गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-11

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गीता-प्रबंध
2.भगवद्गुरु

भगवान् भी इस विश्व-जीवन के नानाविध रूपों में अपने-आपको ढालते हुए, सामान्यतः, इसकी शक्तियों के फलने-फूलने में, इसके ज्ञान, प्रेम, आनंद और विभूति की तेजस्विता और विपुलता में, अपनी दिव्यता की कलाओं और रूपों में आविर्भूत हुआ करते हैं। परंतु जब भागवत चेतना और शक्ति मनुष्य के रूप तथा कर्म की मानव-प्रणाली को अपना लेती है, और इस पर केवल शक्ति और विपुलता द्वारा अथवा अपनी कलाओं और बाह्य रूपों द्वारा ही नहीं, बल्कि अपने शाश्वत ज्ञान के साथ अधिकार करती है, जब वह अजन्मा अपने-आपको जानते हुए मानव मन-प्राण-शरीर धारण, कर मानव-जन्म का जामा पहनकर कर्म करता है तब वह देश-काल के अंदर भगवान् के प्रकट होने की पराकाष्ठा हैः वही भगवान का पूर्ण और चिन्मय अवतरण है, उसी को अवतार कहते हैं। वेदांत के वैष्णव संप्रदाय में इस सिद्धांत की बड़ी मान्यता है और वहां मनुष्यों में रहने वाले भगवान् और भगवान् में रहने वाले मनुष्य का जो परस्पर संबंध है वह नर-नारायण के द्विविध रूप से परिदर्शित किया गया है; इतिहास की दृष्टि से नर-नारायण एक ऐसे धर्म-संप्रदाय मे प्रवर्तक माने जाते हैं जिसके सिद्धांत और उपदेश गीता के सिद्धांतों और उपदेशों से बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। नर मानव-आत्मा है, भगवान् का चिरंतन सखा है जो अपने स्वरूप को तभी प्राप्त होता है जब वह इस सखा-भाव में जागृत होता है, और, वह उन भगवान् मे निवास करने लगता है। नारायण मानव-जाति में सदा वर्तमान भागवत आत्मा है, वह सर्वान्तर्यामी, मानव-जीव का सखा और सहायक है, यह वही है जिसके बारे में गीता में कहा है, ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशें तिष्ठति।
हृदय के इस गूढ़शय के ऊपर से जब आवरण हटा लिया जाता है और ईश्वर का साक्षात् दर्शन करके मनुष्य उनसे प्रत्यक्ष संभाषण करता है, उनके दिव्य शब्द सुनाता है, उनकी दिव्य ज्योत ग्रहण करता है और उनकी दिव्य शक्ति से युक्त होकर कर्म करता है तब इस मनुष्य-शरीरधारी सचेतन जीव का परमोद्धार होकर उस अज-अविनाशी शाश्वत स्वरूप को प्राप्त होना संभव होता है। तब वह भगवान् में निवास और सर्वभाव से भगवान् में आत्म-समर्पण करने योग्य होता है जिसे गीता में उत्तमं रहस्यम् माना है। जब यह शाश्वत दिव्य चेतना जो मानव-प्राणिमात्र में सदा विद्यमान है अर्थात् नर में विराजने वाले ये नारायण भगवान् जब इस मानव-चैतन्य को अंशतः[1] या पूर्णतः अधिकृत कर ले और दृश्यमान मानव-रूप में जगद्गुरु, आचार्य या जगन्नेता होकर प्रकट होते हैं तब यह उनका प्रत्यक्ष अवतार कहा जाता है। यह उन आचार्यों या नेताओं की बात नहीं है जो सब प्रकार से हैं तो मनुष्य ही पर कुछ ऐसा अनुभव करते हैं कि दिव्य प्रज्ञा का बल या प्रकाश या प्रेेम उनका पोषण कर रहा है और उनके द्वारा सब कार्य करा रहा है, बल्कि यह उन मानव तनुधारी की बात है जो साक्षात् उस दिव्य प्रज्ञा से, सीधे उस केंद्रीय शक्ति और पूर्णता में से आते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नवद्वीप के अवतार श्री चैतन्य के विषय में यह कहा गया है कि वे अंशतः या कभी-कभी भागवत चैतन्य और चिच्छक्ति द्वारा अधिकृत हो जाते थे।

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