जनपद

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वैदिक युग में जन की सत्ता प्रधान थी। एक ही पूर्वज की वंश परंपरा में उत्पन्न कुल लोगों का समुदाय जन कहलाता था। शनै: शनै: जन का अनियत वास समाप्त होने लगा था और जन एक-एक स्थान में बद्धमूल हो गए थे। ऐसे प्रदेश या स्थान जनपद कहलाए।[1]

पाणिनि ने अनेक जनपदों का उल्लेख किया है। भौगोलिक दृष्टि से उनके नाम और पहचान अलग-अलग थीं, किंतु जनपद भौगोलिक इकाई मात्र न थी। उसका सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक स्वरूप अधिक महत्वपूर्ण था। लगभग एक सहस्त्र ईस्वी पूर्व से लेकर पाणिनि के समय तक का काल जनपदों के विकास और अभ्युदय का युग था। इसीलिए भारतीय इतिहास में यह ‘महाजनपद युग’ कहा जाता है।

पाणिनि ने अपने समय में जिन संस्थाओं का वर्णन किया, उनमें जनपद, चरण और गोत्र- इन तीनों का बहुत महत्व था। सामाजिक जीवन में गोत्र, शिक्षा के क्षेत्र में चरण और राजनीतिक जीवन में जनपद, इन तीनों संस्थाओं की बहुमुखी प्रवृत्तियां थीं और व्यक्ति के जीवन का अंश एक घनिष्ठ संबंध था। इन तीनों संस्थाओं के विषय में 'अष्टाध्यायी' में पर्याप्त विवरण मिलते हैं। वैदिक संस्था में और शाखा ग्रंथों में जनपद शब्द का उल्लेख नहीं मिलता। 'शतपथ ब्राह्मण' और 'ऐतरेय ब्राह्मण' के अंतिम अध्याय में एक-एक बार यह शब्द आता है; किंतु गृह्यसूत्र, पाणिनि और महाभारत में जनपद संस्था का पूर्ण विकास हो गया था।

राजाधीन और गणाधीन दो प्रकार के जनपद थे। एक जनपद के निवासी एक ही भाषा या बोली बोलते थे। उनमें पारस्परिक भातृ भाव का संबंध एवं समान देवताओं की मान्यता थी। एक जनपद के लोग परस्पर सजनपद[2] कहे जाते थे। प्रत्येक व्यक्ति का एक अभिधान उसके जनपद के अनुसार ही पड़ता था, जैसे- अंग जनपद का निवासी आंगक कहलाता था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पाणिनीकालीन भारत |लेखक: वासुदेवशरण अग्रवाल |प्रकाशक: चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1 |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 103-104 |
  2. 6/3/ 85=समान जनपद के निवासी

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