गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-7

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गीता-प्रबंध
1.गीता से हमारी आवश्यकता और मांग

गीता तर्क की लड़ाई का हथियार नहीं है; वह महाद्वार है जिससे समस्त आध्यात्मिक सत्य और अनुभूति के जगत् की झांकी मिलती है और इस झांकी में उस परम दिव्य धाम के सभी ठाम यथास्थान दीख पड़ते हैं। गीता में इन स्थानों का विभाग या वर्गीकरण तो है, पर कहीं भी एक स्थान दूसरे स्थान से विच्छित्र नहीं है न किसी चहारदीवारी या बड़े से घिरा है कि हमारी दृष्टि आर-पार कुछ न देख सके। भारतीय तत्वाज्ञान के वृहद् इतिहास में और भी अनेक समन्वय हुए हैं। सबसे पहले वैदिक समन्वय देखिये। वेद में मनुष्य का मनोमय पुरुष दिव्य पुरुष दिव्य ज्ञान, शक्ति, आनंद, जीवन और महिमा में ऊंची-से-ऊंची उड़ान लेता हुआ और विशालतम क्षेत्रों में विहार करता हुआ देवताओं की विश्वव्यापी स्थिति के साथ समन्वित हुआ है, इन देवताओं को उसने जड़ प्राकृतिक जगत् के प्रतीकों को अनुसरण करते हुए उन श्रेष्ठतम लोकों में पाया है जो भौतिक इंद्रियों और स्थूल मन-बुद्धि से छिपे हुए हैं। इस समन्वय की चरत शोभा वैदिक ऋषियों के के उस अनुभव में है जिसमें मे वे उस देवाधिदेव का, उस परात्पर पुरुष का, उस आंनदमय का साक्षात्कार करते हैं जिसकी एकता में मनुष्य की विकसित होती हुई आत्मा तथा विश्वव्यापी देवताओं की पूर्णता पूर्णतया मिलते और एक-दूसर को चरितार्थ करते हैं।
उपनिषदें पूर्व ऋषियों की इस चरम अनुभूति को ग्रहण कर इससे आध्यात्मिक ज्ञान का एक महान् और गंभीर समन्वय साधने का उपक्रम करती है; सनातन पुरुष से प्रेरणा पाने वाले मुक्त ज्ञानियों ने आध्यात्मिक अनुसंधान के दीर्घ और सफल काल में जो कुछ दर्शन और अनुभव किया उस सबकों उपनिषदों ने एकत्र करके एक महान् समन्वय के अंदर ला रखा। इस वेदांत-समन्वय से गीता का आरंभ होता है और इसके मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर गीता ने प्रेम, ज्ञान और कर्म, इन तीन महान् साधनों और शक्तियों का एक समन्वय साधित किया है। इसके बाद तांत्रिक [1] समन्वय है जो सूक्ष्मदर्शिता और आध्यात्मिकता गभीरता में किसी कदर कम होने पर भी साहसिकता और और बल में गीता का समन्वय से भी आगे बढ़ा हुआ है,--कारण, आध्‍यात्मिक जीवन में जो बाधाएं हैं उनको भी हाथ में पकड़ लिया जाता है और उसे और भी अधिक सुसमृद्ध आध्यात्मिक विजय के साधन का काम लिया जाता है; इससे सारे का सारा जीवन ही भगवान् की लीला के रूप् में हमारे लिये दिव्य जीवन की प्राप्ति कराने का क्षेत्र बन जाता है। कुछ बातों में यह समन्वय अधिक समृद्ध और फलदायी है, क्योंकि यह दिव्य कर्म और दिव्य प्रेमयुक्त सुसमृद्ध सरस भक्ति के साथ-साथ हठयोग और राजयोग के गुह्य रहस्यों को भी सामने ले आता है। वह दिव्य जीवन को उसके सभी क्षेत्रों में उद्घाटित कराने के लिये शरीर तथा मानस तप का उपयोग करता है, और यह बात गीता में केवल प्रासंगिक रूप से किसी कदर अन्यमनस्कता के साथ ही कही गयी है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह बात स्मरण रहे कि समस्त पौराणिक ऐतिह्य में जो विशिष्ट श्री शोभासंपन्नता है वह तंत्रों से आयी हुई है।

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