिर में एक स्वर्ण छत्र चढाना बोला था। जो आज भी मंदिर में विद्यमान है।

  • शेखावाटी के मंदिरों को खंडित करने के लिए मुग़ल सेनाएं कई बार आई जिसने खाटू श्याम, हर्षनाथ, खंडेला के मंदिर आदि खंडित किए। एक कवि ने इस पर यह दोहा रचा :-

देवी सजगी डूंगरा , भैरव भाखर माय ।
खाटू हालो श्यामजी , पड्यो दडा-दड खाय ।।

मंदिर की प्राचीनता का इतिहास

जीण माता मंदिर का निर्माण काल कई इतिहासकार आठवीं सदी में मानते है। मंदिर में अलग-अलग आठ शिलालेख लगे है जो मंदिर की प्राचीनता के सबल प्रमाण है।

  1. संवत 1029 यह महाराजा खेमराज की मृत्यु का सूचक है।
  2. संवत 1132 जिसमे मोहिल के पुत्र हन्ड द्वारा मंदिर निर्माण का उल्लेख है।
  3. संवत् 1162 विक्रम वर्ष 1162 का एक शिलालेख (1105 ई.), शेखावाटी में जीणमाता मंदिर सभामंदप की एक स्तंभ पर उत्कीर्ण है, कॉल मैं प्रिथ्विराजा परमभात्तारका महाराजधिराजा - परमेश्वर, जिससे उसकी महान् शक्ति का एक शासक के रूप में स्वतंत्र स्थिति दिखा।
  4. संवत 1196 महाराजा आर्णोराज के समय के दो शिलालेख।
  5. संवत 1230 इसमें उदयराज के पुत्र अल्हण द्वारा सभा मंडप बनाने का उल्लेख है।
  6. संवत 1382 जिसमे ठाकुर देयती के पुत्र श्री विच्छा द्वारा मंदिर के जीर्णोद्दार का उल्लेख है।
  7. संवत 1520 में ठाकुर ईसरदास का उल्लेख है।
  8. संवत 1535 को मंदिर के जीर्णोद्दार का उल्लेख है।

उपरोक्त शिलालेखों में सबसे पुराना शिलालेख संवत 1029 (972 AD) का है पर उसमे मंदिर के निर्माण का समय नहीं लिखा गया अतः यह मंदिर उससे भी अधिक प्राचीन है। चौहान चन्द्रिका नामक पुस्तक में इस मंदिर का 9 वीं शताब्दी से पूर्व के आधार मिलते है।

बुरडक गोत्र के अभिलेखों में जीण माता

चौहान वंश से निकले बुरडक गोत्र के बडवा श्री भवानीसिंह राव के अभिलेखों में जीण माता के सम्बन्ध में कुछ ऐतिहासिक तथ्य मिलते हैं जो निम्नानुसार हैं :-

चौहान राजा रतनसेण के बिरमराव पुत्र हुए। बिरमराव ने अजमेर से ददरेवा आकर राज किया। संवत 1078 (1021 AD) में किला बनाया। इनके अधीन 384 गाँव थे। बिरमराव की शादी वीरभाण की बेटी जसमादेवी गढ़वाल के साथ हुई। इनसे तीन पुत्र उत्पन्न हुए :-

1. सांवत सिंह - सांवत सिंह के पुत्र मेल सिंह, उनके पुत्र राजा धंध, उनके पुत्र इंदरचंद तथा उनके पुत्र हरकरण हुए। इनके पुत्र हर्ष तथा पुत्री जीण उत्पन्न हुयी। जीणमाता कुल देवी संवत 990 (933 AD) में प्रकट हुयी।

2. सबल सिंह - सबलसिंह के बेटे आलणसिंह और बालणसिंह हुए। सबलसिंह ने जैतारण का किला संवत 938 (881 AD) में आसोज बदी 10 को फ़तेह किया। इनके अधीन 240 गाँव थे।

3. अचल सिंह -

सबलसिंह के बेटे आलणसिंह के पुत्र राव बुरडकदेव, बाग़देव, तथा बिरमदेव पैदा हुए। आलणसिंह ने संवत 979 (922 AD) में मथुरा में मंदिर बनाया तथा सोने का छत्र चढ़ाया।

ददरेवा के राव बुरडकदेव के तीन बेटे समुद्रपाल, दरपाल तथा विजयपाल हुए।

राव बुरडकदेव (b. - d.1000 AD) महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों के विरुद्ध राजा जयपाल की मदद के लिए लाहोर गए। वहां लड़ाई में संवत 1057 (1000 AD) को वे जुझार हुए। इनकी पत्नी तेजल शेकवाल ददरेवा में तालाब के पाल पर संवत 1058 (1001 AD) में सती हुई। राव बुरडकदेव से बुरडक गोत्र निकला।

राव बुरडकदेव के बड़े पुत्र समुद्रपाल के 2 पुत्र नरपाल एवं कुसुमपाल हुए। समुद्रपाल राजा जयपाल के पुत्र आनंदपाल की मदद के लिए 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) गए और वहां पर जुझार हुए। संवत 1067 (1010 AD) में इनकी पत्नी पुन्यानी साम्भर में सती हुई।

बुरडक गोत्र के बडवा श्री भवानीसिंह राव के उपरोक्त अभिलेखों की पुष्टि ऐतिहासिक तथ्यों से होती है।

मंदिर के पश्चिम में जीण वास नामक गांव है जहाँ इस मंदिर के पुजारी व बुनकर रहते है। यह गाँव बुरड़कों द्वारा बसाया गया था।

जीण माता मंदिर से कुछ ही दूर रलावता ग्राम के नजदीक खूड के गांव मोहनपुरा की सीमा में शेखावत वंश प्रवर्तक रावशेखा का स्मारक स्वरूप छतरी बनी हुई है। राव शेखा ने गौड़ क्षत्रियों के साथ युद्ध करते हुए यहीं शरीर त्याग कर वीरगति प्राप्त की थी।

श्री जीण धाम की मर्यादा व पूजा विधि

॥ जय जीण भवानी की जय॥

  1. जीण माता मन्दिर स्थित पुरी सम्प्रदाय की गद्‌दी (धुणा) की पूजा पाठ केवल पुरी सम्प्रदाय के साधुओं द्वारा ही किया जाता है।
  2. जो पुजारी जीण माता की पूजा करते हैं, वो पाराशर ब्राह्मण हैं।
  3. जीण माता मन्दिर पुजारियों के लगभग 100 परिवार हैं जिनका बारी-बारी से पूजा का नम्बर आता है।
  4. पुजारियों का उपन्यन संस्कार होने के बाद विधि विधान से ही पूजा के लिये तैयार किया जाता है।
  5. पूजा समय के दौरान पुजारी को पूर्ण ब्रह्मचार्य का पालन करना होता है व उसका घर जाना पूर्णतया निषेध होता है।
  6. जीण माता मन्दिर में चढ़ी हुई वस्तु (कपड़ो, जेवर) का प्रयोग पुजारियों की बहन-बेटियां ही कर सकती हैं। उनकी पत्नियों के लिए निषेध होता है।
  7. जीण भवानी की सुबह 4 बजे मंगला आरती होती है। आठ बजे श्रृंगार के बाद आरती होती है व सायं सात बजे आरती होती है। दोनों आरतियों के बाद भोग (चावल) का वितरण होता है।
  8. माता के मन्दिर में प्रत्येक दिन आरती समयानुसार होती है। चन्द्रग्रहण और सूर्य ग्रहण के समय भी आरती अपने समय पर होती है।
  9. हर महीने शुक्ल पक्ष की अष्टमी को विशेष आरती व प्रसाद का वितरण होता है।
  10. माता के मन्दिर के गर्भ गृह के द्वार (दरवाज़े) 24 घंटे खुले रहते हैं। केवल श्रृंगार के समय पर्दा लगाया जाता है।
  11. हर वर्ष शरद पूर्णिमा को मन्दिर में विशेष उत्सव मनाया जाता है, जिसमें पुजारियों की बारी बदल जाती है।
  12. हर वर्ष भाद्रपक्ष महीने में शुक्ल पक्ष में श्री मद्‌देवी भागवत का पाठ व महायज्ञ होता है।
  13. जीण धाम स्थित पहाड़ो व नदी की बजरी आदि का व्यावसायिक प्रयोग होता है।

॥ आदि शक्ति श्री जीण भवानी की जय॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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